बाबा साहेब का व्यक्तित्व एवं कृतित्व बहुआयामी

01-04-2023

बाबा साहेब का व्यक्तित्व एवं कृतित्व बहुआयामी

डॉ. नन्दकिशोर साह (अंक: 226, अप्रैल प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

सदी के महानायक संविधान निर्माता, महान समाज सुधारक भारत रत्न डॉ. भीमराव अंबेडकर के 132वीं जयंती मनाई जा रही है। भारत को लोकतांत्रिक एवं प्रगतिशील संविधान देने वाले महामानव, समतामूलक समाज के प्रणेता, भारत रत्न, बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने हमें भेदभाव से उठकर मनुष्यता को समग्रता से अपनाने की सीख दी है। उन्होंने कहा था कि शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए प्राथमिक शिक्षा की नींव को मज़बूत करना होगा। इसके बाद उच्च शिक्षा में स्वतः सुधार हो जाएगा। हमारे सामाजिक दुखों पर शिक्षा ही एकमात्र औषधि है। अपने ग़रीब एवं अज्ञानी भाइयों की सेवा करना प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति का फ़र्ज़ है। कोई तुम्हें अधिकार देने नहीं आएगा, इसके लिए ख़ुद लड़ो और छीन लो। हज़ार तलवारों से ज़्यादा ताक़त एक क़लम में होती है। शिक्षा शेरनी का वह दूध है, जो इसे पियेगा वह गुर्रायेगा। शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो। अपना दीपक स्वयं बनो। 

बाबा साहब एक व्यक्ति न होकर एक विचार हो गये है। घने अंधकार में लोगों को राह दिखाने में वे एक दीपक के समान हैं। उन्होंने गाँधी के ख़िलाफ़ लिखा। इसलिए कुछ गाँधीवादी उनसे चिढ़ गए। उन्होंने हिन्दू धर्म से लेकर इस्लाम तक की बुराइयों पर लिखा इसलिए दोनों तरफ़ के अतिवादी उनसे चिढ़ गए। अम्बेडकर ने सब पर लिखा और लगभग हर ग़लत के ख़िलाफ़ लिखा और अम्बेडकर को भुनाने की कोशिश भी बहुत हुई, और होती चली आ रही है। ग्राम प्रधानी से लेकर सांसदी लड़ने वाले व्यक्ति तक के चुनाव प्रचार में आपको तख़्तियों और पोस्टरों पर अम्बेडकर मिल जाएँगे। अम्बेडकर को वोट-मेकर बना दिया गया है। जिनके लिए अम्बेडकर ने लड़ाई लड़ी, जिन मुद्दों के लिए वो खड़े थे। वो मुद्दे आज भी बने हुए हैं। 

वे सामाजिक क्रांति के संघर्षशील अग्रदूत थे। उन्होंने भारतीय समाज को परिवर्तित करने हेतु अतुलनीय कार्य किया। भगवान बुद्ध, संत कबीर, महात्मा फुले जैसी महान आत्माओं के पदचिन्हों को ध्येय मार्ग मानकर सामाजिक क्रांति के उद्बोधक व पोषक डॉ. अम्बेडकर का व्यक्तित्व, कृतित्व और विचार बहुआयामी है। भारतीय राष्ट्रीय राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन के प्रत्येक पहलू पर उनकी पैनी दृष्टि रही है और उन्होंने इसे प्रभावित भी किया है। एक निष्ठ कर्मयोगी की भाँति भारत रत्न बाबा साहेब ने मृत्यु पर्यन्त भारतीय समाज को परिवर्तित करने का अतुलनीय कार्य किया है। उनका कर्मयोग, संघर्ष एवं सुधारवाद आत्म सम्मान का प्रतीक है। उनके चिन्तन में दलित, शोषित, वंचित समाज से संबंधित प्रश्न सदैव ही प्रमुखता में रहे। 

बाबा साहेब अपने समकालिक लोगों में सर्वाधिक शिक्षित व्यक्ति थे। उन्होंने कठोर परिश्रम से उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। परन्तु जीवन के प्रारम्भिक वर्षों से ही उन्होंने समाज में व्याप्त अमानवीय कुरीतियों, छुआछूत, विभेद, तिरस्कार और जातिगत आधार पर उपेक्षा और अपमान की स्थितियों को स्वयं भोगा था। परन्तु उन्होंने राजनीतिक, सामाजिक जीवन में एक भी ऐसा कार्य नहीं किया, जिसे राष्ट्र विरुद्ध या समाज विरुद्ध कहा जाए। 

डॉ. अम्बेडकर के राष्ट्रवाद को जेल जाना, अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद का विरोध, सत्याग्रह में भागीदारी, गाँधी और कांग्रेस के नेतृत्व को स्वीकारना एवं सहयोग के स्थापित या पोषित मानदंड से अलग समाज सुधार, छुआछूत उन्मूलन, जाति उन्मूलन, शोषण, विषमता उन्मूलन के साथ-साथ समाज के उपेक्षित, शोषित और पिछड़े वर्ग के सशक्तिकरण के साथ राष्ट्र निर्माण की समग्रता में देखना चाहिए। तभी डॉ. अम्बेडकर की राष्ट्र संकल्पना से न्याय हो सकता है। 

डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि व्यक्तिगत स्वार्थ राष्ट्र की तुलना में सदैव पीछे रहना चाहिए। हम सभी को व्यक्तिगत स्वार्थों को देश हित से अलग रखना होगा अन्यथा हितों का टकराव समाज एवं राष्ट्र की एकात्मता के विपरीत जाता है। इसलिए उन्होंने बहुत स्पष्टता के साथ कहा है, “इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि मैं अपने देश को बहुत प्यार करता हूँ। मेरे अपने हित और देश के हित के साथ टकराव होगा तो मैं अपने देश को सदैव प्राथमिकता दूँगा।” 

अनेकानेक संदर्भों में केवल दो संदर्भों का उल्लेख करना अत्यंत समीचीन होगा। गोलमेज़ सम्मेलन में गाँधी जी से टकराव के बाद, ब्रिटिश प्रधानमंत्री से ‘पृथक चुनावी प्रवर्ग’ की प्राप्ति के बावजूद उन्होंने राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखते हुए अपने जातिगत हितों को तिलांजलि देते हुए गाँधी के साथ 1932 में पूना समझौता किया, जिसने इस देश को विभीषिका एवं सामाजिक बिखराव से बचाया। दूसरा उदाहरण उनके धर्म परिवर्तन संदर्भ में देखा जा सकता है। डॉ. अम्बेडकर ने घोषणा की कि वे जन्मना हिंदू हैं, परन्तु हिंदू रूप में मृत्यु को प्राप्त नहीं होंगे, यानी धर्म परिवर्तन करेंगे। उन्होंने 1936 में यह घोषणा की लेकिन 20 वर्षों का एक लंबा समय भारतीय हिंदू समाज को दिया कि वह अपनी कमियों को दूर करें और दलित, शोषित समाज के साथ समत्व और ममत्व का व्यवहार करें, जो सम्भव नहीं हुआ। अंतत: उन्होंने भारतीय भूमि में ही प्रतीकात्मक विरोध से विकसित बौद्ध मत को स्वीकार किया। उन्होंने कहा था कि धर्म परिवर्तन करते हुए ऐसा कुछ नहीं करूँगा जिससे वरिष्ठ हिंदुओं का कोई नुक़्सान हो। जब उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया, तब एक वरिष्ठ हिंदू नेता ने कहा था हमें डर था कि डॉ. आंबेडकर कहीं लंबी छलाँग ना मारें। वह लोगों को इस्लाम या ईसाई धर्म में ना ले जाएँ परन्तु उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाकर ऊँची छलाँग मारी। दरअसल आंबेडकर ने देखा था कि उपेक्षा से बचने के लिए अस्पृश्य समाज तरह-तरह से अपने नाम बदलकर अपनी जाति छिपाने का प्रयास करता है। अंबेडकर ने कहा कि इस तरह नाम बदलने की अपेक्षा धन बदलना अधिक सम्मानजनक है। 

डॉ. अम्बेडकर के लिए राष्ट्र सदैव सर्वोपरि रहा है और उन्होंने 31 मई 1952 में मुंबई में भाषण देते हुए कहा था, “यद्यपि मैं कुछ उग्र स्वभाव का हूँ और सत्ताधारियों से मेरा टकराव होता रहा है फिर भी मैं यह विश्वास दिलाता हूँ कि अपनी विदेश यात्रा में भारत की प्रतिष्ठा पर आँच नहीं आने दूँगा। मैंने कभी भी राष्ट्रद्रोह नहीं किया है। गोलमेज़ परिषद में भी मैं राष्ट्रहित के मामले में गाँधी जी से 200 मील आगे था।” 

विषमताओं और सदियों से संघर्षरत अम्बेडकर को अनेकानेक स्वार्थी राजनीतिकों ने अपनी क्षुद्र राजनीति में क़ैद कर दिया है। परन्तु वे सदैव राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रोन्नति के लिए तत्पर और सन्नद्ध रहे। इसलिए उनके भाषण के एक अंश का उल्लेख प्रासंगिक है, “मैं यह स्वीकार करता हूँ कि कुछ बातों को लेकर सवर्ण हिन्दुओं से मेरा विवाद है परन्तु मैं आपके समक्ष यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूँगा।” राष्ट्र निर्माण ही बाबा साहेब का एकमात्र अभीष्ट था। इसलिए उन्होंने जहाँ दलित, शोषित, वंचित समाज के उत्थान में अपना सर्वस्व लगाया वहीं उन्होंने संविधान के माध्यम से सर्वोपयोगी सर्वसमावेशी, ऐसे प्रावधान किए जिससे आज भारत समग्र दुनिया के सफलतम लोकतंत्र के रूप में स्थापित है। 

दुखद है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी कुछ अल्पज्ञ लोग अफ़वाह फैलाते हैं कि अंबेडकर ने संविधान में कोई मौलिक योगदान नहीं किया किन्तु दुनिया भर के संविधान में उतार कर रख दिया। संविधान तो निर्मात्री सभा/ ड्राफ्टिंग कमेटी ने बनाया था। आंबेडकर को तो शोभा के लिए चेयरमैन बना दिया गया था। काश समिति के सदस्यों ने अपने दायित्वों का निर्वहन किया होता तो टीटी कृष्णमाचारी में संविधान सभा में यह नहीं कहा होता कि संविधान का निर्माण करने वाले चुनिंदा 7 सदस्यों में से एक ने त्यागपत्र दिया। एक का देहांत हो गया। एक अमेरिका चला गया। एक रियासतों के काम-काज में व्यस्त रहा। एक दिल्ली से दूर रहते थे। उनका स्वास्थ्य ठीक न रहने से उपस्थित न रह सके। अंजाम यह हुआ कि संविधान निर्माण का सारा भार अकेले डॉ. भीमराव आंबेडकर को ही उठाना पड़ा। इससे आंबेडकर की कर्मठता प्रमाणित होती है। यह बताने की ज़रूरत नहीं। 

डॉ. भीमराव अम्बेडकर का व्यक्तित्व एवं कृतित्व इतना विशाल एवं बहुआयामी है कि उसे एक लेख में समेटना सम्भव नहीं है इसलिए कुछ अन्य उपयोगी राष्ट्र निर्माण में सहायक विषयों का सांकेतिक उल्लेख ही सम्भव है, लेकिन राष्ट्रवाद के परिप्रेक्ष्य में इनके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता। भाषायी आधार पर राज्यों के गठन का विरोध, हिंदी की राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापना, संस्कृत भाषा की शिक्षा और गुणवत्ता, धारा 370 का विरोध, मत परिवर्तन पर उनके विचार, धर्म की उपयोगिता का विचार, श्रम नीति, सुधार, शहरीकरण का महत्त्व, उनके द्वारा महाड सत्याग्रह, समान नागरिक संहिता एवं हिन्दू कोड बिल, श्रीमद् भगवद्गीता को प्रदत्त महत्त्व आदि अनेक अनेक ऐसे विचार हैं, जिनसे उनकी राष्ट्रीय दृष्टि का ज्ञान होता है। इसलिए बाबा साहेब का समग्रता में अध्ययन करने की आवश्यकता है। उन्होंने राष्ट्र के ऊपर असीम उपकार किया है। वे ऐसे श्रेष्ठ व्यक्ति हैं कि उनसे उऋण होना कठिन है। इस महामानव ने भारतीय हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों को मिटाने, परिवर्तित करने और दलितों, वंचितों के उत्थान, समानता एवं सम्मान के लिए जिस निष्ठा और समर्पण भाव से संघर्ष एवं प्रयास किया, वह अनुकरणीय है। आज उनके संदेशों को आत्मसात करने और किसी भी प्रकार के नशा से दूर रहने की ज़रूरत है। 

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