असली क्षमावाणी

15-08-2022

असली क्षमावाणी

डॉ. ऋतु खरे (अंक: 211, अगस्त द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

हाँ! उन्होंने हमें ठेस पहुँचाई! 
हाथ बने उपहारों की क़ीमत न चुकाई
एहसानों की सुधबुध न आई, 
कौशलों की क़द्र न जताई
दोषों की प्रसिद्धि करवायी, 
बिन समझे ही धारणा बनाई
मन के कोलाहल की हँसी उड़ाई, 
पदोन्नति पर दी न बधाई
चुनौतियों में संवेदना न दिखाई, 
रक्तरंजित प्रेमपत्र के उत्तर एक चिट्ठी न आई
सालों की मित्रता पर सालगिरह याद न आई, 
अंश के जन्म पर नहीं की गोद भराई
परिजन की मृत्यु पर सांत्वना न आई, 
हाँ, उन्होंने हमें ठेस पहुँचाई। 
  
क्षमा तो माँगी नहीं तनिक भी
फिर भी चलो हमने उन्हें माफ़ किया 
पर्यूषण के अवसर पर 
अपना मन भी साफ़ किया। 
  
हाय! यह मैंने क्या किया था! 
मति मारी गई थी या चरस खा लिया था? 
सप्रेम भेंटों पर मुँह बना दिया था 
कितनों की कृपाओं को भुला दिया था, 
खरी प्रतिभाओं पर प्रश्न उठा दिया था
राई सी त्रुटियों का तमाशा बना दिया था, 
उनके भिन्न होने का उपहास किया था
उनकी व्यग्रता को हँस कर नकार दिया था, 
दूजे की विजय को सहा नहीं था
उनके संघर्षो को सुन मन ही मन मुस्का दिया था, 
निर्दोष प्रेम को झट से जुदा किया था
बचपन की मित्रता पर दार धरा दिया था, 
दूजे के शुभ समाचार पर स्वयं को जला लिया था 
कुटुंबी को शैय्याग्रस्त अंततः विदा किया था, 
हाय, यह मैंने क्या किया था, 
मति मारी गई थी या चरस खा लिया था? 
  
दोष तो अक्षम्य थे
फिर भी चलो आज स्वयं को माफ़ किया, 
पर्यूषण के अवसर पर 
अपना मन भी साफ़ किया। 
  
यह उपर्युक्त वाक्य
कुछ सुने सुने से लगते हैं 
प्रतिवर्ष पुनरावृत्त हो 
फिर सधे सधे से बँटते हैं। 
पर लोग जितना सुन्दर बोलते है
जितना सुन्दर लिखते हैं, 
उतने सुन्दर क्यों नहीं दिखते हैं? 
मात्र तीस के फिर साठ के क्यों दिखते हैं? 
क्यों यह काले रंगे केश
हाथ फेरते ही गिरते हैं? 
कहीं ऐसा तो नहीं कि 
वचन में क्षमावाणी 
पर मन में जटिल गाँठें लिए फिरते हैं? 
  
आज पर्व के पहले दिन 
पहली बार दिल खोल ही दो 
क्षमा का यह ढोंग करना छोड़ ही दो, 
मन की गीता पर हाथ रखो
लोकमत से डरना छोड़ ही दो, 
सच सच कहो! 
क्या दूजों को
क्या स्वयं को माफ़ किया? 
  
मेरे प्रिये! सच कहूँ तो, 
वर्षों से निरामिष होकर भी 
तामसिक प्रवृत्ति नहीं जाती है, 
माफ़ किया बोलकर भी 
स्मृतियाँ साफ़ नहीं हो पाती है, 
भीख माँगने पर भी 
हमारे हिस्से क्षमा नहीं आती है
दर्दनाक गुत्थियाँ
पत्थर की लकीर की तरह 
वहीं की वहीं रह जाती हैं। 
  
खम्मामि सव्व जीवेषु सव्वे जीवा खमन्तु में, मित्ति में सव्व भू ए सू वैरम् मज्झणम् केण इ
  
कितना अयथार्थ 
कितना असंभव 
यह उपलक्ष्य लगता है, 
स्पष्ट प्रतीत होता है
फिर भी दूर यह लक्ष्य लगता है। 
जैन तो नहीं जन्मे
न बन पाए श्वेताम्बर दिगंबर, 
अतितुच्छ हम कैसे जाने
इस अतिमहामना पर्व का मंतर, 
फिर भी प्रयत्न करते हैं 
इसे सीधे पंचपरमेष्ठी से सीखने का, 
घोर साहस करते हैं 
इसे स्वरचित शब्दों से देखने का। 
  
हे अरिहंत! मुक्ति दो 
मन की जटिल गुंथन से
काया की वज़नी जकड़न से। 
  
हे सिद्ध! भर दो 
उत्तमक्षमा को चित्त में हृदय में प्राण में। 
  
हे आचार्या! शक्ति दो 
स्वयं को क्षमा कर पुनः आत्मविश्वास धरूँ। 
  
हे उपाध्याय! शक्ति दो
दूजों को क्षमा कर पुनः विश्वास कर उन्हें वरदान दूँ। 
  
हे मुनि! शक्ति दो 
विषण्ण क्रोध के पीढ़ीगत प्रतिरूप से 
स्वयं को वंशजों को चिरस्वतंत्र करूँ। 

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