अमर प्रेम

15-08-2022

अमर प्रेम

डॉ. ऋतु खरे (अंक: 211, अगस्त द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

लोग कहते हैं मैं बदल गई 
मेरे शोले से प्रेम की अग्नि 
तीली की ज्वाला सी ढल गयी। 


हाँ सही तो है 
मैं बदल गयी, 
पर बदली नहीं मैं आज 
बदली थी जब 
है वह डेढ़ दशक पहले की बात। 


तुझसे बिछड़ने से पहले
कंठ में अकाल सा पड़ा था, 
पर इस जिह्वा को 
तेरे उपनामों की चाशनी सहला रही थी। 
कुर्सी को सीधा करने के प्रयत्न में 
छू रही थी मैं आसपास के बटन, 
पर इस चर्म से 
तेरे स्पर्श की ही ख़ुश्बू आ रही थी। 
गूँजा तो था 
कुर्सी की पेटी बाँधने का सन्देश
पर इन कानों को 
एक बारम्बार धुन सता रही थी। 
जहाज़ के उड़ान भरते ही
कम हुई थी आसपास की हवा, 
पर इन साँसों में 
तुझसे उठती एक कम्पन समा रही थी। 
जब तक दिख रहे थे तुम 
उस रोशनदानी खिड़की से 
यह आँखें अश्रुवर्षा से 
केवल प्रेम बरसा रहीं थीं। 


कैसे समझाऊँ कि 
मैं क्या 
मेरी तो हर इन्द्रिय ही बदल गयी थी। 


यहाँ परोसे जा रहे 
मुझे मेरे ही धर्म के 
कटु अपक्क से चित्र, 
पर मैं उपजती जाऊँ 
सरस आस्थाओं से पोषित 
एक पवित्र चरित्र, 
चख जो सकती हूँ
पुण्य पंथ की मिठास को। 


छेड़े जा रहे 
जातिवाद के आरोप बारम्बार, 
पर मैं करती जाऊँ
मात्र मानवता की वंशावली का विस्तार, 
छू जो सकती हूँ
पूर्वजों की कीर्ति रश्मियों को। 


ललकारते जा रहे 
कोलाहलमय कट्टरता के आरोपण, 
पर मैं चुपचाप रचती जाऊँ
एक प्रगतिशील उदाहरण, 
सुन जो सकती हूँ
बढ़े चलो की पुकार को। 


हवाओं में है 
बोलचाल की शैली की ठिठोली, 
पर मैं जलाती जाऊँ
बहुभाषिता में निहित संघर्षों की होली, 
सूँघ जो सकती हूँ
सुबाड़वाग्नि की सुगंध को। 
 
घूरे जा रहे 
नारी के विरुद्ध पक्षपात के अभियोग, 
पर मैं दर्शाती जाऊँ 
सशक्त स्वतंत्र स्री का योग, 
देख जो सकती हूँ 
हिमाद्रि पर बैठी स्वयंप्रभा समुज्ज्वला को। 


और कैसे समझाऊँ कि 
मैं क्या 
मेरी तो हर इन्द्रिय ही बदल चुकी है। 


प्रेम पर संदेह था 
तो पुनः आती हूँ इस भाव पे, 
यूँ बसा चलती हूँ 
तुझे हर हाव भाव में, 
कि हर कोई पूछ बैठे 
क्या अभी अभी आयी हो 
बैठ किसी तिरंगी नाव में। 
मेरे जन्म पर ही झटके से तोड़ा था
उस नौमासी गर्भनाल को, 
पर अंतिम शैय्या तक ले जाऊँ 
तुझ संग जुड़े इस जीवंत तार को। 
वह अपूर्व प्रेम फीका पड़ जाए 
देख तुझ संग प्रीत के राग को, 
एक दिन अवश्य बुझेंगी 
तेरे विरुद्ध सतही विश्वधारणाएँ 
देख मेरी भक्ति की आग को। 


इस पंद्रह अगस्त
चाहूँ मैं भी स्वतंत्रता 
मुझ पर भिन्नता के आरोप से 
मेरे बदल जाने के जनप्रकोप से। 
नहीं समझ पाऊँ कि लोग 
मुझे भिन्न खिन्न होता देख 
यूँ जश्न क्यों मनाते हैं? 
कहते हैं दूरी प्रेम बढाती है, 
फिर मेरे देशप्रेम पर प्रश्न क्यों उठाते हैं? 


अगले बरस जो फिर दिखूँ मैं 
थोड़ी और बदली बदली सी, 
पढ़ लेना मेरी भी पृष्ठकथा 
एक धीरा समझ के, 
या चाहो तो भिड़ लेना मुझसे 
एक प्रवीरा समझ के, 
या छोड़ देना मुझे मेरे हाल पर
हर बरस मात्र एक दरस को तरसती
एक मीरा समझ के। 

सन्दर्भ: 

https://www.hindikunj.com/2021/08/himadri-tung-shring-se-poem.html 
http://purishiksha.blogspot.com/2018/09/bcom-1st-year-hindi.html
https://en.wikipedia.org/wiki/Anti-Indian_sentiment
https://www.asianstudies.org/wp-content/uploads/breaking-free-reflections-on-stereotypes-in-south-asian-history.pdf
https://www.diversityinc.com/six-things-you-should-never-say-to-south-asian-americans/
https://www.amazon.com/Stereotype-Global-Literary-Imaginary-Literature/dp/0231165978

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें