अनुत्तरित प्रश्न
सरिता गुप्तासदियों से मुझे लगता था, मेरा होना तुमसे है;
यदि तुम मेरे साथ न हो,
जीवन में तुम्हारा आधार न हो,
तो मैं, साँसों का भार भी नहीं सह पाती,
मैं अकेली, “मैं” हो कर भी नहीं रह पाती।
आज तक मैं यही जानती थी,
तुम सृजन की मूल इकाई हो,
अब तक मैं यही मानती थी,
मैं बस ज़रूरतों की भरपाई हूँ।
विविध रूपों में तुम्हारी अनुपूरक,
तुम्हारे तुम होने, तुम संग चलने,
तुम्हारा जीवन चलाने के लिए,
संभवतः मैं, ऐसी ही गढ़ी गयी।
वृद्धि को तुम्हारे ध्यान में रख कर,
शास्त्र-वेदों की ऋचाएँ रची गयीं,
तुम्हारे अनुरूप मैं ढल सकूँ,
उसी अनुसार ही वो पढ़ी गयीं।
सर्वज्ञात, सर्वमान्य, निर्विरोध,
रही मैं पूर्ण आश्रिता, समर्पिता;
मैं झुकी रही, तुम तने रहे सदा,
किन्तु कोई प्रश्न कभी नहीं उठा।
किन्तु आज कुछ और देखती हूँ,
तुम्हारी बड़ी-बड़ी महिमा मंडित,
बातें, मेरी छोटे-मोटे आदतों से,
यूँ ही जबरन जोड़ दी गयी हैं।
तुम्हारे जन्म और पालन की बात नहीं करती,
वो कार्यभार तो सृष्टि ने दिया था, ताकि मैं,
स्वयं को अपनी क्षमताओं के साथ पहचान सकूँ,
प्रकृति की पूर्णता में अपनी भी महत्ता जान सकूँ।
मैं तो उन मान्यताओं की बात कर रही हूँ,
जो समय के साथ, अपनी
प्रमाणिकता खो रही हैं,
तथ्य से दूर हो कर आज,
खोखली प्रतीत हो रही हैं,
सच छूटता ही जा रहा है,
किन्तु रिवाज़ों को ढो रही हैं,
चिढ़ जाती हैं आधुनिकता से,
अवमानना को रो रही हैं,
प्रासंगिकता के युग बीत गए,
समझदारी फिर भी सो रही है।
मेरे माँग के सिंदूर की लंबाई से कैसे,
तुम्हारी साँसों की डोर बँध जाती है?
मैं व्रत उपवास ना रखूँ, तो
पति पुत्र की आयु क्यूँ कम हो जाती है?
मैं ओढ़नी ना लूँ, तो, बाहर निकलते ही
क्यूँ तुम्हारी नियत नग्न हो जाती है?
औरों की सोच और कृत्य से, कैसे
मेरे अपनों की प्रतिष्ठा भग्न हो जाती है?
पुत्र पालना दूध पिला कर,
एक माँ के लिए, सदा उचित है,
फिर पुत्री का अर्जित खाना
पिता के लिए कैसे अनुचित है?
संरक्षण पोषण स्वीकृत है,
फिर अर्थोपार्जन क्यूँ वर्जित है?
जब मैं बहूँ निज मार्ग पर अपनी गति से,
क्यूँ विकास तुम्हारा रुक जाता है?
मैं सीधी खड़ी हो जाऊँ अपनी रीढ़ पर,
तो सर, तुम्हारा क्यूँ झुक जाता है?
मेरे स्वाभिमान समर्थन में,
तुम्हारा अभिमान क्यूँ आड़े आ जाता है?
मेरे सशक्त, सक्षम होने से,
तुम्हारी स्वायत्ता को क्यूँ डर लग जाता है?
प्राण, प्रतिष्ठा, ईमान, सम्मान तुम्हारे
आख़िर इतने क्षणभंगुर क्यूँ हैं?
मैं तो थी तुम्हारी परजीवी सदा से,
फिर ये मुझ पर आश्रित क्यूँ हैं?
मेरे पिता, पुत्र, भाई मेरे,
पति, श्वसुर और सहकर्मी,
मेरी बातों से व्यथित न हो,
यूँ ही इतने भयभीत ना हो,
मैं शक्ति हूँ, पर संयम भी है मुझमें, जानती हूँ
शरण दे कर तुमने शासन भी किया है,
संरक्षण के नाम पर शोषण भी किया है।
सब जान कर भी दण्डित नहीं करूँगी,
क्यूँकि मैंने तुमको जन्म दिया है।
प्रतिशोध नहीं लूँगी तुमसे,
क्यूँ कि मैं तुम्हारी प्रतिद्वंद्वी नहीं।
तुम्हारे अस्तित्व के लिए ख़तरा नहीं,
मैं सखा हूँ, संगी हूँ, सहचरी हूँ, सक्षम हूँ,
अपने साथ तुम्हारा और तुम्हारी इस
दुनिया का भी ख़्याल रख सकती हूँ,
तुम्हारी वंश वृद्धि के साथ भी,
अपनी योग्यता सिद्ध कर सकती हूँ।
इसलिए मुझे सहारा देने से पूर्व,
तुम स्वयं आत्मनिर्भर हो जाओ,
समाज में मेरा स्थान उठाने से पूर्व,
तुम अपने बल पर खड़े हो जाओ।
माता-पिता, संतान, और संबँधी
सबकी ज़िम्मेदारियाँ उठाओ,
संसारिकता में साझेदार रहो,
गृहस्थी में सही भागीदार बनोI
ख़ुद अपना सम्मान सहेजो,
मेरी मर्यादा की आड़ छोड़ो,
बेवजह ही अपनी प्रतिष्ठा,
मेरी निष्ठा से न जोड़ो।