अणुगल्पमाला भाग 1 : समीक्षा

01-05-2025

अणुगल्पमाला भाग 1 : समीक्षा

प्रो. नव संगीत सिंह (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

पुस्तक: अणुगल्पमाला भाग 1 
 (बांग्ला लघु कथाएँ) 
अनुवाद एवं संपादन: बेबी कारफरमा
प्रकाशक: सदीनामा प्रकाशन कोलकाता
पृष्ठ: 142
मूल्य: 250/-रुपए 

 

 श्रीमती बेबी कारफरमा का जन्म पंजाब में एक सिख परिवार में हुआ। वह वर्तमान में एक बंगाली परिवार से ताल्लुक़ रखती हैं और कोलकाता में रहती हैं। बी.ए. करने के बाद उनकी रुचि कविता, कहानी, निबंध, जीवनी और अनुवाद में हो गई। उन्होंने बंगाली में राजा राम मोहन रॉय, ईश्वर चंद्र बिद्यासागर और काज़ी नज़रूल इस्लाम की जीवनियाँ लिखीं। हिंदी से बांग्ला में अनुवाद सहित चार संपादित पुस्तकें, विश्व लघुकथा संग्रह, निर्बाचित हिंदी अणुगल्प, रामकुमार घोटड़ की लघुकथाएँ, सुकेश साहनी की लघुकथाएँ (नोना जल), बांग्ला से हिंदी में अणुगल्पमाला; और चुनिंदा कविताओं का बंगाली में 'पायेर तलाय माटी' शीर्षक से अनुवाद किया। वह बंगाली और हिंदी भाषाओं के बीच एक सशक्त सेतु के रूप में पूरी लगन और मेहनत के साथ लगातार काम कर रही हैं। 

अनुवाद की प्रक्रिया देखने में बहुत सरल और आसान लगती है। लेकिन हक़ीक़त में यह दोधारी तलवार पर चलने जैसा है। अर्थात् अनुवादक को स्रोत और लक्ष्य दोनों भाषाओं का ज्ञान होना चाहिए। लेकिन यह ज्ञान केवल भाषाई स्तर पर ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश से भी जुड़ा हुआ होना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि अनुवादक को न केवल स्रोत भाषा के साथ-साथ लक्ष्य भाषा के शब्दों का भी ज्ञान होना चाहिए, बल्कि उस क्षेत्र/देश के हर पहलू का भी ज्ञान होना चाहिए, जिसमें अनुवाद किया जा रहा है। जब पाठक अनुवाद पढ़े तो उसे ऐसा महसूस होना चाहिए कि वह अनुवाद नहीं बल्कि मूल पाठ पढ़ रहा है। वास्तव में अनुवाद शब्द-दर-शब्द या पंक्ति-दर-पंक्ति नहीं होता, बल्कि भाव-अनुवाद होना चाहिए। 

समीक्षाधीन पुस्तक में बंगाली लेखकों की हिंदी में अनूदित लघुकथाएँ शामिल हैं। इनमें रवींद्रनाथ टैगोर से लेकर बासबदत्ता कदम तक कुल 68 लेखकों की लघुकथाएँ शामिल हैं। ये कहानीकार बंगाली भाषा में लिखते ज़रूर हैं, लेकिन वे सिर्फ़ पश्चिम बंगाल में ही नहीं रहते, भारत और अन्य देशों के विभिन्न शहरों के निवासी हैं। जैसे चेन्नई, धनबाद, त्रिपुरा, दिल्ली, जबलपुर, बांग्लादेश, अमेरिका और कैलिफ़ोर्निया आदि। पुस्तक में अधिकांश लेखकों का संक्षिप्त परिचय भी शामिल है। लघुकथाओं के अलावा पुस्तक के प्रारंभ में संपादकीय (जीतेन्द्र जितांशु), दो शब्द (जगदीश राय कुलरियां) और भूमिका (अशोक भाटिया) भी है। इन लघुकथाओं का चयन और अनुवाद पूर्णतः बेबी कारफरमा का अपना है। 

इस संग्रह की सभी लघुकथाएँ जीवन की वास्तविकता को उजागर करती हैं। इन्हें पढ़कर कोई भी बंगाली लेखकों की प्रवृत्तियों के बारे में जान सकता है कि वे समाज और सामाजिक असमानताओं को किस प्रकार देखते हैं, तथा लेखकों ने उस अनुभव को अपनी रचनाओं में किस प्रकार प्रस्तुत किया है। पुस्तक की विस्तृत भूमिका में प्रख्यात हिंदी चिंतक एवं लघुकथाकार डॉ. अशोक भाटिया ने सम्मिलित लघुकथाओं का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। अनुवादक बेबी कारफरमा ने प्रतिनिधि बांग्ला लेखकों की लघुकथाओं का हिंदी में अनुवाद करके हिंदी पाठकों को बांग्ला विषय-वस्तु के साथ-साथ उनकी कलात्मक कुशलता (शैली) से भी परिचित कराया है। चूँकि मैं स्वयं एक अनुवादक हूँ और पंजाबी पाठकों तक हिंदी/अंग्रेज़ी कथा साहित्य तथा हिंदी पाठकों तक पंजाबी साहित्य पहुँचाने का प्रयास करता रहता हूँ, इसलिए मेरे विचार से इस प्रकार का आदान-प्रदान एक अकेले व्यक्ति द्वारा नहीं किया जा सकता, बल्कि उच्च संस्थानों/विश्वविद्यालयों को अनुवादक को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए आगे आना चाहिए। इस क्षेत्र में बेबी कारफरमा द्वारा किया गया कार्य निश्चित रूप से सराहनीय है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए! 

समीक्षक: प्रो. नव संगीत सिंह

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