अंतरंग

मीना चोपड़ा

तुमसे मिली धूप
तुम्हीं को अर्पित कर दी मैंने। 
 
सुबह की कोख से उदित होकर
यह आसमानों में डबडबाई थी। 
 
बूँद बूँद टपकी
सिलेटी अँधेरों में। 
 
एक मद्धम सी रोशनी
बिखर गई थी। 
कहती थी कुछ हमसे
जो हम सुन ही न सके। 
 
किसी चुप सी अमावस को
कभी मुड़कर
बंद दरवाज़ों के पीछे छुपे अँधेरों को
टटोल पाए अगर
तो शायद छू सकें
उस टपकते नूर के कुछ
अमूल्य सुनहरे मोती। 
 
कुछ छिटक के गिर गए थे इधर-उधर
जो समेट के रख लिये थे
मैंने पास अपने। 
सदियों तक जीने के लिये शायद काफ़ी हों। 
 
छोटी सी पूँजी है
न तो घटती है न ही टूटती है क्भी। 
हो सके तो इसमें से कुछ
तुम भी रख लो। 
जीवन का मोल और कुछ भी नहीं
अंतरंग आगे इसके और कुछ भी नहीं। 

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