अंत भला तो सब भला

01-09-2022

अंत भला तो सब भला

रश्मि सिन्हा (अंक: 212, सितम्बर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

माधुरी, आज ड्रॉइंग रूम से गुज़रते हुए फिर उस तस्वीर के आगे ठिठक कर रुक गई। ग़ौर से उस तस्वीर को देखती रही। नन्ही स्कूल जाने वाली उसकी बेटी पाखी और उसकी युवावस्था की तस्वीर और कब उसकी आँखों से दो आँसू टपक गए, पता ही नहीं चला। 

पाखी, उसकी लाडो, दुलारी, कितने प्यार से वो उसको पढ़ाया करती थी। सच इतने प्यार से तो सिर्फ़ एक माँ ही पढ़ा सकती है। उसकी, न, न, उसकी और पाखी दोनों की मेहनत का नतीजा था कि वो एक के बाद एक क्लास की सीढ़ियाँ सफलतापूर्वक चढ़ती गई। 

बहुत मन था माधुरी का कि पहले पाखी अपनी पढ़ाई पूरी करके अपने पैरों पर खड़ी हो ले तब ही उसकी शादी करूँगी। 

कोई डोरबेल बज रहा था और माधुरी चौंक कर वर्तमान में वापस आई, दरवाज़ा खोला, रजनी थी, उसका शाम का खाना बनाने वाली लड़की, “ओफ़्फ़ो भाभी! कितनी देर से घंटी बजा रही हूँ, कहाँ थीं आप? मैं वापस जाने ही वाली थी।” 

“कुछ नहीं, ज़रा झपकी आ गई थी,” जवाब दिया माधुरी ने। “सुन रजनी! एक कप बढ़िया सी चाय पिला दे, सर भारी हो रहा है,” कहते हुए माधुरी अपने कमरे की ओर बढ़ गई, “और हाँ!” वो फिर मुड़ी, “आज पेट भी भरा-भरा सा लग रहा है, सिर्फ़ खिचड़ी और चटनी बना लेना।” 

“ जो हुक्म, मेंरी भाभी जी,” मुस्कुराई रजनी, “अभी चाय लाती हूँ।” 

चाय का कप उसके हाथ में पकड़ाकर रजनी फिर रसोईघर की ओर मुड़ गई। 

माधुरी फिर पाखी के ख़्यालों में खो गई। 

पाखी को पढ़ाते हुए समय पंख लगा कर उड़ गया, अब वो कॉलेज में थी। 

समय का ये वो दौर था जब अचानक ही उसके पति अक्षत बीमार पड़े। 

अक्षत से उसका रिश्ता एक ख़ूबसूरती से निभाया जाता रिश्ता था, दिमाग़ से निभाया जाता। कभी-कभी तीखी झड़पें भी हो जातीं पर अधिकतर समय माधुरी उनके कटु बोल सुनकर भी अनसुना करना सीख गई थी पर उनके कार्य पर चले जाने के बाद रोती भी ज़रूर और पाखी इन झगड़ों और रोने की मूक दर्शक रहती। 
यही वजह थी कि वो बड़ी होते-होते माँ की तरफ़ झुकती गई और पापा से उसका वार्तालाप सीमित होता गया। 

अक्षत की बीमारी, पाखी और माधुरी की अथक भागदौड़ के बाद भी उसकी जान लेकर ही गई थी। 

फिर सब कुछ धीरे-धीरे सामान्य होता गया था और ज़िन्दगी ने एक नई करवट ली थी। प्रगाढ़ होते गए थे माँ बेटी के रिश्ते। घूमना, खाना, खुलकर हँसना, कितना कुछ था जीवन को ‘जीवन’ कहने लायक़। सोच कर माधुरी मुस्कुरा दी। 

अचानक ही फिर दरवाज़ा खुला, तंद्रा भंग करने के लिए, “उफ़! अब क्या सोच कर हँस रही हो?” रजनी थी ये। 

“अब हर बात तुझे बताऊँ?” क्यों हँस रही हूँ, “क्यों रो रही हूँ,” हँसते हुए माधुरी ने कहा था।

रजनी भी मुस्कुराई, “मत बताओ, उठकर दरवाज़ा तो बंद कर लो।”

“अच्छा!” कहकर माधुरी उठी थी, दरवाज़ा बंद किया। 

रजनी डायनिंग टेबल क़ायदे से लगा कर गई थी। डोंगे में खिचड़ी, एक बाउल में चटनी और सलाद। भूख भी लग आई थी, खाना खाकर थोड़ी देर टीवी देखा फिर बिस्तर पर लेट गई वो, यादों की टूटी कड़ियाँ फिर जुड़ने लगी थी। 

पाखी, जो अब एमबीए कर रही थी वो, बदलने लगी थी, कभी छोटी-सी बात पर चिड़चिड़ा जाती तो कभी पलट कर जवाब दे देती। 

धैर्य से सुनती वो ये सब, आख़िर सारे जीवन एक यही गुण तो सीखा था। एक दिन पाखी को पास बैठा कर प्यार से वजह जाननी चाही थी। 

अनुमान सही ही था, प्यार करने लगी थी वो अपने एक सहपाठी अनुराग शंकर से। 

“तो माँ इतनी पराई हो गई कि तुम्हें ये बात बताने से पहले सोचना पड़े?” माधुरी ने प्यार से झिड़का था उसे। 

हालाँकि ‘शंकर’ सुनकर एक कीड़ा-सा रेंगा दिमाग़ में पर संयत कर गई ख़ुद को माधुरी। 

जानती थी, एक साथ कई प्रश्न करेगी तो पाखी चिड़चिड़ा कर ही जवाब देगी, उठते हुए बोली थी, “अच्छा अब मैं चली किचन में, बनाती हूँ तेरे लिए कुछ अच्छा सा। और हाँ! बुला लेना उसे किसी दिन घर पर, मैं भी तो देखूँ, अपनी लाडो की पसंद।” 

एक दिन उसने अनुराग को घर भी बुलाया था, हैंडसम अनुराग माधुरी को भी पसंद आया था।

खाने के दौरान ही माधुरी ने उसके परिवार के विषय में भी जानना चाहा था। 

“आंटी, हम चार भाई बहन हैं, पिता का सदर बाज़ार में रेडीमेंड गारमेंट्स का शोरूम है।” पाखी को शायद पहले से ही यह जानकारी थी तो वह शांत बैठी दोनों की बातचीत सुन रही थी। “मुझ से बड़ा एक भाई और दो छोटी बहनें . . .” अनुराग बोलता जा रहा था। 

उसके जाने के बाद माधुरी के दिल में उथल-पुथल सी मची थी, चार बच्चे, बड़ा भाई शादीशुदा यानी सात प्राणियों का परिवार! इधर पाखी अपने परिवार की इकलौती, लाड़ प्यार में पली, कान्वेंट शिक्षित– वास्तविकता के धरातल अक़्सर कठोर ही हुआ करते हैं। 

अपनी शंका उसने धीरे से पाखी से कही भी, “पाखी सुनो!” सुनते ही पाखी बोल पड़ी थी, “तुम परेशान न हो, अनुराग ने वादा किया है, शादी के बाद हम लोग अलग घर में रहेंगे, और हाँ ये भी जान लो माँ, अनुराग अनुसूचित जाति का है।” एक जाने हुए सत्य को वो धमाके से घोषित करते हुए अपने कमरे में चल दी थी। 

यहाँ से ही माँ, बेटी के बीच एक दीवार खिंचने लगी थी। माधुरी का अनुभवी दिल और दिमाग़ कहता, ये लड़की ग़लत क़दम उठा रही है किन्तु पाखी प्रेम के रास्ते काफ़ी आगे तक बढ़ चुकी थी। 

जब भी माधुरी उसे समझाने की कोशिश करती एक मुँहफट जवाब हाज़िर रहता। हद तो उस दिन हो गई जब उसने लगभग चिल्लाते हुए बोला, “माँ तुम इतनी सीधी भी नहीं हो, जितनी दिखाने की कोशिश करती हो, ज़रूर पापा के साथ भी तुमने ख़राब व्यवहार किया होगा नहीं तो कोई पति इतना बुरा भी नहीं होता।” पैर पटकते हुए वो घर से निकल गई थी। 

कितना फूट-फूट कर रोई थी माधुरी उस दिन, शायद प्रेम में अंधा होना इसे ही कहते हैं। उस दिन की गई पाखी फिर नहीं लौटी थी, छह महीने हो गए थे इस घटना को हुए। एक पत्र आया था पाखी का मैंने और अनुराग ने कोर्ट मैरिज कर ली है, तुम सुखी रहो अपनी दुनिया में। 

पहली बार क्रोध से काँप गई थी माधुरी, ‘भाड़ में जाओ, मैं नहीं ढूँढ़ने वाली तुम्हें’। 

इतना आसान तो न था अपने कलेजे के टुकड़े को यूँ अलग कर देना। अक़्सर रोती और सोचती कहाँ ग़लती हो गई उससे पाखी के पालन-पोषण में, या कहीं वो ही तो नहीं ग़लत है? क्या मैं अपनी अधूरी तमन्नाएँ पूरी करने के चक्कर में पाखी को दबाती चली गई? 

नहीं कदापि नहीं, उसका दिल सरगोशी करता। साथ ही ये भी कि ईश्वर पाखी को ख़ुश रखे, उसे जीवन में उन अनुभवों से न गुज़रना पड़े, जिनसे मैं गुज़री और निभाया भी। जो भी हो एक ज़िद थी कि मैं पाखी को फोन नहीं करूँगी, उसे भी तो मेरी चिंता नहीं है कि माँ किस हाल में होगी? 

एक कटु सत्य जीवन का ये भी है कि सबक़ जीवन में व्यक्ति अपने ही अनुभवों से लेता है दूसरों के अनुभव उसके लिए उपदेशों से अधिक कुछ नहीं हैं। 

पाखी बहुत ख़ुश थी अनुराग से शादी करके और उसके ससुराल वाले भी। एक, दो . . . दस दिन गुज़र गए, प्रसन्नता बरक़रार भी थी हाँ एक बात अवश्य थी कि शान्ति में रहने वाली पाखी को वो रौनक़ अब शोर-शराबा लगने लगी थी और ऊब रही थी वो इससे। 

अनुराग भी उसे बदला हुआ प्रतीत होता, अक़्सर उसका अनुरोध हुआ करता पाखी से, माँ और भाभी की मदद करने का, पर अब वो अनुरोध भी अधिकार की भाषा में परिवर्तित हो चुका था। 

सुन लेती पाखी, पर रोज़-रोज़ ये उसके बस का न था। एकाध बार दबे स्वर में उसी शहर में अलग मकान लेने को कहा तो वो बिफ़र गया, “कैसी बातें करती हो? माँ, पिता से अलग हो जाऊँ? भाभी ने कभी भाई से ऐसा कहा होगा क्या?” 

छह महीने काफ़ी होते हैं छोटी-मोटी कहासुनी को तकरार में बदल जाने को। पाखी अपने कमरे में लेटी आज माँ के बारे में सोच रही थी, कैसी होगी वो, क्या-क्या न बोला था उन्हें? टप-टप आँसू बहने लगे थे उसकी आँखों से। दो, तीन बार मोबाइल से नम्बर मिलाया और काट दिया, हिम्मत ही न थी। 

किस मुँह से बात करती, माँ उसे कभी माफ़ नहीं करेंगी। अगर कर दिया होता तो क्या फोन मिलाकर बात न की होती? हाल न लेती? 

माधुरी ने पाखी की मिस्ड कॉल देखी, दोनों के ही स्वाभिमान अंत पर थे, फ़ौरन पाखी को फोन मिलाया, “हेलो! पाखी!” 

“माँ. . .” इसके आगे पाखी से बोला न गया, फोन काट कर ख़ूब रोई। क्या माधुरी समझती नहीं थी? वो तो ख़ुद बैठकर रो रही थी। 

संयत होकर फिर फोन मिलाया था पाखी ने, “माँ मैं तुमसे मिलने आ जाऊँ?”

दौड़कर आ जा, माँ का उत्तर था। अपनी सासु माँ से पूछकर, क्या वो आज रात में माँ के पास रुक जाए? और उनकी सहर्ष अनुमति के बाद वो चल पड़ी थी। 

उधर माधुरी ने पाखी की पसंद की कितनी ही चीज़ें बनाने का ऑर्डर दे डाला था रजनी को, ख़ुद भी किचन में ही घुस गई थी। पाखी को उसके हाथ की खीर बहुत पसंद थी, और पालक पनीर, ये दो डिश मैं ख़ुद बनाऊँगी रजनी, कहकर वो ये दो चीज़ें बनाने में जुट गई। 

घंटी बजी थी, अधैर्य से ही दौड़कर माधुरी ने दरवाज़ा खोला था और ऐसा लगा जैसे बरसों से बिछुड़ी दो सहेलियाँ मिली हों। आँसू दोनों की ही आँखों से बह रहे थे। 

कितने क़िस्से थे पाखी के पास बताने को और माधुरी मुस्कुरा कर, ठोड़ी पर हाथ रखे सुनती ही जा रही थी। अंत में पाखी बोली थी, “माँ, अब मुझे वहाँ नहीं जाना।” 

“क्यों? पागल है क्या, तेरी बातों से मैंने अनुमान लगा लिया है, तेरी ससुराल में सब अच्छे स्वभाव के हैं। क्या अनुराग तुझसे ठीक से बिहेव नहीं करता?” 

“करता है पर आठ लोगों के परिवार में कोई प्राइवेसी नहीं है, और हम दोनों का झगड़ा इसी बात को लेकर होता है।” 

“पागल है तू, अच्छा घर और वर मुश्किल से मिलता है। मैं ग़लत थी अनुराग को समझने में। अच्छा तुम ऐसा कर किन्हीं दो, चार-बड़ी कंपनियों में अप्लाई करो, अनुराग से कैसे अनुमति लेना है ये तुम्हारे विवेक पर निर्भर है। हो सकता है ये दूरी अनुराग को भी सोचने का समय दे दे।” 

“ओ मेरी प्यारी मम्मी!” कह कर पाखी ने उसके गले में बाँहें डाल कर एक चुम्मी अंकित कर दी उसके गालों पर। 

अगले दिन पाखी लौट गई थी। शीघ्र ही उसे पाखी के बंगलौर के एक मल्टीनेशनल में अपॉइंटमेंट की सूचना मिली थी। ज़ाहिर था, अनुराग की सहमति थी। 

अनुराग को भी शान्ति से सोचने का समय था और अब वो पाखी के एंगल से भी सोच पा रहा था। कोशिश थी उसकी भी बंगलौर पहुँचने की। 

एक परिवार टूटते टूटते बचा था क्यों न बचता दो समझदार महिलाओं के अनुभव काम आए थे। 

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