ऐ बस्तियो
विजय कुमारऐ बस्तियो! उजड़ रही हो क्यों?
डर के साये में सिमट रही हो क्यों?
इतिहास की गलियों से लेकर,
भविष्य के पड़ाव तक का सफ़र,
अब तुम्हारे हाथों में है,
सुनामियों की प्रलयों को,
रोकने का दमखम भी,
अब तुम्हारे इरादों में है,
फिर गुमशुदाओं के मेले में,
बिखर रही हो क्यों ?
ऐ बस्तियो! उजड़ रही हो क्यों?
माना हर आँख नम हुई है,
लेकिन साहस की प्रवृत्ति भी,
तनिक ना कम हुई है,
सब सपने टूटे हैं,
यहाँ अपने रूठे हैं,
कुछ इस तरह कट रहा लम्हा,
लग रहा रब के वादे झूठे हैं,
लेकिन महज़ ये आभासी फ़साना है,
हमें तो सारी बाधाओं के पार जाना है,
हार ना मानो अब जागो,
नई आशाओं को जगाना है,
इन उजड़ी कुटियाओं में,
नवदीप जलाना है,
परिवर्तित कर सकती हो ख़ुद को,
एक अद्भुत संसार में,
फिर पतन की ओर बढ़ रही हो क्यों ?
ऐ बस्तियो! उजड़ रही हो क्यों?