ज़िन्दगी का ढाँचा
महेश पुष्पदजो कुछ भी दिया तूने,
ख़ुशी भी,और ग़म भी,
सर झुकाकर मैंने,
स्वीकार कर लिया।
अपना ले या ठुकरा दे,
परवाह नहीं मुझको,
तुझे अपना मान लिया,
तुझसे प्यार कर लिया।
ढूँढने को दर तेरा,
दर-दर फिरा मारा-मारा,
जब ख़ुद को जाना तो
तेरा, दीदार कर लिया।
तमाम उम्र मज़हबी,
तालीम में गुज़ार दी,
मंदिरों-मस्जिदों पर,
ऐतबार कर लिया।
मंदिरों में न मिला,
न मस्जिदों में पाया,
तू तब मिला जब हर
शख़्स को, यार कर लिया।
पुण्य समझकर पाप का,
भरता रहा घड़ा,
ज़िंदगी को स्वार्थ का,
व्यापार कर लिया।
सुनकर जग वालों से,
तेरी रहमतों के क़िस्से,
ज़ुर्म करके क़ुबूल
हर बार कर लिया।
ढह जायेगा एक रोज़ ये,
ज़िन्दगी का ढाँचा,
क्यों दौलत को साँसों का,
ख़रीदार कर लिया।