वो फ़ैसला तुम्हारा था
डॉ. शैली जग्गी
वह फ़ैसला तुम्हारा था,
कटघरे में खड़ा किया मुझे!
उस जुर्म की सज़ा हुई,
जो तुम्हारे हाथों मिला मुझे।
अग्नि परीक्षा मैथिली की,
रावण के दुष्कृत्य पर!
हर बार मैं आहत हुई,
सीता-शकुंतला-अहिल्या बन!
कभी स्वयंवरों में वरी गई,
बाज़ी के पलटे रूप में!
फिर भाइयों में बँटी भी मैं,
मिल बैठ खाए भोज्य में।
कभी नुमाइश हुई मेरी,
वधू-चयन प्रक्रिया नाम पर!
समझौतों की वर्षा मिली,
प्रतिफल और इनाम पर।
रतिशयन की मर्ज़ी सदैव,
क्यों पति की इच्छा पर!
मेरी एषणा का दमन क्यों,
हर एक पल अवज्ञा पर!
कभी लोकलाज भय से,
गर्भवती ही निष्कासित हुई!
गृहस्वामिनी बस लिखी गई,
मानी नहीं कभी गई।
जब भी आवाज़ उठाई तो,
दबा दी गई चिंगारी सी!
कुलक्षणा, कुलनाशिनी,
असभ्या फिर आँकी गई।
परंपरा के नाम पर,
कुरीतियों में बाँधा मुझे!
देवियों की धरती पर,
मनुष्य तक न बाँचा मुझे।
विक्रय की मुद्रा हुई,
संकट में जब पुरुष हुआ!
प्रायः कोख में क़ब्र बनी,
जननी को भक्षक किया।
दोयम कहा सदा मुझे,
उपेक्षिता-ताड़ित हुई।
कभी भार तो कभी बोझ सी,
पराया धन कही गई!
कर्त्तव्य और अधिकार का,
अनुपात कहाँ समान है!
बलिवेदी पर मैं ही चढ़ी,
कहने को मेरा जहान है।
हर रिश्ते ने छला मुझे,
संबंधों के नाम पर!
सुर्ख़ियों में रही सदा,
समाचारों के निशान पर।
बाघिन हो सकती थी मगर,
हिरणी बनाया गया मुझे!
त्याग-तपस्या-करुणा का,
पाठ बस मेरे लिए . . .!!