वह मेरी आँखों का नीर
विजय कुमारवह मेरी आँखों का नीर,
एक दिन सहसा मुझ पर,
एकदम से फूट पड़ा था,
बहुत कोशिश की मैंने,
उसे रोकने की समझाने की,
पर वह विचलित होते हुए,
मुझ पर टूट पड़ा था,
सब कुछ सहते हुए भी,
वह ख़ामोश तो था,
एक लंबे अरसे से,
पर शायद आज,
चुप ना रह सका,
उस दयनीय श्रम जल को देखकर,
शर्मिंदगी का एहसास कराया,
रुलाया ख़ूब उसने मुझे,
कि मेरे होते हुए,
यह कैसा नज़ारा है,
सब कुछ होते हुए भी,
अब क्यों तू बेसहारा है ?
वह मेरी आँखों का नीर,
सच में संजीवनी था,
जिसने मृत शरीर में,
मेरे प्राणों को जगाया,
इस घुटी घुटाई दुनिया से,
बाहर निकलना सिखाया।