शहर है भीड़ है बस
डॉ. उमेश चन्द्र शुक्लशहर है भीड़ है बस एक आदमी ही नहीं
वादे है ख़्वाब है नीचे कोई ज़मीं ही नहीं॥
मुझे था हौसला अँधेरे को चीर डालूँगा
हाथ सूरज है मगर इसमें तो रौशनी ही नहीं॥
रोज़ बद्शक़ल होती जा रही है दुनियाँ अब
फिर भी सुनता हूँ की कोई कहीं कमी ही नहीं॥
फ़ासले बढ़ रहे हैं अब तो अमन के बाग़ों से
सुकूँ मिलेगा कहाँ जब कि रात-रानी ही नहीं॥
निगलती जा रही कुर्सी समूचे जंगल को
कौन सहेजे इन्हें जब आँख सभी पानी ही नहीं॥
अब तो लालच ने नपुंसको की भीड़ रच डाली
वतन पर मिटने वाली वो जोशों भरी जवानी ही नहीं॥