पीठ पर हिमालय
डॉ. गोरख प्रसाद ’मस्ताना’वह ढोता है बोरियाँ
उठाता है गठरी
कभी कभी जबाव देने लगती है ठठरी
लेकिन ऋतुओं का रोना नहीं रोता
वह
क्या जेठ क्या माघ
सब सूद खोर की तरह घाघ
लेकिन कर्ज़ के मर्ज़
की दवा है कहाँ
है भी तो दे कौन
ग़रीब चुप अमीर मौन
घर में गो जवान बेटियाँ
एक अपाहिज पुत्र
एक अंधी माँ
अर्धांगिनी साथ में /आधी
राह भी नहीं नाप सकी
अब तो संगिनी है लाचारी
रात दिन की मित्र बेचारी
अमीरी की कब्र पर
ग़रीबी की धूप
टूटी आशा, बिखरे विश्वास
पल पल उच्छ्वास
अपनी ही पीठ पर ढो रहा
अपनी ही लाश
जीवन की हताश
इतनी भारी
मानो पीठ पर हिमालय