दंभ

डॉ. अनुज प्रभात (अंक: 200, मार्च प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

कटिहार की यात्रा में था। गाड़ी सिमराहा (रेणु गाँव) स्टेशन पर रुकी। खिड़की से एक एक सज्जन ने अपना रुमाल बढ़ाते हुए, एक व्यक्ति से ख़ाली सीट पर रख देने को कहा। गाड़ी खुलने लगी तो वे सज्जन आये और अपना रुमाल उठा कर बैठ गये। 

सिमराहा के बाद अगला स्टेशन अररिया था। अररिया में गाड़ी रुकते ही बग़ल वाले सज्जन को सीट सुरक्षा की ज़िम्मेदारी देकर वे उतरकर पान खाने चले गए। 

अभी वे डिब्बे से उतरे भी नहीं थे कि एक युवक आकर उसी सीट पर बैठ गया। बग़ल वाले सज्जन का रोकना बेअसर रहा। 

जब वे सज्जन पान चबाते हुए अपनी सीट के पास पहुँचे, युवक को अपनी सीट पर प्रभाव जमाये बैठा देख, उन्होंने उस युवक से प्रेम पूर्वक कहा, “देखिए, यहाँ मैं बैठा हुआ था।” युवक की भृकुटी चढ़ी और बोला, “जब मैं यहाँ आया था तो यह सीट ख़ाली थी और इसका कोई रिज़र्वेशन तो है नहीं आपके नाम।” 

युवक की बोली में जवानी की ताल और भाषा में लोकल होने का भाव और प्रभाव था। 

बेचारे सज्जन वक़्त की नज़ाकत भाँपकर चुप रह गये और वहाँ से थोड़ी दूर हटकर मेरे बग़ल में खड़े हो गए। मैंने उस सज्जन को अपनी सीट पर ही किसी प्रकार बिठा लिया। 

गाड़ी अररिया से आगे निकलती हुई जलालगढ़ स्टेशन पहुँची। वहाँ क्रासिंग थी। क्रासिंग होने पर अक़्सर गाड़ी आध-एक घंटा रुक ही जाती है। ऐसे में लोग उतर कर इधर-उधर टहलने ही लगते हैं। ऐसा ही कुछ उस वक़्त हुआ। उस युवक ने भी उसी बग़ल वाले सज्जन से कहा, “ज़रा देखिएगा, कोई बैठे नहीं, ” और नीचे उतर गया। 

उस सज्जन ने युवक की बातों का कोई जवाब नहीं दिया। इसी बीच मेरे पास बैठे उस पीड़ित सज्जन से एक व्यक्ति ने कहा, “अब आप जाकर उस सीट पर बैठ जाएँ, कुछ बोलेगा तो हम देख लेंगे।” किन्तु उस सज्जन ने यह कहकर आग्रह को अस्वीकार कर दिया कि, “उसे ही बैठने दीजिए।” 

संयोग से तभी एक हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति आते और उस युवक वाली सीट ख़ाली देखकर बैठ गये। बग़ल वाले ने और भी अच्छी तरह उन्हें बैठा लिया। 

गाड़ी खुलने लगी तो मुँह में रजनी-गंधा तुलसी चबाता हुआ वह युवक भीतर आया। जब उसकी नज़र अपने सीट पर बैठे हुए व्यक्ति पर गई, कहा, “भईया यह मेरी सीट है।” 

उस व्यक्ति ने उस युवक की ओर देखे बिना कड़े शब्दों में कहा, “इस सीट पर किसी का नाम लिखा है क्या?” 

युवक चुप था। थोड़ी देर तो वहीं खड़ा रहा, फिर धीरे-धीरे सरकता हुआ वहाँ से आगे बढ़ गया और पूर्व के उसी सज्जन के बग़ल में आकर खड़ा हो गया, किन्तु उसे किसी ने नहीं बिठाया। 

सीट पर बैठे व्यक्ति के होठों पर मुस्कराहट निखर रही थी। गाड़ी आगे बढ़ती जा रही थी, लोग देख रहे थे। उत्तरोत्तर बढ़ते 'दंभ' के असर को . . .। 

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