अहं ब्रह्मास्मि
अवधेश तिवारी
गुरु और शिष्य एक साथ देशाटन पर थे। चलते-चलते दोनों एक नदी में पहुँचे, वहाँ जल में बुदबुदे उठ रहे थे।
गुरु ने कहा, “बेटा! तुम बुदबुद नहीं, जल हो।”
वे कुछ और आगे बढ़े। एक स्थान पर कोई कुंभकार घड़े बना रहा था। शिष्य कुंभकार के घूमते हुए घट-चक्र को बड़े ध्यान से देख रहा था गुरु ने कहा, “बेटा! तुम घट नहीं, मिट्टी हो।”
लंबी यात्रा करते-करते हुए वे कुछ और आगे बढ़े तो किसी नगर के हाट में पहुँच गए। वहाँ आभूषणों की बड़ी-बड़ी दूकानें सजी हुई थीं। गुरु ने कहा, “बेटा! तुम आभूषण नहीं, स्वर्ण हो।”
शिष्य गहरे चिंतन-मनन में था। अब वे वहाँ से आगे बढ़कर भीड़-भाड़ वाले क्षेत्र में पहुँचे। यहाँ आकर शिष्य विचलित हो गया। उसी भीड़ में गुरु के चरणों पर गिर पड़ा और बोला, “गुरुदेव! मैं जीव नहीं, ब्रह्म हूँ। अहं ब्रह्मास्मि।”
गुरु और शिष्य-दोनों के मुख-मंडल पर जैसे आलोक की वर्षा हो रही थी। गुरु ने बस इतना कहा, “हमारा देशाटन सम्पूर्ण हुआ वत्स! आओ, वापस चलें।”