आदमी
महेश पुष्पद
जाने किस मक़ाम पे, ठहर गया आदमी।
ज़िंदा भी है? या कि मर गया आदमी॥
रास्तों में खो गया, मिली नहीं मंज़िल।
न जाने ऐसी कौन-सी, डगर गया आदमी॥
मिली थी चंद साँसें, सँवारने को ज़िन्दगी।
जाना था किधर, किधर गया आदमी॥
नित नई साज़िशों के, जाल बुनता रहा।
अपने ही ज़हर से, भर गया आदमी॥
पूछा जब ख़ुदा ने, हिसाब ज़िन्दगी का।
ख़ामोश रहा, जब ख़ुदा के घर गया आदमी॥
बीत गए वहम में ही, ज़िन्दगी के चार दिन।
करना था क्या . . . क्या कर गया आदमी॥
गुज़री न ज़िन्दगी की, आपाधापी कभी।
गुज़र गई ज़िन्दगी, गुज़र गया आदमी॥