वक़्त नाज़ुक है

01-03-2021

वक़्त नाज़ुक है

महेश पुष्पद (अंक: 176, मार्च प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

वक़्त नाज़ुक है, ज़रा सँभल कर चल रहा हूँ,
आजकल मैं एक नए साँचे में ढल रहा हूँ,
ज़िंदगी दे रही है सबक़ पे सबक़,
इम्तेहानों की तपिश में एक मुद्दत से जल रहा हूँ।
 
हर तरफ़ तकलीफ़ों ने डाल रखा है घेरा,
निगाहें जिधर डालूँ उस तरफ़ है अँधेरा,
तू ही बता ऐ मालिक किस तरह बसर करूँ,
जी लूँगा हर हालात में गर हुक्म हो ये तेरा।
 
ये रात बहुत लंबी है ग़मों की इस दफ़ा,
क्या ख़ता हुई है मुझसे जो हो गया है तू ख़फ़ा,
ये अंजाम ए करतूत है या इम्तेहान की घड़ी है
हर शख़्स ख़िलाफ़ है हर शख़्स है बेवफ़ा।
 
मुखौटे पहनकर घूमते हैं बाज़ारों में,
एक-एक शख़्स है बेहिसाब किरदारों में,
मतलब के हिसाब से मुखौटे बदलते हैं,
ईमान बेचकर दौलत को भगवान बनाया सारों ने।
 
न ईमान की फ़िक़्र है न ख़ुदा का डर है,
फ़ायदा हो जिधर भी ये बस उधर है,
न बातों में सच्चाई है,न रहम दिलों में बाक़ी है,
आदमख़ोरों से ज़्यादा अब इंसानों का क़हर है।

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