व्यामोह

16-01-2009

बस तेज़ रफ़्तार से हिचकोले खाती हुई गंतव्य की ओर भागी जा रही थी। बस में बैठे नरेन बाबू का मन हिचकोलों के बीच प्रसन्नता से उछल रहा था। पिछले पच्चीस वर्षों के लम्बे अंतराल के बाद आज उन्हें शहर के मायाजाल से ऊबकर गाँव जाने का सुयोग प्राप्त हुआ था। रह-रहकर उनकी आँखों के सामने अतीत की सुनहरी यादें घनी हो उठती थीं।

बचपन के वो दिन-कितने प्यारे दिन थे, आज भी भुलाये नहीं भूलते। जीवन के तमाम संघर्षों के बीच आज भी वे अपने बाल-सखा अमूल्य को अपने स्मृतियों में संजोए हुए थे। अमूल्य का ताज़ातरीन चेहरा उनकी आँखों में उभर आता था।

पिछले पच्चीस वर्षों के दौरान उनका अमूल्य स्मृतियों के बीच कहीं गुम होकर रह गया था। आज अमूल्य से साक्षात्कार की कल्पना से ही उसका रोम-रोम पुलकित हो उठता था। कितना ख़ुश होगा अमूल्य उन्हें अचानक अपने सामने देखकर।

तभी गाड़ी एक हिचकोले के साथ रुक गई। गाँव आ गया था। नरेन बाबू अपने सामानों को समेटकर नीचे उतर गए। गाँव की स्वच्छ और ताज़ी हवा के सुखद स्पर्श से मानो उनका बचपन लौट आया था। भारी सामानों को कंधे पर टिकाए नरेन बाबू के पाँव तेजी से गाँव की उबड़-खाबड़ सड़कों पर बढ़े जा रहे थे। गज़ब की फ़ुर्ती आ गई थी उनके थके-हारे शरीर में। वे सबसे पहले अमूल्य से मिलकर बचपन की मिठास का आनन्द लेना चाहते थे।

तभी चलते-चलते उनके पाँव एक खपरैल के मकान के सामने अनायास रुक गये। उन्हें याद हो आया यही तो अमूल्य का मकान है। इस मकान के कोने-कोने से भलीभाँति परिचित थे नरेन बाबू। तभी उनकी नज़र मकान के बरामदे में खाट पर सोये एक व्यक्ति पर टिक गयी। यह अमूल्य था। बचपन का उनका प्यारा अमूल्य- जिसके साथ वे तपती गर्मी की दुपहरी में अमराइयों में टिकोले के लिये घूमा करते थे। उन्होंने हाथ बढ़ाकर अमूल्य को जगाया- “अरे अमूल्य, उठो..... देखो तो कौन आया है....।"

नरेन बाबू की आवाज़ सुनकर जम्हाई लेता अमूल्य उठकर खाट पर बैठ गया और गहरी नज़रों से नरेन बाबू की ओर देखने लगा।

नरेन बाबू बड़े उत्साह से फिर बोले- “अमूल्य... पहचाना मुझे....?”

अमूल्य ने ‘ना’ में गर्दन हिलायी। नरेन बाबू उसी उत्साह से बोले- “अरे.... मैं हूँ..... नरेन।”

अमूल्य को जैसे याद हो आया - “ओह, तुम नरेन हो.... क्या हालचाल है ? सब ठीक तो है?”

“हाँ सब ठीक है.... तुम कैसे हो, अमूल्य?”

“ठीक ही है। अभी तो गाँव में कुछ दिन रहोगे ना, शाम में आना नरेन, अभी एक काम से बगल के गाँव में जाना है।” कह कर अमूल्य उठा और घर के अन्दर दाख़िल हो गया। नरेन बाबू अपलक अमूल्य को दरवाज़े के भीतर जाते देखते रह गये। उनका पूरा शरीर ढीला पड़ गया था।

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