वो भूखा 

15-06-2020

वो भूखा 

समितिञ्जय शुक्ल  (अंक: 158, जून द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

वो भूखा 
भटक रहा था 
भीड़ भरी सड़कों पर 
कि अचानक कभी-कभी धम्म से बैठ जाता 
की थक के गिर जाता, 
रिसता लगातार अपने पसीने में
सोचता, कि क्यों भूखा है वो ?
उसकी ही वज़ह से!
उसका जवाब उससे फ़ौरन आता 
वो कौन है...वो? जो उसकी वज़ह है...


बड़ा पेचीदा और गंभीर सवाल आता  मार उछाल 
माथे से टपकते पसीने के साथ पोंछ 
इस सवाल को झटकता ज़मीन पर 
कि बेतुका ये सवाल किया करता है अक़्सर परेशान  
..किस चीज़ का भूखा है वो? उसे ख़ुद नहीं पता 
देखी ही नहीं वो चीज़ अभी तक, जिसका भूखा है 
शायद भूख वज़ह एक ये भी थी... 
पर ये तो एक सज़ा हुई...
भूख से तड़पने की,
इससे बड़ी और क्या सज़ा हो सकती है ?
तो क्या सज़ा इसे काटनी पड़ेगी?
हाँ मुझे ये सज़ा काटनी ही पड़ेगी...
कब तक...जब तक कि मैं जीत ना जाऊँ
कौन मैं?
फिर बेकार के सवाल!


वो उठ जाता है, पसीना सूख चुका है..
कुछ हवा भी बह रही है..
पर धूप भी कम नहीं है...
वो देखता है नज़र घुमा के नीचे रेंगती दुनिया को
मन तो करता है कि खा जाय सबको
तब भी भूख कम ना होगी..
पर जब ..तुम सब ही ना रहोगे, 
तो मेरी भूख किस काम की..
तुम हो तो भूख है ..!


चल पड़ता है आगे उन्हीं सड़कों पर 
दो चार क़दम ही चला कि फिर अटकता है
खड़े -खड़े मूर्त सा एक क्षण सोचता है
“..कहीं भटक तो नहीं तो नहीं गया मैं?
इन रोज़मर्रा की सड़कों पर..
मेरी  भूख कम तो नहीं हो रही..?
नहीं नहीं ..
भूख है!
जीने की चाह है!
तभी तो ढो रहा हूँ अपना आधा मुर्दा
पर क्या होगा..?
कहीं मैं ज़िन्दगी भर भूखा ही ना रह जाऊँ
और धीरे-धीरे पूरा ना मर जाऊँ
नहीं...ये तभी हो सकता है जब
मुझे अपनी भूख से नफ़रत हो जाय 
..नफ़रत तो है ही इससे कहीं दबी कुचली
इस एक भूख के चक्कर में 
कुछ भी तो नहीं भोग पाया..
बस खा रहा हूँ ख़ुद को धीरे–धीरे
सब मौसम बेमौसम बीते 
बस इसी एक रंग के ख़ातिर..”


सोचते-सोचते सिगनल पर आ पहुँचा
ठहरा एक क्षण रोज़ की तरह 
लाल बत्ती देखते...
पलटकर पीछे खड़ी भीड़ देखते
उसे डर है भूख से अपनी
कि कहीं अपराधी ना बना दे ये मुझे...
और कौन इस दुनिया में जो 
सह सकता है भूख अनिश्चित काल तक,
कोई नहीं...कोई नहीं!

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