विश्व के कतिपय नव वर्ष तथा हिन्दू नव वर्ष

04-02-2015

विश्व के कतिपय नव वर्ष तथा हिन्दू नव वर्ष

डॉ. रामकेश्वर तिवारी

प्रकृति में विद्यमान सभी चराचर चेतन अचेतन अपना नव वर्ष मनाते हैं। प्रकृति स्वयं अपना नव वर्ष मनाती है। इसी नियम का पालन करते हुए हम सभी प्राणियों में ज्ञानवान होने के कारण अपना नव वर्ष धूम-धाम से मनाते हैं, किन्तु व्यावहारिक जगत में जिस ज्ञानवान प्राणी को अपना नव वर्ष जब प्रतिभासित हुआ तब वह अपने नव वर्ष को उत्सव का रूप दे दिया और आज वही नव वर्ष अलग-अलग तिथियों में मनाया जाने लगा। जैसे -

भारत के विभिन्न हिस्सों में नव वर्ष अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है। प्रायः ये तिथि मार्च और अप्रैल के महीने में पड़ती है। पंजाब में नव वर्ष बैसाखी नाम से १4 अप्रैल को मनाई जाती है। सिख नानकशाही कैलेंडर के अनुसार १४ मार्च होला मोहल्ला नया साल होता है। इसी तिथि के आसपास बंगाली तथा तमिल नव वर्ष भी आता है। तेलुगु नव वर्ष मार्च-अप्रैल के बीच आता है। आंध्रप्रदेश में इसे उगादी (युगादि=युगआदि का अपभ्रंश) के रूप में मनाते हैं। यह चैत्र महीने का पहला दिन होता है। तमिल नया साल विशु १३ या १४ अप्रैल को तमिलनाडु और केरल में मनाया जाता है। तमिलनाडु में पोंगल १५ जनवरी को नव वर्ष के रूप में आधिकारिक तौर पर भी मनाया जाता है। कश्मीरी कैलेंडर नवरेह १९ मार्च को होता है। महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा के रूप में मार्च-अप्रैल के महीने में मनाया जाता है, कन्नड़ नव वर्ष उगाड़ी, कर्नाटक के लोग चैत्र माह के पहले दिन को मनाते हैं, सिंधी उत्सव चेटी चंड, उगाड़ी और गुड़ी पड़वा एक ही दिन मनाया जाता है। मदुरै में चैत्र महीने में चित्रैय तिरूविजा नव वर्ष के रूप में मनाया जाता है। मारवाड़ी नव वर्ष दीपावली के दिन होता है। गुजराती नव वर्ष दीपावली के दूसरे दिन होता है जो अक्टूबर या नवंबर में आता है। बंगाली नव वर्ष बैसाखी १४ या १५ अप्रैल को आता है। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में इसी दिन नया साल होता है। प्रस्तुत लेख में विश्व में मनाये जाने वाले कतिपय नव वर्षों को विवेचित किया गया है।

जापानी नव वर्ष -

यह नव वर्ष पहले २० जनवरी से १९ फरवरी के बीच हुआ करता था। पर अब यह २९ दिसम्बर की रात से ३ जनवरी तक ३ दिन तक मनाया जाता है। इस पर्व को यहाँ याबुरी नाम से जाना जाता है।

म्यांमार नव वर्ष -

इस देश में, जो भारत का पड़ोसी देश है, नव वर्ष के उत्सव को "तिजान" कहते हैं जो तीन दिन चलता है। यह पर्व अप्रैल के मध्य में मनाया जाता है। भारत में होली की तरह इस दिन एक दूसरे को पानी से भिगो देने की परंपरा इस पर्व का प्रमुख अंग है। अंतर इतना है कि इस पानी में रंग की जगह इत्र पड़ा होता है।

ईरान नव वर्ष -

इस देश मे नव वर्ष के समारोह को "नौरोज़" कहते हैं। सूर्य के मेष राशि में प्रवेश करने के दिन यह पर्व मनाया जाता है। यह अकेला ऐसा मुस्लिम पर्व है जिसका मुहम्मद साहब से कोई संबंध नहीं है। लोग भोजन, मिठाइयों और उपहारों की तश्तरियाँ एक दूसरे के घर भेजते हैं। साल के अंतिम सप्ताह में बाज़ार सजावट और रोशनी से जगमगा उठते हैं। नये साल का उत्सव बारह दिनों तक चलता है। नौरोज़ में मेज़ की सजावट का विशेष महत्व होता है और इसको हफ्तसिन कहते हैं। सिन अर्थात ‘स’ अक्षर से शुरू होने वाले सात व्यंजन परोसे जाते हैं। त्योहार से पंद्रह दिन पहले गेहूँ के दाने बो दिए जाते हैं। नौरोज़ के दिन मेज़ के चारों ओर बैठकर इन अंकुरों को पानी से भरे बर्तन में परिवार के सभी लोग बारी-बारी से डालते हैं। मेज़ पर शीशा, एक झंडा, एक मोमबत्ती तथा एक रोटी रखी जाती है जिसे ईरानी लोग शुभ मानते हैं।

इस्लामी नव वर्ष -

इस्लामी कैलेंडर के अनुसार मोहर्रम महीने की पहली तारीख को मुसलमानों का नया साल हिजरी शुरू होता है। इस्लामी या हिजरी कैलेंडर एक चंद्र कैलेंडर है, जो न सिर्फ मुस्लिम देशों में इस्तेमाल होता है बल्कि दुनियाभर के मुसलमान भी इस्लामिक धार्मिक पर्वों को मनाने का सही समय जानने के लिए इसी का इस्तेमाल करते हैं।

सिंधी नव वर्ष -

सिंधी नव वर्ष चेटीचंड उत्सव से शुरू होता है, जो चैत्र शुक्ल द्वितीया को मनाया जाता है। सिंधी मान्यताओं के अनुसार इस दिन भगवान झूलेलाल का जन्म हुआ था जो वरुणदेव के अवतार थे।

सिक्ख नव वर्ष -

पंजाब में नया साल वैसाखी पर्व के रूप में मनाया जाता है जो अप्रैल में आती है। सिक्ख नानकशाही कैलेंडर के अनुसार होला मोहल्ला (होली के दूसरे दिन) नया साल होता है।

जैन नव वर्ष -

जैन नव वर्ष दीपावली से अगले दिन होता है। भगवान महावीर स्वामी की मोक्ष प्राप्ति के अगले दिन यह शुरू होता है। इसे वीर निर्वाण संवत कहते हैं।

पारसी नव वर्ष -

पारसी धर्म का नया वर्ष नवरोज़ के रूप में मनाया जाता है। आमतौर पर 19 अगस्त को नवरोज़ का उत्सव पारसी लोग मनाते हैं। लगभग 3000 वर्ष पूर्व शाह जमशेदजी ने पारसी धर्म में नवरोज़ मनाने की शुरुआत की। नव अर्थात् नया और रोज़ यानि दिन।

हिब्रू नव वर्ष -

हिब्रू मान्यताओं के अनुसार भगवान द्वारा विश्व को बनाने में सात दिन लगे थे । इस सात दिन के संधान के बाद नया वर्ष मनाया जाता है । यह दिन ग्रेगरी के कैलेंडर के मुताबिक 5 सितम्बर से 5 अक्टूबर के बीच आता है ।

ईसाई नव वर्ष -

ईसाई धर्मावलंबी 1 जनवरी को नव वर्ष मनाते हैं। करीब 4000 वर्ष पहले बेबीलोन में नया वर्ष 21 मार्च को मनाया जाता था जो कि वसंत के आगमन की तिथि भी मानी जाती थी । तब रोम के तानाशाह जूलियस सीज़र ने ईसा पूर्व 45वें वर्ष मेंजब जूलियन कैलेंडर की स्थापना की, उस समय विश्व में पहली बार 1 जनवरी को नए वर्ष का उत्सव मनाया गया। तब से आज तक ईसाई धर्म के लोग इसी दिन नया साल मनाते हैं। वर्तमान यह सबसे ज़्यादा प्रचलित नव वर्ष है। चूँकि हमारा राजकीय कैलेंडर ईसवीय सन् से चलता है इसलिये नयी पीढ़ी तथा बड़े शहरों में पले बढ़े लोगों में बहुत कम लोगों को यह याद रहता है कि भारतीय संस्कृति और धर्म में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाला विक्रम संवत् देश के प्रत्येक समाज में परंपरागत ढंग से मनाया जाता है। देश पर अंग्रेज़ों ने बहुत समय तक राज्य किया फिर उनका बाह्य रूप इतना गोरा था कि भारतीय समुदाय उस पर मोहित हो गया और शनैः शनैः उनकी संस्कृति, परिधान, खानपान तथा रहन सहन अपना लिया, भले ही वह अपने देश के अनुकूल नहीं था।

हिंदू नव वर्ष -

हिंदू नव वर्ष का प्रारंभ चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है। इसे हिंदू नव संवत्सर या नव संवत् भी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान ब्रह्मा ने इसी दिन से सृष्टि की रचना प्रारम्भ की थी "चैत्रे मासि जगत् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि" (ब्रह्म पुराण)। इसी दिन से विक्रम संवत के नए साल का आरंभ भी होता है। इसे युगादि (उगादि) नाम से भी भारत के अनेक क्षेत्रों में मनाया जाता है।
हिन्दू नव वर्ष का प्रारंभ चैत्र प्रतिपदा से ही क्यों ?

भारतीय नववर्ष का प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही माना जाता है और इसी दिन से ग्रहों, वारों, मासों और संवत्सरों का प्रारंभ गणितीय और खगोल शास्त्रीय संगणना के अनुसार माना जाता है। आज भी जनमानस से जुड़ी हुई यही शास्त्रसम्मत कालगणना व्यावहारिकता की कसौटी पर खरी उतरी है। इसे राष्ट्रीय गौरवशाली परंपरा का प्रतीक माना जाता है। विक्रमी संवत किसी संकुचित विचारधारा या पंथाश्रित नहीं है। हम इसको पंथ निरपेक्ष रूप में देखते हैं। यह संवत्सर किसी देवी, देवता या महान पुरुष के जन्म पर आधारित नहीं, ईस्वी या हिजरी सन की तरह किसी जाति अथवा संप्रदाय विशेष का नहीं है। हमारी गौरवशाली परंपरा विशुद्ध अर्थों में प्रकृति के खगोलशास्त्रीय सिद्धातों पर आधारित है और भारतीय कालगणना का आधार पूर्णतया पंथ निरपेक्ष है। प्रतिपदा का यह शुभ दिन भारत राष्ट्र की गौरवशाली परंपरा का प्रतीक है। ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्रमास के प्रथम दिन ही ब्रह्मा ने सृष्टि संरचना प्रारंभ की थी। यह भारतीयों की मान्यता है, इसीलिए हम चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नववर्षारम्भ मानते हैं। आज भी हमारे देश में प्रकृति, शिक्षा तथा राजकीय कोष आदि के चालन-संचालन में मार्च, अप्रैल के रूप में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही देखते हैं। यह समय दो ऋतुओं का संधिकाल है। इसमें रातें छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं। प्रकृति नया रूप धारण कर लेती है। प्रतीत होता है कि प्रकृति नवपल्लव धारण कर नव संरचना के लिए ऊर्जस्वित होती है। मानव, पशु-पक्षी, यहाँ तक कि जड़-चेतन प्रकृति भी प्रमाद और आलस्य को त्याग सचेतन हो जाती है। वसंतोत्सव का भी यही आधार है। इसी समय बर्फ पिघलने लगती है। आमों पर बौर आने लगता है। प्रकृति की हरीतिमा नवजीवन का प्रतीक बनकर हमारे जीवन से जुड़ जाती है। इसी प्रतिपदा के दिन आज से 2071 वर्ष पूर्व उज्जयिनी नरेश महाराज विक्रमादित्य ने विदेशी आक्रांत शकों से भारत-भू का रक्षण किया और इसी दिन से काल गणना प्रारंभ की। उपकृत राष्ट्र ने भी उन्हीं महाराज के नाम से विक्रमी संवत कह कर पुकारा। महाराज विक्रमादित्य ने आज से 2071 वर्ष पूर्व राष्ट्र को सुसंगठित कर शकों की शक्ति का उन्मूलन कर देश से भगा दिया और उनके ही मूल स्थान अरब में विजयश्री प्राप्त की। साथ ही यवन, हूण, तुषार, पारसिक तथा कंबोज देशों पर अपनी विजय ध्वजा फहराई। उसी के स्मृति स्वरूप यह प्रतिपदा संवत्सर के रूप में मनाई जाती थी और यह क्रम पृथ्वीराज चौहान के समय तक चला। महाराजा विक्रमादित्य ने भारत की ही नहीं, अपितु समस्त विश्व की सृष्टि की। सबसे प्राचीन कालगणना के आधार पर ही प्रतिपदा के दिन को विक्रमी संवत के रूप में अभिषिक्त किया। इसी दिन मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान रामचंद्र के राज्याभिषेक अथवा रोहण के रूप में मनाया गया। यह दिन ही वास्तव में असत्य पर सत्य की विजय दिलाने वाला है। इसी दिन महाराज युधिष्ठिर का भी राज्याभिषेक हुआ और महाराजा विक्रमादित्य ने भी शकों पर विजय के उत्सव के रूप में मनाया। आज भी यह दिन हमारे सामाजिक और धार्मिक कार्यों के अनुष्ठान की धुरी के रूप में तिथि बनाकर मान्यता प्राप्त कर चुका है। यह राष्ट्रीय स्वाभिमान और सांस्कृतिक धरोहर को बचाने वाला पुण्य दिवस है। हम प्रतिपदा से प्रारंभ कर नौ दिन में छह मास के लिए शक्ति संचय करते हैं, फिर अश्विन मास की नवरात्रि में शेष छह मास के लिए शक्ति संचय करते हैं।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

शोध निबन्ध
सामाजिक आलेख
कविता
साहित्यिक आलेख
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में