वज्रपात

01-09-2020

वज्रपात

ऋत्विक ’रुद्र’ (अंक: 163, सितम्बर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

मैं मृत्यु का बन के चारण
अब सबको सत्य बताऊँगा
मैं रौद्र रूप कर के धारण
अब समर कराने आऊँगा
 
अश्रुकण को मैं भाप बना
अब घोर घात करने आया
वरदान कहीं अभिशाप बना
मैं वज्रपात करने आया
 
क्यों मेरी कविता मौन रहे?
शब्दों से युद्ध करूँगा अब
क्यों रौद्र भावना गौण रहे?
अश्कों को क्रुद्ध करूँगा अब
 
मैं सूरज प्राची को दिलवा
रश्मि से बात करूँगा अब
गाण्डीव सव्यसाची को दिलवा
तिमिर के साथ लड़ूँगा अब
 
वो लहू बहाते सीमा पर
कुछ घर में बैठे हँसते हैं
वीरों को मौत नहीं आती
वो अमरत्व में बसते हैं
 
एक बेटा माँ का मरता है
है आँचल सूना हो जाता
पछताता भाग्य पर हूँ अपने
उस माँ का बेटा हो पाता!
 
कर्मठ यौवन सीमा पर है
रक्तिम सावन सीमा पर है
एक राम दिखाई पड़ता है
सहस्त्र रावण सीमा पर हैं
 
सीने पर उसके है भारी
शत स्वप्नों का बाज़ार लगा
अरमानों की भीड़ लगी
वो करने सब साकार चला
 
उनके कर्तव्यों पर लेकिन
आवाज़ उठाते हैं कायर
बन जाओ वीरता के चारण
क्यों बनते प्रेम भरे शायर?
 
वो चलता सागर चीर सदा
दिखता छोटा हिमराज वहाँ
काँधे पर रख कर वीर सदा
अस्त्र से करता आग़ाज़ वहाँ
 
संसद की चौखट पर मैंने
लाँछन उस पर लगते देखा
कुर्सी की ख़ातिर नेता ने
है देशप्रेम बिकते देखा
 
क्या ख़ून नहीं खौलेगा अब?
क्या भूखंड नहीं डोलेगा अब?
मैं चुप होकर क्या जी लूँगा?
क्या कवि नहीं बोलेगा अब?
 
साँसों को रोकना कठिन नहीं
शब्दों को कैसे रोकोगे?
तुम कुकुर बनो, मैं एकलव्य
भर शर मुँह में क्या भौंकोगे?
  
चेताता हूँ मैं, चुप रहना
वीरों को अपशब्द न कहना
वरना स्याही का छोड़ प्रयोग
मैं अस्त्र उठा कर आऊँगा,
मैं वज्रपात कर जाऊँगा॥

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