तुलसी का बिरवा
आकांक्षा शर्माबचपन में मेरे आँगन में जो तुलसी का बिरवा था, उसकी पवित्र सौंधी महक आज भी मेरे मन और तन को महका देती है। सुबह शाम माँ मिट्टी के बने दीये में घी का दीपक जलाती। पूरी कार्तिक मास माँ सुबह तारों की छाँव में उठकर नहा-धो कर तुलसी की पूजा करती। दीपावली पर उस तुलसी के चारों ओर लीप कर पोत कर माँडने से उठा सौन्दर्य बोध आज भी मन को प्रफुल्लित कर देता है। माँ का हर व्रत हर पूजा तुलसी के बिना अधूरी थी। तुलसी विवाह जैसे पर्व पूरे घर में उत्साह का संचार करते थे। तुलसी का बिरवा हमारे घर का एक अभिन्न सदस्य था। उसके बिना हमारे आँगन की हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
हर व्रत त्योहार हर पर्व हर उत्सव का साक्षी था वो तुलसी का बिरवा। जब भी वो तुलसी का बिरवा सूखने लगता माँ व्यथित हो जाती उन्हें लगता घर पर कोई विघ्न आने वाला है या किसी के स्वास्थ्य को कोई ख़तरा है। आज न वो आँगन है न वो तुलसी का बिरवा। महानगर की संस्कृति ने घर के वो सौंधे आँगन हमसे छीन लिये हैं जहाँ रात को लेट कर तारों को निहारा करते थे। अपने आँगन में आती वो रिमझिम की फुहारों के बारे में सोच कर मन अभी भी भीग जाता है। उसी आँगन में हम तीनों भाई बहिन अपना खेल का मैदान बना लेते थे। सरदी की ठिठुरती रातों में सारे परिवार वाले मिलकर आँगन में रखे चूल्हे से तापने का सुख पाते थे; उस सुख के आगे रूम हीटर की कोई तुलना नहीं की जा सकती। मन इन पुरानी बातों को सोच कर कभी-कभी अधीर हो उठता था।
जब छुट्टियों में बेटी नाती को लेकर घर आती तो अपने आँगन में लगे तुलसी के उस बिरवे से अपनी नाती का हर बार तुलसी की एक नई पौराणिक कथा के साथ परिचय कराती ताकि तुलसी के माध्यम से वो अपनी जड़ों से जुड़ी रहे। मेरी बेटी मेरे इस प्रयास पर मुस्कुरा देती। "बेटी तुमने तो वो आँगन ही नहीं देखा।" इस बार नाती को घर से विदा करते समय मन उदास था। सोचती थी हम अपने संस्कार इन्हें दे नहीं पायेंगे। अपनी संस्कृति और अपनी विरासत का हस्तांतरण न कर पाने का मलाल मन में था। सच भी था मुम्बई जैसे महानगर की चकाचैंध में सर्विस करने वाली मेरी बेटी को कहाँ ये समय होगा जो तुलसी से अपनी बेटी को जोड़ सके।
इस बार त्रयम्बकेश्वर व नासिक के दर्शन करके लौटते हुए बेटी की ज़िद पर मुम्बई में उसके घर भी जाना हुआ। पहली बार बेटी के घर पहुँची लेकिन मेरी लाडली नाती कहीं नज़र नहीं आई। मैंने अपनी बेटी से पूछा तो बोली माँ वो बालकनी में है। मैं जब वहाँ पहुँची तो दंग रह गई मेरी बेटी ने बालकनी मे ढेर सारे तुलसी के बिरवे लगा रखे थे। मेरी नन्हीं नाती उन्हें पानी से सींच रही थी। तुलसी के उन बिरवों में छिपी संस्कृति व संस्कारों की मिठास व गंध तन और मन दोनों को तृप्त कर रही थी। चाहे घर का वो विशाल आँगन नहीं था किन्तु हमारे संस्कारों की महक को मैं आज महसूस कर रही थी।
4 टिप्पणियाँ
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बहुत सुन्दर लेखन आकांक्षा जी। मर्मस्पर्शी कहानी।
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Great thought
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Great thought
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wow. nice language and heart touching story