तुझ से मुकम्मल थी ज़िन्दगी

01-05-2014

तुझ से मुकम्मल थी ज़िन्दगी

पंकज 'होशियारपुरी'

तुझ से मुकम्मल थी ज़िन्दगी
तू ही मक़ाम था
आग़ाज़ से अन्जाम तक
रा न कहीं नाम था

रिंदों ने न जाने कितने
मायने बना लिए
देने वाले ने तो भेजा सिर्फ
मौहब्बत पैग़ाम था

सलीबों पर सजाया गया था
जिस ताज को
तेरी हक़ीक़त बयां करने का
उस पर भी इल्ज़ाम था

कुछ मज़हबों में बँट गए
कुछ सरहदों में बँट गए
उसका तो नहीं फिर सोचो
यह किसका काम था

खोजने निकला तो
कोई हिन्दू मिला कोई मुसलमान
जाने कहाँ खो गया
वो शख़्स इन्सान जिसका नाम था

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