टूटन

शेष अमित

चाय की यह प्याली,
सुबह का सूरज है,
बाज़ दफ़े जब सूरज होता है असहाय,
बादल, बूँद और कोहरे में
इससे उठता धुआँ सबेरा होता है,
जिसमें हैं गर्म बुलबुले,
और छुपी कोई आँधी,
कप पर लिखा नहीं है कोई नाम,
पर उठते समय हर बार,
लिख जाता है मेरा नाम,
जीवन के प्रथम चुंबन की तरह,
जिसपर हर सुबह क़लम दुहराना है,
ओवर राईटिंग की रस्सी पर चलते हुये,
शर्तिया इससे मायना नहीं बदलता,
पर वो सिहरन दुबकती है हर दिन,
मालूम है कि टूटा था हैंडल एक बार,
जो फेविक्विक के आश्वासन पर रुका है,
ग़ौर से न देखो तो यह अब भी मेरा है,
इसके अंदर की मिट्टी दरकी है,
जैसे दरकती हैं मिट्टियाँ बिना बोले,
चाहे चीनी की हो या सीता की,
यह दरकन सो रही है निश्चिंत,
एक मूल से उखड़े बाल की तरह,
दरकन, चिलकन, छलकन,
तब नुमायां होते हैं,
जब हम तूफ़ां नहीं होते,
और ताकते हैं आकाश को,
एक थिर तालाब की तरह,
उस रात-आधे कप पानी में,
होमियोपैथी की कुछ रंगहीन बूँदें-
डालते वक़्त, दिखी थी पहली बार,
वह एक काले बाल सी दरकन,
जिसे कोई शिकायत नहीं थी,
माँ के आँचल की तरह -
थाम लिया था उसका आश्वासन पर टिका हैंडल,
धुआँ, आँधी, कुनकुनापन,
कहीं नहीं था कप में,
प्रेमिका, पत्नी के चौखटों को पार कर,
वह मेरी माँ सी हो रही थी!

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