पिछले कई महीनों से चल रहा आठों प्रहर का चखचख आज अदालत में तलाक़ की अर्जी मंजूर होने के साथ ही समाप्त हो गया।

रवि ने राहत की साँस लेते हुए इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं। दूर अदालत के कोने में खड़ी नीलिमा उसे दीख गई। वह निर्निमेष ढंग से उसे ही निहार रही थी। वही नीलिमा जो कुछ समय पहले तक उसकी ब्याहता पत्नी थी और जिसके साथ उसने अग्नि को साक्षी मानकर जीने-मरने की क़समें खाई थी, अब एक अपरिचित महिला के रूप में अनिश्चित भविष्य की गठरी लिये चौराहे पर खड़ी हो गई थी।

रवि को हृदय के एक कोने में कुछ रिसता-सा महसूस हुआ। किन्तु गर्दन झटककर उसने अपनी उभरती भावनाओं को क़ाबू में किया और फिर तेज़ किन्तु सधे क़दमों से अदालत की सीढ़ियाँ उतरने लगा।

“सुनिए,” अंतिम सीढ़ी पर पहुँचे रवि के पैरों पर मानो ब्रेक लग गये। वह ठिठक कर जहाँ का तहाँ खड़ा हो गया। ऊपर की सीढ़ियों पर पल्लू थामे नीलिमा खड़ी थी।

“अब भी कुछ कहने-सुनने को बाक़ी रह गया है क्या?” झुँझलाते हुए पूछा रवि ने। उसे भय लग रहा था कि नीलिमा कहीं माँ के पुराने गहनों की चर्चा न कर बैठे। इसीलिए वह जल्दी-से-जल्दी उससे पिंड छुड़ाकर भाग जाना चाहता था।

“आपकी दवा का कोर्स पूरा होने में नौ दिन और बाक़ी रह गये हैं, उसे पूरा कर लीजिएगा,” संयत स्वर में वाक्य समाप्त कर नीलिमा वापस लौट गई। रवि सन्नाटे में घिरा उसे देखता ही रह गया।

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