स्पन्दन
प्रवीण शर्मानहीं उड़े मेरे साथ–
वे हज़ारों पक्षी
जो मेरे भीतर
उड़ाने भरते रहे
फूट कर बाहर
नहीं निकले–
वे असंख्य झरने
जो मेरे भीतर
दबे स्वरों में
रोते रहे
वे बन्दी पक्षी–
जो फड़फड़ाते रहे
वे अवरुद्ध झरने–
जो कुलबुलाते रहे
कहीं वही तो नहीं थे
स्पन्दन जीवन के!