समाधान

04-02-2019

नोटबंदी की ख़बर हवा की तरह फ़िज़ा में फैल गई। सब तरफ़ बस एक ही चर्चा हज़ार व पाँच सौ के नोट बंद। उनके स्थान पर दो हज़ार का नया नोट जारी हो गया। इस ख़बर को सुबह-सुबह अख़बार में पढ़ते हुए डाक्टर निशीथ ने अपनी पत्नी से चुहल की "तो श्रीमती जी, अब तक तुमने जो धन छिपा कर रखा है, उसे बाहर निकालने का समय आ गया है। लाओ, अपने सारे हज़ार-पाँच सौ के नोट मेरे हवाले कर दो।"

पत्नी यानी श्रीमती विनीता कौन सा कम थी, बोली "श्रीमान जी, आप फ़िक्र न करें, मैंने पूरा बन्दोबस्त कर रखा है, आपके हाथ एकन्नी भी न लगने दूँगी।

पति-पत्नी के इस वार्तालाप को सुनकर कन्तो चौकन्नी हो गई। हे देवा, अब ये कौन सी मुसीबत आ गई। उसने फ़र्नीचर की धूल झाड़ते-झाड़ते पूछा, "क्या कह रही हो, बहू जी, अब हज़ार-पाँच सौ के नोट नहीं चलेंगे?

"हाँ, हाँ चाची कल रात से ही हज़ार-पाँच सौ के नोट बंद हो गए हैं। तुम्हारे पास तो नहीं रखे हैं हज़ार-पाँच सौ के नोट?"

"ना, ना बहू जी हम गरीबों के पास कहाँ हज़ार-पाँच सौ? हम तो रोज कुंआ खोद के पानी पीने वाले मंजूर ठहरे। चार घर काम करके किसी तरह दो जून की रोटी का जुगाड़ कर पाते हैं।" कह कर वह अपने काम लग गई। कहने को तो उसने कह दिया, मगर वह जानती है कि उसके पास तीस-चालीस हज़ार के पुराने नोट धरे हैं। ये रुपये उसने अपनी बेटी सिया की शादी के लिए जोड़े हैं। वह तब से ही रुपये जोड़ रही है, जब से सिया पैदा हुई थी। लड़की की माँ है, तो चार पैसे होना ज़रूरी है। इसीलिए उसे जब भी पगार मिलती है, वह कुछ पैसे ज़रूर बचा लेती है। मगर नोटबंदी की Kxबर ने कन्तो का जी सुखा दिया।

शाम को जब कन्तो सब घरों का काम निपटा कर घर आई तो सबसे पहले उसने चावल के कनस्तर में रखे लोहे के उस छोटे से डिब्बे को निकाला, जिसमें उसने रुपये तह करके रखे थे। चोर उचक्कों के डर से वह रुपये कभी सन्दूक में नहीं रखती थी। वैसे तो सब जानते हैं कि वह घरों में बर्तन-चौका करती है, मगर मेहनत मज़दूरी करने वालों की इस बस्ती में सब के सब उठाइगीर है, मौका लगते ही घरों के बर्तन, कपड़े तक उठा ले जाते हैं, रुपये पैसे की तो पूछो ही मत। शराब, भांग, चरस, जुआ, सट्टा जैसी लतों से घिरे ये मानुष वनमानुष से कम नहीं।

कन्तो ने वह छोटा सा डिब्बा खोला तो उसमें हज़ार के तीस तथा पाँच सौ के बीस नोट सफ़ेद काग़ज़, जो पीला पड़ चुका था, में लिपटे रखे थे। वह बहुत देर तक नोटों को हसरत से देखती रही। हे ईश्वर, उसके जीवन भर की कमाई अब पूँजी नहीं, माटी हो गई। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि लाल-लाल, हरे-हरे ये करारे नोट अब काग़ज़ का टुकड़ा बन चुके हैं। तभी दरवाज़े की कुंडी खटकी तो समझ गई कि सिया आ गई है। कन्तो ने नोटों को फिर से सँभाल कर डिब्बे में रखा और दरवाज़ा खोलने चली गई।

रोज़ तो थकी हारी कन्तो क्षण भर में ही खर्राटे भरने लगती। मगर आज नींद कोसों दूर थी। मन में जाने कैसी उथल-पुथल थी। इतनी उद्विग्न तो वह कभी नहीं हुई। क्या-क्या आफ़तें उस पर नहीं बीतीं, मगर उसने अपना धैर्य कभी नहीं खोया। एक आह लेकर उसने करवट बदली, तो उसने सिया को सोते देखा। सोचने लगी, उसकी बेटी भी क्या भाग्य लेकर आई है। जब वह पेट में ही थी, तभी उसके बाप ने उसका परित्याग कर दिया था। उसे याद आया, जिस दिन वह अपने माँ बनने की ख़बर अपने पति रतन को देना चाहती थी, उसी दिन वह अपने लिए दूसरी ब्याहता ले आया था और उससे बोला था कि अब यही मेरी पत्नी है, तुम इसको खुश रखकर ही इस घर में रह सकती हो, मगर उसने सौतन के साथ रहना मंजूर नहीं किया और अपने मायके आ गई। वहीं पर सिया का जन्म हुआ।

मायके में भी कौन सा सुख था। भाभी तो बात-बात में ताने मारती थी कि कैसी बेसउर है, अपने मरद को ही काबू में न रख सकी। कन्तो चुपचाप सुनती और आँसू बहाती। माँ जब ज़िंदा थी फिर भी गनीमत थी। माँ के न रहने पर तो उसका जीना दूभर हो गया। घर का सारा काम उसके ज़िम्मे छोड़ कर भाभी निश्चिंत हो गई। वह सारा दिन काम में खटती रहती, बेटी के लिए भी समय न मिलता। जब वह भूख से रोने लगती तब कन्तो उसे अपने आँचल से ढक कर दुग्ध पान कराती। भाभी को यह भी बर्दाश्त न होता। वह चिल्लाती, "अरी ओ महारानी, इतना सारा काम पड़ा है और मेम साहब आराम फरमा रही है।"

"नहीं, भाभी वो सिया भूख के मारे रो रही थी, इसीलिए इसे लेकर ज़रा सा लेट गई थीं।"

"ओफ़, सिया कोई राजकुमारी है जो ज़रा सा रो नहीं सकती। अभी खाना तैयार नहीं हुआ। बच्चे स्कूल से आएँगे तो क्या खाएँगे?"

इसी तरह दिन-दिन करके समय बीतने लगा। जब सिया पाँच वर्ष की हो गई, तब कन्तो ने भाई से कहा था, "भइया, सिया का नाम स्कूल में लिखवा दीजिए।"

जवाब भइया की जगह भाभी ने दिया था, "क्या करेगी पढ़-लिख कर?"

"भाभी आजकल पढ़ना-लिखना कितना ज़रूरी हो गया है। अगर मैं पढ़ी लिखी होती तो...।"

"अच्छा, अच्छा," भाभी ने बात काट कर कहा था, "कल सिया को लेकर प्राइमरी कन्या पाठशाला चली जाना।"

भाभी, मैं सिया को सरकारी स्कूल में नहीं, इंगलिश माध्यम वाले स्कूल में डालना चाहती हूँ, जिसमें अमित और अनन्या पढ़ते हैं।"

सुनकर भाभी एकदम बिफ़र पड़ी, "ओ हो, महारानी के अरमान तो देखो हमारे बच्चों से बराबरी करेंगी। बेटी पर इतना गुमान है तो फिर इसे लेकर इसके बाप के घर क्यों नहीं चली जाती? वहाँ तो ठिकाना नहीं लगा और हमसे सीना ज़ोरी करती है। हम पे ऐसे रौब गाँठ रही है, जैसे हमने ठेका ले रखा है।"

"न, न, भाभी, मैं कोई रौब नहीं गाँठ रही मैं तो बस...।" कन्तो रोने लगी, मगर भाभी का दिल नहीं पसीजा और वह भीतर चली गई। भइया ने भी भाभी का अनुसरण किया। भाई की चुप्पी से कन्तो मर्माहत हो उठी। पहली बार उसके अन्दर विद्रोह की भावना जगी। ... उह, सारे दिन मैं खटती रहती हूँ। कुछ नहीं कहती तो सिर्फ़ अपनी सिया के लिए। अगर ये लोग मेरी बेटी के लिए कुछ नहीं कर सकते तो फिर मैं ही जानमारी क्यूँ करूँ? मज़दूरी-टहल ही करनी है तो फिर कहीं भी करके दो रोटी पेट में डालने का जुगाड़ कर लूँगी।"

अगले ही दिन कन्तो बेटी की उँगली पकड़ बस मे चढ़कर शहर में सुरतिया भौजी के पास आ गई। सुरतिया भौजी उसी के गाँव की थी, जो काफ़ी दिनों से शहर में रहती थी। उसका पति राज़गीर था, मगर पति की मृत्यु के बाद उसने लोगों के घरों में बर्तन-चौका करना शुरू कर दिया था। सुरतिया भौजी ने भरपूर मदद की। उसने कन्तो को अपने कमरे के बगल वाला कमरा डेढ़ हज़ार रुपया महीने में किराए पर दिलवा दिया था। उसने ही कन्तो को कालोनी के कुछ घरों में अपनी ज़मानत पर बर्तन माँजने व साफ़-सफ़ाई का काम दिलवा दिया था। जब भाई को पता चला तो फिर वे उसे लेने आए थे। उनका कहना था कि कन्तो के इस तरह काम करने से उनकी बदनामी होगी, मगर कन्तो गाँव लौटने को राज़ी न हुई, बोली, "भइया, देश चोरी, परदेश भीख बराबर होती है। अब मुझे यही रहने दो। गाँव तो मैं जभी आऊँगी, जब मेरी सिया कुछ बन जावेगी।"

तब से लेकर आज तक वह सिर्फ़ एक ही अरमान लिए जीवन बिता रही है कि सिया को काबिल मानुष बनाना है, बीते बरस सिनेमा की रील की तरह उसकी आँखों के सामने एक के बाद एक आ रहे थे। इतने कष्ट-मशक्कत के साथ उसने ये समय गुज़ारा है कि वही जानती है। बड़ी मुश्किल से उसने चार पैसे जमा किए हैं, मगर नोटबंदी ने एक नई मुसीबत खड़ी कर दी। वह चारपाई से उठ बैठी और एक बार फिर चावल के कनस्तर से डिब्बा निकाल कर रुपयों को छौने की तरह सहलाने लगी। अपनी गाढ़ी कमाई को यूँ मिट्टी में मिलते देख उसका रोया-रोया दुखी हो उठा। दोनों हाथ ऊपर उठा कर ईश्वर से प्रार्थना करने लगी, "हे दीनानाथ, मुझ ग़रीब पर दया करो। अब तुम ही हमरी नाव के खेवनहार हो।" कंतो फिर आकर चारपाई पर लेट गई मगर नींद न आई।

अगले दिन जब कन्तो काम करने के लिए गई तो उसका काम में जी नहीं लग रहा था। उसके कान बस यही सुनने में लगे थे कि नोटबंदी के विषय में कौन क्या बातें कर रहा है। लोगों के मुँह से तरह-तरह की बातें निकलकर उसके ज़ेहन में घुसकर गड्ड-मड्ड होने लगी। इसीलिए जब वह विनीता के यहाँ पहुँची तो बोली, "बहू जी, अगर किसी के पास पुराने वाले हज़ार-पाँच सौ के नोट हों तो उन्हें कैसे ‘नए’ नोट में बदला जा सकता है।" कन्तो की बात सुनकर विनीता को शंका हुई, पूछा, "क्या बात है चाची? तुम्हारे पास है क्या पुराने नोट?

एक बार तो कन्तो ने सोचा कि विनीता को सब सच-सच बता दे, मगर अगले ही पल उसे ख़्याल आया कि इससे बहू जी उसे झूठा समझने लगेंगी, क्योंकि अभी दो दिन पहले उसने विनीता से यह कह कर रुपए एडवांस लिए थे कि उसे राशन खरीदना है। अब वो ये कैसे कह दे कि उसके पास पूरे चालीस हज़ार नोट है। बोली, "नहीं बहू जी, मैं तो यूँ ही जानकारी हासिल कर रही थी।"

"अच्छा, अच्छा, देखो चाची मोटा-मोटा समझ लो कि बाज़ार में सौदा-सुलफ तो पुराने नोटों से ख़रीदा न जा सकेगा। हाँ, इन्हें सीधे खाते में जमा किया जा सकता है। थोड़े-बहुत नोट आदमी लाइन में लगकर बदल ले, मगर इसके लिए आई.डी. यानी पहचान-पत्र ज़रूरी है।" विनीता की बात सुनकर कन्तो ‘हुम्म’ कह कर चुप हो गई। मन में मलाल हुआ कि सिया कब से कह रही थी कि माँ, एक खाता बैंक में खुलवा लो मगर तब उसने कहा था, "बेटा हम ग़रीब लोग खाता-साता क्या करेंगे। इतने पैसे तो हम पे है नहीं कि खाता खुलवाए। जितनी देर बैंक में लाइन लगाएँगे, उतनी देर में एक घर का काम निपटा लेंगे।"

"माँ तुम हमेशा थोड़े न यूँ ही काम करोगी। बस एक दो साल बाद मेरी पढ़ाई पूरी हो जाएगी। तब मैं काम करूँगी और तुम आराम। समझी।"

"हाँ, हाँ, क्यों नहीं? वह दिन तो आए, तभी खाता भी खुलवा लूँगी।" उसने हँस कर कहा था। अब सोच रही थी, काश उसने सिया की बात मान ली होती तो इतनी परेशानी न होती। उसे लगा जैसे हाथ-पैरों में जान ही बाक़ी नहीं है।

कन्तो को यूँ गुमसुम देखकर विनीता पूछा, "क्या बात है चाची, तुम्हारी तबियत तो ठीक है?"

"कुछ नहीं, बहू जी बस थोड़ा सिर दर्द कर रहा है।"

विनीता ने उससे कहा कि "एक कप चाय बना कर पी लो, चाची, मैं सिरदर्द की गोली दे दूँगी।" कन्तो चाय बना रही थी, उसी समय डाक्टर निशीथ आ गए थे। उन्होंने विनीता को दो हज़ार का नया नोट देते हुए कहा, "विनी, ये देखो दो हज़ार का नोट।"

कन्तो जब चाय देने आई तो विनीता ने उसे नोट देते हुए कहा था, "लो चाची, तुम भी मुँह दिखाई कर लो।" कन्तो ने गुलाबी रंग के नए नोट को हाथ में लेकर उलट-पलट कर वापस कर दिया। वाचाल कन्तो को चुप देख कर बोली, "क्या हुआ चाची, नोट पसंद नहीं, आया?"

कन्तो ने कहा, "नोट तो नोट है, उसकी क़ीमत होती है। अच्छा या बुरा नहीं होता।" उसे अपने घर में डिब्बे में रखे नोट याद हो आए। उसका जी रोने-रोने को हो आया।

कन्तो जब घर लौट रही थी, तब संध्या अवसान पर थी परन्तु बैंकों और ए.टी.एम. के बाहर अभी भी लाइन लगी हुई थी। उसने सोचा, कल वह भी लाइन में लगकर अपने नोट बदलवा लेगी।

दूसरे दिन कन्तो ने डिब्बे से हज़ार के चार नोट निकाल कर एक रूमाल में बाँध कर ब्लाउज के नीचे खिसका लिए और बैंक की लाइन में जाकर लग गई। उसने सुरतिया भौजी को मन ही मन धन्यवाद दिया, जिसने ज़बरदस्ती उसका आधार कार्ड बनवा दिया था। नहीं तो, आज वह नोट न बदल पाती।

लाइन में खड़े-खड़े उसकी टाँगें दुखने लगी थीं, मगर लाइन थी कि कम ही नहीं हो रही थी। उसने सोचा उसका नम्बर आने में अभी कम से कम दो घण्टे और लगेंगे। उसका मुँह प्यास के मारे सूखने लगा, मगर वह लाइन से नहीं हटी कि पता नहीं दुबारा लाइन में लग पाएगी या नहीं। तभी बैंक के बाहर खड़े गार्ड ने कहा, "पैसा समाप्त हो गया है, कल आना।" इतना कह कर उसने खिड़की पर ‘कैश नहीं है’ का बोर्ड रख दिया। इस ख़बर से अफरा-तफरी मच गई। पुलिस बुलाई गई, तब कहीं जाकर भीड़ काबू में आ सकी।

कन्तो किसी तरह घर पहुँची। सिया दरवाज़े पर इंतज़ार करती मिली। पूछा, "माँ कहाँ चली गई थी? सुबह कुछ कहा भी नहीं था। काम पर भी नहीं गई। विनीता आंटी ने फोन किया था।" कन्तो ने कुछ जवाब नहीं दिया और कमरे में प्रवेश कर गई। अन्दर आकर देखा कि उसकी अनुपस्थित में सिया ने खाना बना लिया है। उसे अपनी बेटी पर बड़ा प्यार आया, परन्तु वह उसे जाहिर नहीं कर सकी। पता नहीं, क्यूँ, वह अक्सर अपनी बात को सही ढ़ंग से व सही समय पर कहने में चूक जाती है। यही चूक उससे तब भी हुई थी, जब बहू जी ने उससे हज़ार-पांच सौ के नोटों के विषय में पूछा था। अगर तभी बता देती तो शायद कुछ हल निकल आता। वह निढाल होकर चारपाई पर गिर पड़ी। सिया घबरा गई। उसने माँ का माथा छुआ। कन्तो को बुखार नहीं है, उसे तसल्ली हुई। वह एक थाली में रोटी सब्जी ले आई, "माँ कुछ खा लो।"

"मुझे भूख नहीं है।"

"अगर तुम न खाओगी तो मैं भी न खाऊँगी।" बेटी की ज़िद के आगे हारकर कन्तो ने दो-चार कौर पानी की सहायता से हलक से नीचे उतारे और पुनः लेट गई। रात भर वह लाल हरे रंग को गुलाबी रंग में बदलती देखती रही।

दिन यूँ ही बीत रहे थे। जैसे-जैसे नोट बदलने की मियाद ख़त्म हो रही थी, कन्तो की चिंता बढ़ रही थी। वह तीन चार बार लाइन में लग चुकी थी। मगर नोट केवल एक बार बदल पाई थी।

जिस दिन लाइन में लगती पूरा दिन बेकार हो जाता। उस दिन काम करने न जा पाती, जिसके कारण उसे मालिकों की चार बातें सुनने को मिलती। जब कोई राह न सुझाई दी तो फिर वह भगवान की शरण में पहुँची।

समीप के राधा-कृष्ण मंदिर पहुँच कर कन्तो, मूर्ति युगल के सामने हाथ जोड़ नेत्र बंद कर की खड़ी हो गई, "हे भगवान, अब मुझ अबला की इज़्ज़त तुम्हारे हाथ है। मैंने जीवन भर क्या-क्या कष्ट नहीं देखे। भगवन्! तुम तो अन्तर्यामी हो, सब जानते हो। तुम दयालु हो, तभी तो तुमने सुदामा के साथ दोस्ती निभाई थी। मैं भी ग़रीब-दुखियारी तुम्हारे सामने हाथ जोड़ती हूँ, तुमसे विनती करती हूँ। रक्षा करो, प्रभो! ... रक्षा करो ...।" वह बहुत देर तक यूँ ही प्रार्थना करती रही। उसके मन में यह विचार आया कि वह धन की पोटली मंदिर में लगे दान-पात्र में डाल दे। मगर जिस धन को जीवन भर कौड़ी-कोड़ी जोड़ा। उसे यूँ ही दान पेटी में डाल देने की हिम्मत न जुटा पाई। दिल से आवाज़ आई, "अब ये भगवान के काम भी न आवेंगे। अब से ये रुपये नहीं, ‘काग़ज़ है काग़ज़’।"

कन्तो जब मंदिर की सीढ़ियाँ उतर रही थी, तभी उसे सुरतिया का लड़का रमेश दिखाई दिया। वह एक निहायत बिगड़ा हुआ आवारा क़िस्म का लड़का था। दिन भर मटर गश्ती करना, राह चलती लड़कियों को छेड़ना, फिकरेबाज़ी करना, उल्टे-सीधे गाने गाना, यही सब उसका शगल था। उसके ऐबों के कारण कन्तो उसे बिल्कुल भी पसन्द नहीं करती थी। उसने सिया को रमेश से दूर रहने की सख़्त हिदायत दे रखी थी। वह रमेश से बचकर निकल जाना चाहती थी। किन्तु रमेश ने ख़ुद ही टोक दिया, "बुआ, चरण स्पर्श, आशीर्वाद दो।"

‘खुश रहो’ आशीर्वाद देते समय कन्तो ने देखा कि रमेश, पहले की अपेक्षा काफी सँवरा है। कपड़े भी नए पहन रखे हैं। पूछा, "क्यों रे रमेश, कहीं काम-धाम करने लगे हो क्या?"

"हाँ, बुआ, आज कल नोट बदलने का काम कर रहा हूँ।"

सुनकर कन्तो चौंक पड़ी, "अच्छा, कैसे?"

कन्तो की बात का जवाब न देकर रमेश ने कहा, "बुआ दो मिनट रुको ज़रा, भगवान को प्रसाद चढ़ा आऊँ।"

और कोई दिन होता तो कन्तो कदापि न रुकती, मगर आज की बात अन्य दिनों से अलग थी। इसलिए चुपचाप खड़ी रही।

थोड़ी ही देर में रमेश मंदिर से लौट आया। कन्तो को प्रसाद देता हुआ बोला, "अब पूछो, बुआ, क्या पूछ रही थी?"

"अरे बेटा बस यही कि तुम नोट कैसे बदलते हो? क्या तुम्हारे पास भी पुराने नोट हैं?"

"मेरे पास नोट कहाँ बुआ? मगर ये जो बड़े लोग हैं न, वे मुझे हज़ार-पाँच सौ के नोट देते हैं। मैं अपनी आई.डी. लगाकर उनके नोट लाइन में लग कर बदलवा देता हूँ और मुझे मेरा परसेंट मिल जाता है। अब ये अमीर आदमी तो लाइन में नहीं न लगेगा।"

कन्तो को चुप देखकर वह फिर बोला, "अभी भी मैंने अपनी पुरानी चप्पलें वो पास वाली बैंक के सामने लाइन में लगा रखी हैं। जब बैंक खुलेगा तो लाइन में लग जाऊँगा।" सुनकर कन्तो को लगा ये रमेश तो बड़ा होशियार है।

कुछ ही देर में कन्तो का घर आ गया तो उसने रमेश को अन्दर बुलाया और सिया से चाय बनाने को कह कर पूछा, "बेटा, ये बताओ कि अगर किसी के पास थोड़ा ज्यादा रुपिया हो तो क्या करें?"

रमेश को अन्देशा हुआ कि ‘ज़रूर कन्तो बुआ के पास रुपए हैं।’ उसने बात बढ़ाई, "अरे बुआ, क्या तुम्हारे पास भी पुराने वाले लाल हरे नोट हैं?"

कन्तो कुछ न बोली तो शक़ यक़ीन में बदल गया, कहा, "बुआ परेशान क्यों है? सीधे बैंक जाकर आपने खाते में जमा कर दो।"

"अरे बेटा, खाता कहाँ है? हम ग़रीब आदमी दुनिया के पचड़े क्या जानें?"

"हूं, तब तो फिर परेशानी की बात है। मेरा खाता है, मगर ...।"

कहकर, उसने वाक्य अधूरा छोड़ दिया तो कन्तो बोली, "मगर क्या ...?"

"कुछ नहीं, वो मैंने किसी दूसरे का पैसा अपने खाते में जमा करने का वचन दे रखा है। बीस परसेन्ट पर बात पक्की हुई है।"

"बेटा, तुम जो दूसरे से ले रहे हो, हमसे ले लो, मगर मेरा रुपया अपने खाते में जमा कर लो।"

"अरे, नहीं बुआ, हमारी बात झूठी हो जाएगी। यह वादा ख़िलाफ़ी होगी।"

सुरतिया भौजी, जो रमेश को कन्तो के घर में घुसते देख कर आ गई थी और अब तक दोनों की बातें सुन रही थी, बोली, "हो जाने दो वादाख़िलाफ़ी! गाँव का हेत-व्यौहार भी तो होता है। तुम कन्तो जीजी का पैसा ही अपने खाते में डालोगे। समझे।"

रमेश ने यूँ भी किसी से कोई वादा नहीं कर रखा था। यूँ ही रोज़ लाइन में लग कर दो चार हज़ार रुपये बदले देता था। यह तो उसने कन्तो को फँसाने के लिए ही चाल चली थी, जिससे कि ज़्यादा से ज़्यादा रुपये ऐंठ सके। वह यह भी जानता है कि बुआ उसके बारे में अच्छे ख़यालात नहीं रखती है इसलिए कन्तो से छल करने में उसे कोई बुराई नज़र नहीं आई। सो उसने अपना दाँव फेंका और सुरतिया से कहने लगा, "माँ तुम नहीं जानती हो, इस समय दूसरे का पैसा अपने खाते में डालना जान जोखिम में डालना है। फिर विश्वास भी रखना पड़ता है।"

सुरतिया कुछ कहती उससे पहले ही कन्तो बोली, "बेटा, मैं सब जानती हूँ। अब तुमसे ज़्यादा विश्वसनीय दूसरा कौन हो सकता है? तुम अपने खाते में मेरे रुपये जमा कर लो।"

"मगर ... ।"

"अब अगर मगर कुछ नहीं! बीस परसेन्ट पर बात पक्की है।"

बुआ एक बात और है, ये रुपए इतनी जल्दी न निकल पाएँगे। जब मामला थोड़ा ठण्डा पड़ जाएगा, तब ...।"

"अरे, कोई जल्दी नहीं है, तुम कोई ग़ैर थोड़ी न हो।

"ठीक है, लाओ रुपये दे दो।"

रुपए रमेश को थमा कर कन्तो ने चैन की साँस ली।

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