सज़ा (समितिञ्जय शुक्ल)

15-06-2020

सज़ा (समितिञ्जय शुक्ल)

समितिञ्जय शुक्ल  (अंक: 158, जून द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

उसे दंड दिया गया 
आँखों पे काली पट्टी बाँध गिरा दिया गया 
तहखाने में अँधेरे घोर, हाथ बाँध 
विवश किया गया उसे पकड़ने के लिए 
रस्सी ज्ञान की खींच, दरवाज़ा खोलने के लिए,
कभी पूँछ तो कभी फन 
आ जाता उसके हाथ 
कि सकपका जाता, नहा जाता पसीने में 
फुफकार सुनते ही कोने-कोने से,
अँधेरे में लपकते उसके तरफ़ 
कल्पना के सर्प, कि बैठ झट वो चुक्की-मुक्की
थरथर काँपते 
वही कहीं अँधेरे कोने में दुबक!
“हाँथ बँधे हैं तो मैंने पकड़ा कैसे?
फिर आँख बंद से ही तो अँधेरा सारा..!”
आते ही अंतर्ज्ञान क़ैदी फिर उठता भन्ना
हाथ खोलने का प्रथम करता यत्न
“हाथ खुले तो आँख खुले”
वो बोलता मंत्र, 
ढूँढ़ता है कोई दीवाल, रगड़ जिसपे काट सके फाँद
पीछे कई क़दम दौड़ता बहुत देर
कि गिरता है थक हार, 
नहीं मिली कोई दीवार!
ज़मीन पे ही रगड़ता है उल्टा पड़ा
फँसाए हाथ पे हाथ, 
आते ही नए विचार 
कि रस्सी घिस जाए किसी तरह, वो हो जाए आज़ाद 
गड्ढा बड़ा एक क़ब्र सा बन जाता है आप
थक जाता वो आख़िर वर्षों की मेहनत से,
पर हाथ बँधे ज्यों की त्यों  
आँख मूँदता है वहीं गड़े-गड़े, चाहता थोड़ा आराम,  
कि फिर सज़ा मिलती है उसको नींद हराम की 
गड्ढे से सरककर नीचे 
एक दूसरे तह तहखाने में जा गिरता धड़ाम!


रस्सी तोड़ने के चक्कर में  
क़ब्र खोद!

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