प्रकृति के संग एकांत मन

18-10-2017

प्रकृति के संग एकांत मन

डॉ. सुरेन्द्र वर्मा

समीक्ष्य पुस्तक: प्रकृति की गोद में (हाइकु-संग्रह)
लेखक: प्रदीप कुमार दाश ‘दीपक’
प्रकाशक: अयन प्रकाशन, नई दिल्ली,
संस्करण: २०१७
पृष्ठ संख्या: १२०
मूल्य: २४०/ रुपये

 प्रदीप कुमार दाश ‘दीपक’ एक युवा हाइकुकार हैं। वे अपना एकांत जब प्रकृति के साथ बिताते हैं तो उनकी रचनात्मक ऊर्जा हाइकु लिखने के लिए उन्हें मानों बाध्य करती है- “एकांत मन /लिख रहा हाइकु /प्रकृति संग”।

दीपक जी ने अपने सद्य-प्रकाशित हाइकु संग्रह में एक से बढ़कर एक प्रकृति विषयक हाइकु-रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। इनमें प्रकृति का सौंदर्य तो है ही, मानवी भावनाओं को प्रकृति के ऊपर आरोपित कर, जहाँ प्रकृति को एक ओर जीवन्तता प्रदान की गई है, वहीं दूसरी और प्रकृति के बहाने मानव मन को भी ख़ूब खंगाला गया है। यह तो हम सभी जानते हैं कि झरने और नदियाँ कहीं दूर ऊपर पहाड़ से धरती पर आते हैं लेकिन इसी बात को कवि ने अपने अंदाज़ में किस तरह प्रस्तुत किया है। ज़रा देखिए –

फैलाए डैने / पहाड़ की कोख से / फूटे झरने
गिरी कोख से / जन्मीं जल-परियाँ / लगी नाचने

पहाड़ की कल्पना हम अधिकतर एक पुरुष के रूप में ही करते आए हैं, (मेरे हिमगिर मेरे विशाल) लेकिन दीपक जी ने उसे एक स्त्री के रूप में प्रस्तुत किया है जिसकी ‘कोख’ से झरने और नदियाँ जन्म लेती हैं।

महानगरों में प्रकृति के समीप जाना बहुत कठिन होता जा रहा है। लेकिन प्रदीप जी को इस बात का गर्व है कि “पेड़ों की छाँव / प्रकृति की गोद में / है मेरा गाँव”, -जहाँ मुट्ठी में धूप लिए सूर्य सभी को सुख बाँटता है; जहाँ घास की नोक पर सिसकते हुए चंद्रमा के आँसू गिरते हैं और ओस सिहर जाती है; जहाँ सूर्य की पहली रश्मि अपनी प्यास मिटाने ओस को ही पी जाती है; जहाँ झुरुमुट में चिड़ियाँ चहकती हैं और कवि का मन पंछी अवाक् देखता रह जाता है; जहाँ जब अंकुर फूटते हैं तो मंद-मंद हवाएँ उन्हें झूला झुलाती हैं; जहाँ मतवाली गेहूँ की बालियाँ झूमती और गाती हैं –

देना चाहता / मुट्ठी में लिए धूप / सूर्य भी सुख
सिसका शशि / घास की नोक पर / ओस सिहरी
प्यास मिटाने / पहली सूर्य रश्मि / पी गई ओस
अंकुर फूटा / मंद मंद हवाएँ / झुलाती झूला
नाचती गाती / झूमी वो मतवाली / गेहूँ की बाली

चहक रहा / मन झुरुमुट में / पंछी अवाक् (२६)- (अक्षर दोष से बचने के लिए कृपया ‘अवाक्’ को ‘अवाक’ पढ़ें)

प्रकृति का चित्रण हो और हम भारत की आधी दर्जन ऋतुओं को भूल जाएँ ऐसा हो नहीं सकता। भारत इस अर्थ में बड़ा संपन्न देश है जहाँ तीन नहीं, चार नहीं, छः छः ऋतुएँ निश्चित समय पर दस्तक देती है। ग्रीष्म ऋतु पानी सोख लेती है और प्यास जगाती है। दीपक जी इसी प्यास का वर्णन करते हुए कहते हैं –

सूखे पोखर / छाती फटी धरा की / तृषित प्राण
उत्कट प्यास / प्राण हुए कंठ में / बूँदों की आस

वर्षा ऋतु भी अपना दुःख और अपना ही आनंद लेकर उपस्थित होती है।

पावस आया / गाने लगे झींगुर / गीत मल्हार
फटते मेघ / उगल रही झाग / गुस्से में नदी

और-और जगहों पर वर्षा के बाद बेशक़ शीत ऋतु ही आती होगी, लेकिन भारत में हमें जाड़ों के तीन रूप दिखाई देते हैं। शरद, शिशिर और हेमंत -

शरद रात / नभ से लाया चाँद / सुधा की सौगात
आया शरद / मोती बिखर पड़े / रोया है चाँद
शिशिर रात / खांसता रहा चाँद / तारे उदास

शरद और शिशिर के बाद हेमंत ऋतु शीत काल की विदाई की घोषणा है। और इसके बाद ऋतुओं का राजा वसंत आता है। भारत में वसंत और पतझड़ को अलग अलग नहीं माना गया है जैसा अन्य देशों में होता आया है जहाँ ‘स्प्रिग’ और ‘ऑटम’ दो अलग मौसम समझे गए हैं। भारत में तो, जैसा कि प्रदीप जी कहते हैं ये दोनों “प्रेमी जीवन / कभी पतझड़ / तो कभी वसंत” की तरह हैं। ‘प्रकृति की गोद में’ कुछ बहुत सुन्दर वसंत के चित्र हैं। आस्वादन कीजिए –

वसंत आया / हलकी सी सिहरन / आम्र बौराया
फूले पलाश / वासंती गीत गाए / अमलतास
चूमा वसंत / महकने लगी है / अब (आम्र?) मंजरी

इत्यादि।

मनुष्य का मन बड़ा चंचल है। बड़ी मनमानी करता है। आख़िर कल्पनाएँ तो हम मन में ही करते हैं! लगभग सभी हाइकुकारों ने मन की इस भटकन को देखकर इसे अपनी रचनाओं का विषय बनाया है। प्रदीप कुमार दाश भी अपवाद नहीं हैं। मन विषयक कुछ रचनाएँ दृष्टव्य हैं –

हारा न मन / उड़ा आसमान में / सारा जीवन
भटक रहा / वासना के वन में / मृग सा मन
मन का मृग / निकल पड़ा पाने / कस्तूरी गंध

चाँद और दीपक- ये दो प्रतीक ‘दीपक’ जी के मन-पसंद प्रतीक हैं। इन्हें उन्होंने खुले मन से इस्तेमाल किया है। प्रदीप जी ने अपना उप-नाम “दीपक” यों ही नहीं रख लिया है। प्रदीप जी चाँद के बहाने प्यार की अनुभूतियाँ अभिव्यक्त करने में ख़ूब आनंद लेते हैं।

चांदनी रात / रात भर जगता / दीवाना चाँद
तरु की ओर / झांकता रहा चाँद / चिड़िया चुप

ज्ञान और उजाले का प्रतीक है दीपक। ज्ञान थोड़ा ही क्यों न हो, दीपक छोटा ही क्यों न हो, अज्ञान और तमस को मिटाने में सक्षम है -

विकट रात / एक दिया बताए / उसे औकात
जल दीपक / अज्ञानता चीरते / बुझना मत

जैसी कि कहावत है, ‘दीपक तले अन्धेरा’। यह वास्तविकता भी है और प्रतीक रूप में भी उतनी ही सही बात है। हम सभी ने सच्चे और सदाचारी सेवकों के नाक के नीचे भ्रष्टाचार पलते देखा है। तभी तो प्रदीप जी कहते हैं –

दूर नहीं होती / दीए तले पलती / ये अंधियारी
लाख भगाए / दीप तले अँधेरे / छाए ही रहे

परम्परा गत रूप से जापान में हाइकु और सेनरियु में भेद किया गया है। हिन्दी काव्य ने इस अंतर को झुठला दिया है। जापान में भी अब इसे बहुत महत्व नहीं दिया जाता; परन्तु प्रदीप जी ने सेनरियु और हाइकु में भेद करते हुए अपना एक सेनरियु-संग्रह अलग से निकाला। पर ऐसा लगता है की वे इस अंतर पर टिके नहीं रह सके,और मुख्य धारा में आ गए हैं। अपने हाइकु संग्रह, ‘प्रकृति की गोद में’ आपको अनेक सेनरियु मिल जावेंगे जिनमें सामाजिक कुरीतियों, राजनैतिक विडंबनाओं और दूषित पर्यावरण को उभारने और उनपर व्यंग्य करने से परहेज़ नहीं किया गया है | ये रचनाएं स्पष्ट ही हाइकु की परम्परागत कोटि में नहीं आतीं।

जीवन और जगत के बारे में रचनाकारों ने अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए अनेक हाइकु प्रस्तुत किए है, दीपक जी ने भी प्राय: इस सम्बन्ध में एक संतुलित दृष्टि अपनाते हुए ठीक ही कहा है “अश्रु व हास / जीवन जगत में / श्वास-प्रश्वास”। किन्तु यदि ध्यान से देखें तो जीवन के सन्दर्भ में उनकी दृष्टि दुःख और नकार को अधिक बल देती हुई प्रतीत होती है –

धूप ही धूप / जीवन के पड़ाव / कहीं न छाँव
बादल छाया / जीवन के सफ़र में / छंटी न धूप
अश्रु बरसे / व्यथाओं के बादल / छाए ही रहे
दर्द मौसम / नहीं खिलते फूल / चुभते कांटे

लेकिन मानना यह भी पड़ेगा कि वे जीना चाहते हैं और उनकी महत्वाकांक्षा सदैव ऊपर उठने और आगे बढ़ने की ही रही है

संघर्ष गीत / नदी गुनगुनाती / जीना सिखाती
शायद छूलें / आओ कोशिश करें / चाँद छूने की

प्रदीप जी छत्तीसगढ के रहने वाले हैं। हिन्दी की एक बड़ी ख़ूबी यह है कि वह स्वयं को किसी भी वातावरण से संयोजित कर लेती है और परिवेश विशेष में बोले जाने वाले शब्दों और लहजे को अपना लेती है। अत: यदि आप प्रदीप जी की रचनाओं में छत्तीसगढ़ में बोली जाने वाली ‘हिन्दी’ का स्पर्श न पाते तो यह एक आश्चर्य की बात होती। दीपक जी ने कुछ स्थानीय शब्दों का तथा वहाँ की संस्कृति का बड़ी चतुराई से अपने हाइकुओं में इस्तेमाल किया है। इस संग्रह के अंतिम हाइकु में जिन शब्दों का प्रयोग हुआ है वे निश्चित ही स्थानीय ही रहे होंगे। “सीपेड़ पुराने / कोंपी संवेदनाएँ / नई कोपलें”। ‘सीपेड़’ और ‘कोंपी’ मानक हिन्दी के शब्द तो नहीं ही हैं, और इनके अर्थ का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। इसी प्रकार दीपक जी ने कई जगह “पंछियाँ” शब्द, पक्षी के बहुवचन के रूप में, इस्तेमाल किया है। हो सकता है स्थानीय लोगों में यह प्रचलित हो किन्तु मानक हिन्दी में ‘पंछियाँ’ शब्द नहीं मिलता। इसी प्रकार एक शब्द, ‘ददरिया’ (५४) भी प्रयोग में आया है जिसका अर्थ शायद दर्द झेलने वाले से हो। यह भी स्थानीय ही लगता है। दीपक जी अपने आसपास की संस्कृति से भी परिचय कराते चलते हैं। “दीवारों” के गीत, “रुजू ठुंगरू” (५१) तथा ‘राऊत गीत’ (५५) से परिचय पाकर पाठक अपना ज्ञान बढ़ाता है। कई रचनाओं में इस प्रकार के सन्दर्भ सहज ही मिल जाते हैं। घोटुल, पंडवानी, मुरिया नृत्य आदि के सन्दर्भ इसके उदाहरण हैं।

युवा साहित्यकार, प्रदीप कुमार दाश ‘दीपक’ का प्रथम हाइकु-संग्रह छत्तीसगढ़ी भाषा में केवल २१ वर्ष की उम्र में आ गया था। और तब से वे हाइकु लेखन में बराबर सक्रिय हैं। अब तक उनकी रचित और संपादित आधे दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी जगत उनमें एक बड़े साहित्यकार होने की संभावनाएँ देखता है।

- डॉ. सुरेन्द्र वर्मा (मो. ९६२१२२२७७८)
१०, एच आई जी / १, सर्कुलर रोड
इलाहाबाद -२११००१

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