पाश्चात्य एवं भारतीय संस्कृति का आख्यान उषा प्रियवंदा

25-03-2015

पाश्चात्य एवं भारतीय संस्कृति का आख्यान उषा प्रियवंदा

डॉ. राजकुमारी शर्मा

संस्कृति का अर्थ है वह कृति-कार्य पद्धति जो संस्कार संपन्न हो। संस्कृति किसी भी मनुष्य की पहचान होती है। जो उसे समाज में बोलने, विचारने, खाने-पाने, संगीत, साहित्य, कला आदि से प्राप्त होती है। समय परिवर्तनशील है। इसलिए मनुष्य की सोच में भी निरंतर परिवर्तन आता रहता है। मनुष्य ने बुद्धि के प्रयोग से अपने आस-पास की स्थिति-परिस्थिति को परख कर विकास की ओर अग्रसर हुआ।

“संस्कृति शब्द सम् उपसर्ग के साथ संस्कृत की (डु) कृ (ञ्) धातु से बनता है। इसका शाब्दिक अर्थ साफ़ या परिष्कृत करना है। संस्कृति का अर्थ हिंदू संस्कृति विशेषांक में- परम्परागत अनुस्यूत बतलाया गया है।”1

विद्वानों ने संस्कृति की अलग-अलग परिभाषाएँ दी हैं। टायलर ने “संस्कृति को जटिल समविट मानते हुए उसके अन्तर्गत ज्ञान, विश्वास, कला, आचार, कानून, प्रथा तथा अन्य क्षमताओं को सम्मिलित बतलाते हैं, जिन्हें मनुष्य समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है।”2

‘संस्कृति’ शब्द अंग्रेजी के ‘कल्चर’ का प्रयार्य है। ‘कल्चर’ शब्द ‘कल्टीवेशन’ का समानार्थ है”3

भारतीय संस्कृति से हमारा तात्पर्य है उस संस्कृति से है। जिसमें व्यक्ति अपनी परंपरा, सभ्यता, रीतिरिवाज के तहत् अपना जीवन व्यतीत करता है। संसार की सर्वोत्कृष्टि संस्कृति भारतीय संस्कृति है। विश्व में अनेक प्रकार की संस्कृतियाँ आई और लुप्त हो गई। जिसका कहीं कोई ज़िक्र भी नहीं हुआ। भारतीय संस्कृति को विद्वानों ने देव संस्कृति के समान माना है।

आधुनिक युग में भारतीय संस्कृति पर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव हर रूप-रंग में महसूस एवं देखा जा सकता है। भारतीय संस्कृति में रचे बसे-लोगों पर पश्चिमी सभ्यता का आकर्षण सरचढ़ कर बोल रहा है। सिर्फ़, बोल-चाल में नहीं पहनावे, परंपरा, रीति-रिवाजों को लेकर भी उनकी विचारधाराएँ बदल रही है।

लेखिका उषा प्रियवंदा ने अपने कथा साहित्य में पाश्चात्य और भारतीय संस्कृति का मिला-जुला रूप प्रस्तुत किया है। लेखिका ने यह भी बताने का प्रयास किया है किस तरह पाश्चात्य और भारतीय संस्कृति के अर्थों में परिवर्तन आया है।कहानी ‘दृष्टि-दोष’ में उषा प्रियवंदा ने पाश्चात्य संस्कृति के प्रति नारी के झुकाव को बताया है। नायिका चन्द्रा उच्च परिवार से है। चन्द्रा की शादी की बात साम्ब से चल रही थी। चन्द्रा के माता-पिता ने अपनी बेटी की परवरिश पाश्चात्य संस्कृति के अनुरूप की थी। चन्द्रा को अनुमान भी नहीं था कि उसकी शादी साम्ब से हो जाएगी। चन्द्रा की सभी बहनों की शादी उच्चकुल में हुई थी। साम्ब का परिवार भारतीय संस्कृति के अनुकूल ढला हुआ था। चन्द्रा ने अपना जीवन अपने अनुरूप ही जिया है। चन्द्रा और साम्ब की शादी जब से हुई हैं, तब से उसका जीवन बिल्कुल अलग ही हो गया था। चन्द्रा को पार्टियों में जाने का शौक था। वहीं साम्ब को यह सब देखकर अच्छा नहीं लगता। चन्द्रा को शादी के बाद हर चीज़ मन-मान कर करनी पड़ती। पिता ने शादी करने से पहले केवल साम्ब में आई.ए.एस. की योग्यता को देखा था। चन्द्रा साम्ब के परिवार में पूर्ण रूप से अपने आपको एडजस्ट नहीं कर पा रही थी। साम्ब से चन्द्रा ने पहले ही कह दिया था कि - “वह कोई व्रत नहीं करेगी। घर की परम्परा के अनुसार सभी बहुएँ तीज-त्योहार पर व्रत रखती आयी थीं। माँ ने दबे स्वर में यह बात साम्ब तक पहुँचायी, पर साम्ब ने चन्द्रा का ही पक्ष लिया”4 नायक साम्ब की भारतीय संस्कृति व रीति रिवाजों में उसकी रुचि व मान्यता दोनों हैं। साम्ब चंद्रा पर किसी भी प्रकार का दबाव नहीं बनना चाहता था। पत्नी चन्द्रा को वह किसी भी चीज़ के लिए मजबूर नहीं करता। चन्द्रा की जैसी इच्छा करे वह वैसा ही करे।

साम्ब और चन्द्रा के बीच पति-पत्नी जैसा कोई संबंध नहीं था। आधुनिक विचारों में रमी चन्द्रा साम्ब के प्रति प्यार, मनोभाव नहीं था। केवल पति है तो बस। चन्द्रा और साम्ब के बीच में किसी भी विषय को लेकर कोई चर्चा नहीं हुआ करती थी। चन्द्रा परिवार के किसी भी फ़ैसले में अपना मत नहीं देती थी। घर में किसी भी प्रकार का कोई भी उत्सव होता तो चन्द्रा अपने पीहर जाने की फ़रमाईश पहले ही कर देती थी। साम्ब उसके व्यवहार से अब परिचित हो गया था, घर में छोटी बहन की सगाई थी तो साम्ब ने उसके पिता को पत्र द्वारा सूचित कर दिया था। साम्ब और चन्द्रा इस विषय में पहले ही बात कर चुके थे कि “चन्द्रा के कुछ कहने से पहले ही साम्ब ने उसके पिता को लिख दिया और प्रकाश आकर चन्द्रा को मसूरी लिवा गया। बचपन से ही गरमियों में उसकी पहाड़ पर रहने की आदत थी। घर में इस बात को लेकर सब औरतों में बड़ी चख-चख होती रही। सिर्फ़ साम्ब के गम्भीर मुख को देखकर माँ चुप रही। जब अगस्त में घर लौटी तो साम्ब नहीं था। पता चला कि उसकी बदली हो गई है। घरवालों को – आश्चर्य भी हुआ, पर चन्द्रा किस मुँह से कहती कि इन तीन महीनों से दोनों के बीच में एक भी पत्र का आदान-प्रदान नहीं हुआ।”5 चन्द्रा को जो ठीक लगता। वह वही कार्य करती। चन्द्रा और साम्ब में नज़दीकियाँ नहीं थी। दोनों अपने आपको सर्वश्रेष्ठ मानते थे। इसलिए उनके संबंध टूटते जा रहे थे। साम्ब भी उसके व्यवहार से संतुष्ट नहीं था। दोनों ही अपने विचारों, संस्कृति के अनुरूप चल रहे हैं।

‘चाँद चलता रहा’ कहानी में लेखिका उषा प्रियवंदा ने पात्र रोहिनी के जीवन पर प्रकाश डाला है। रोहिनी अपनी शर्तों पर ही अपनी ज़िंदगी बसर करना चाहती थी। वह आए दिन एक नये पुरुष के साथ अपने आपको बाँटना चाहती थी। जिज्ञासा वंश नहीं; आक्रोश व कुंठा के रूप में। नायिका रोहिनी स्वतंत्र रूप से जीना चाहती थी। किसी प्रकार की रोक-टोक, चिक-पिक आदि। माँ-पिता की मृत्यु के बाद रोहिनी अपनी ताई के साथ रहती थी। ताई ने रोहिनी का ख्याल अपनी बेटी की तरह रखा। रोहिनी बड़ी हुई तो अरविन्द के साथ विवाह करने की बात चलाई। रोहिनी यह सब बातें अपने मित्र विनय से कर रही है। वह क्षण भुलाये नहीं भूलते विनय। विनय “मैं बड़ी हुई तो ताई को मेरे विवाह की चिन्ता हुई। शहर में एक ही बड़े डॉक्टर थे, घर में भी आना जाना था। उनके लड़के थे अरविन्द। बड़े मेधावी। मैं बचपन से ही उनका बड़ा आदर करती थी और चुपके-चुपके उनके बारे में सोचा करती थी, सपने देखा करती थी। जब मुझसे विवाह करना उन्होंने स्वीकार कर लिया तो मैं हर्ष और लाज-संकोच से भर उठी।”6 रोहिनी अपने आपको आज़ाद ख्यालों में रचा-बसा समझती व मनाती थी। शादी की बात सुनते ही रोहिनी शर्मा गई। आधुनिक होने पर भी स्त्री शादी जैसे के मौके पर घबरा जाती थी। रोहिनी के मन में शादी की कल्पना जो अब हक़ीक़त होने वाली थी; केवल सपना मात्र ही रह गई।

रोहिनी एक ही पल में भारतीय संस्कृति के प्रति रोष भी प्रकट करने लगी। मैंने इन रीति-रिवाजों के चक्कर में आकर अपनी ज़िंदगी ही खत्म कर ली। शायद उस दिन विनय मैंने अरविन्द की बात मान ली होती, तो शायद ऐसा नहीं होता। विनय रोहिनी की बातों से अचंभित था कि वह क्या कह रही है। विनय को अरविन्द के साथ बिताये कुछ पलों का जिक्र करती है कि “उस स्पर्श से मेरा सारा शरीर थरथरा उठा। उस क्षण में मैं जैसे दो हो गई। मेरा एक भाग शरीर से अलग, दूर खड़ा निरपेक्ष दृष्टि से मेरे दूसरे भाग को जो कि अरविन्द के स्पर्श मात्र से आकुल, अधीर हो उठा था, देखने लगा, अरविन्द की उंगलियाँ मेरे कंधों में गड़ने लगी – और उस क्षण मेरा चीखकर रोने का मन हो आया। मुझे लगा कि मेरी कुछ अमूल्य, अप्राप्य निधि छिनी जा रही है - एक झटके से अरविन्द को धक्का दे, आँधी के वेग से भागती हुई मैं बाहर निकल आयी - मुझे पता नहीं कि मैं घर कैसे पहुँची। जाकर चुपचाप अपने कमरे में लेट गई। रात-भर न जाने कहाँ से आँसू उमड़ पड़े, मैं ऐंठ-ऐंठकर रोती रही सारी रात रोती रही।”7 नायिका रोहिनी उस रात में हुई घटना से घबराई हुई थी। अचानक अरविन्द को न जाने क्या हो गया था। रोहिनी लज्जा के कारण कुछ कह नहीं पाई। बेतहाशा घर की ओर भागी। लेखिका उषा प्रियंवदा ने भारतीय संस्कृति का अनूठा रूप प्रस्तुत किया है। नारी शादी होने से पहले अपनी मान-मर्यादा को कैसे संजो के रखती है। उस पर किसी भी प्रकार का कोई दाग नहीं लगने देना चाहती। रोहिनी ने भी उस रात यही सब किया।

लेखिका उषा प्रियवंदा ने जहाँ भारतीय संस्कृति के प्रति अपनी निष्ठा को कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। वही पाश्चात्य संस्कृति के प्रति लोगों की ललक को भी दिखाया है। रोहिनी उस रात को ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी। जिस रात वह अरविन्द के साथ पार्टी में गई थी। रोहिनी के मन में यह भाव लगातार बना रहा अगर उस रात वह सही सोच-समझकर विचार करती, तो शायद आज यह दिन नहीं देखना पड़ता। कुछ समय पश्चात अरविन्द की मृत्यु हो गई। अचानक इस दुर्घटना ने रोहिनी को हिला दिया। वह बीते हुए उन पलों को याद कर अपने को धिक्कार रही थी। रोहिनी मन ही मन दुःखी होती रही और विनय से बोली “तीन दिन बाद अरविन्द की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई। कुछ मित्रों के साथ शिकार खेलने गये थे। पर मुझे लगा कि शायद दोषी मैं थी - मैं। तो विनय, रह गई मैं, अपनी पवित्रता लिये, नैतिकता लिये। मेरा मन होता कि मैं भी अपने आपको नष्ट कर दूँ - कोशिश भी की, पर बचा ली गई, मर नहीं सकी। पर अल्टिमेटली अपने को मार डाला मैंने-हर बार मैं जब किसी की शैय्या पर सोती हूँ, मेरा एक अंश मर जाता है। मुझे मालूम है कि लोग मेरे लिए क्या कहते हैं। वह सच कहते हैं। विनय ”वह हीरे के टाप्स मुझे पन्द्रह दिन शिमले रहने के बाद में ही मिले थे। इस तरह से मैं अपने से बदला लेती हूँ - क्योंकि मैंने उस रात अरविन्द को डिनाई किया था। मैंने केवल उन्हीं को चाहा था, केवल उन्हें।”8 रोहिनी अरविन्द की मृत्यु का खुद को जिम्मेवार ठहराती है। वह मानती है कि उस रात वह अपनी संस्कृति, सभ्यता, रीति-रिवाजों से थोड़ा ऊपर उठ जाती, तो शायद आज जिन्दगी कुछ ओर होती। रोहिनी अपने आप को दोषी ठहराते हुए अब हर किसी की शय्या पर सोना चाहती है। वह अपने तन को हर रोज मारती है। रोहिनी की अरविन्द से सगाई हो गई थी। जल्द की शादी भी होने वाली थी। पर उस रात की कड़वाहट आज भी वह अब अपने ऊपर निकाल रही है।

‘संबंध’ कहानी में लेखिका उषा प्रियवंदा ने नायिका श्यामला के माध्यम से पाश्चात्य संस्कृति के प्रति अपनी उत्सकुता को दिखाया है।’ श्यामला प्राध्यपिका होने के साथ-साथ आधुनिक सोच भी रखती है। श्यामला को लगता है कि समाज के बनाये गए बंधंन उसके लिए नहीं है। श्यामला एक डॉक्टर के साथ अपना जीवन व्यतीत करना चाहती है। डॉक्टर सर्जन विवाहित है। सर्जन के तीन बच्चे है। श्यामला विवाहिता नहीं है। सर्जन और श्यामला बिना शादी के एक-दूसरे के साथ रहना चाहते हैं। श्यामला के दो छोटे बहन-भाई है। उनकी शिक्षा की जिम्मेवारी उसके कंधों पर है। श्यामला ज्यादा दिन तक उस जिम्मेदारी को निभाने में अपनी असमर्थता दिखाती है। भाई को पत्र के माध्यम से मना कर देती है। वह अब उनकी जिम्मेदारियों को नहीं उठा सकती। उसकी अपनी भी ज़िंदगी है। श्यामला सर्जन से प्यार करती है। इस रिश्ते में उस कोई आपत्ति नहीं है। श्यामला और सर्जन एक अलग कॉटेज में रहते हैं। सर्जन के पास जब समय होता है। वह अपनी पत्नी के पास न जाकर श्यामला के पास आ जाता है। सर्जन श्यामला को अपने अस्पताल के आस-पास कमरा दिलवाना चाहता है। श्यामला को भीड़-भाड़के वाले वातावरण से एलर्जी है। वह एकांत में ही रहना चाहती है। इसीलिए सर्जन की बात को सुनकर भी अनसुना कर देती है। सर्जन श्यामला के प्रति कठोर स्वर में बोलता है कि “इस बात को लेकर बहुत बार बहस हो चुकी है, पर श्यामला जिद्दी है, सुनती रही। सर्जन हमेशा चाहता आया है कि उसके अस्पताल के पास ही एक छोटे-से, आधुनिक फ्लैट में श्यामला रहे, श्यामला बाहर आए-जाए, घूमे-फिरे, लोगों से मिले-जुले पर वह कुछ नहीं चाहती है। अकेली रहती है और बाहरी दुनिया से बहुत कम मिलती-जुलती है।”9 श्यामला का व्यवहार शांत है। वह केवल अपने से ही मतलब रखती है। श्यामला को अकेले रहना अच्छा लगता है। सर्जन को हमेशा श्यामला की फिक्र रहती है। सर्जन श्यामला से कहता है कि “श्यामला, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ। मैं घर-बार, बाल-बच्चे सब तुम्हारे लिए छोड़ सकता हूँ।”10 श्यामला सर्जन के प्यार को समझती है और कहती है कि “श्यामला ने हथेली से उसका मुँह बंद कर दिया। बहुत देर बाद कहा-क्या हम ऐसे ही नहीं रह सकते, प्रेमी, मित्र, बंधु। क्या वह सब छोड़ना जरूरी है? मैं तो कुछ नहीं माँगती।”11 श्यामला सर्जन को यह समझना चाहती है कि वह रिश्तों में बंध कर नहीं रह सकती। स्वतंत्र रहना चाहती है। बिना किसी दबाव के। सर्जन भी श्यामला की बातों से सहमत था। वह भी कहीं न कहीं मन में यही चाहता था, पर कहा कभी नहीं। सर्जन ने मन में निश्चय किया कि “उसके बाद सर्जन ने कभी वह सब नहीं दोहराया, पर एक बार कहना जरूरी था, श्यामला ने ग्रहण नहीं किया, श्यामला किसी से बँधना नहीं चाहती। उसकी शर्त केवल यही है कि वे दोनों एक-दूसरे पर प्रतिबन्ध नहीं लगाएँगे, कोई डिमांड नहीं करेंगे, दोनों में से कोई भी एक-दूसरे के प्रति जिम्मेदार न होगा।”12 श्यामला सर्जन के प्रति आकृष्ट ज़रूर थी। साथ रहने के लिए कभी एक-दूसरे पर दबाव नहीं बनाएँगे। जब भी भटकाव की स्थिति अधिक हुई, तो वह यहाँ से कहीं ओर चली जाएगी। लेखिका उषा प्रियवंदा ने नायिका श्यामला के माध्यम से यह बताना चाहा है कि वह नवीन व आधुनिक विचारों की युवती है। उसे किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं है। वह अपना जीवन अकेले रहकर भी बीता सकती है। वह भारतीय समाज में व्याप्त रूढ़ि, अंधविश्वास को नहीं मानती। श्यामला पाश्चात्य संस्कृति के अनुरूप अपना जीवन जीना चाहती है। किसी प्रकार का कोई भी बंधन नहीं। स्वतंत्र ख्याल के स्वरूप ज़िंदगी बसर करना उसे अच्छा लगता है।

‘प्रतिध्वनियाँ’ कहानी में उषा प्रियवंदा ने पाश्चात्य संस्कृति में ढले पात्रों के जीवन का व्याख्यान किया है। भारतीय संस्कृति में रचे-बसे लोगों में पाश्चात्य संस्कृति किस तरह अपनी जड़े मजबूत कर लेती है। उन्हें आभास ही नहीं होता है। वह किसी दिशा की ओर जा रहे वसु भारतीय है। पढ़ लिखकर वह विदेशी हो गई है। शादी होने के बाद पति-पत्नी दोनों मक्सिको में रहते हैं। वसु कुछ दिन के लिए अपने पीहर आती है। घर में सुधा और वसु एक-दूसरे के काफी करीब थी। वसु के डाइवोर्स की बात जैसे ही सुधा जीजी को मिली, तो वह दंग रह गई। सुधा जीजी को यकीन ही नहीं हो पा रहा था कि वह किससे क्या पूछे। सुधा जीजी ने वसु से पूछा कि ”मैंने कभी तुमसे या श्यामल से न पूछा, न तुमने बताया। बताओ, श्यामल तुम्हें साथ न लाकर अकेले क्यों लौटे थे? क्या तुम इस बार उन्हें डाइवोर्स करने लौटी हो।”13 नायिका वसु यह सब बातें सुनकर आश्चर्य चकित हो गई। सुधा जीजी को यह सब बातें कहाँ से पता चली। सुधा जीजी ने एक मिनट की भी नहीं देरी लगाई और झट से उत्तर दिया कि “सभी का यही ख्याल है, नहीं तो घर-बार होते हुए तुम यहाँ क्यों आती।”14 वसु अपनी जीजी को समझाती हुई कहती है। जीजी उस विवाह का क्या अर्थ जिसमें प्यार, भाव, संवेदना आदि न हो। वसु कहती है कि “जीजी, डाइवोर्स तो हमारा उनके लौटने के पहले ही हो गया था। और हुआ था उन्हीं की तरफ से। एक तरह से अच्छा भी हुआ। एक ‘मीनिंगलेस-सी रस्म’ ने हमें बांध दिया था। अब हम दोनों ही मुक्त हैं।”15 सुधा जीजी ने हैरानी से वसु की ओर दृष्टि घुमाई। वसु को जरा भी पछतावा नहीं था। कैसा अफसोस जीजी रिश्ते में कुछ था ही नहीं बचने लायक अच्छा है टूट गया। सिर से बोझ कुछ कम हुआ। भारतीय संस्कृति में रिश्तों का टूट जाना अच्छा नहीं माना जाता है। संस्कृति हमें जोड़ना सिखाती है। लेकिन आजकल रिश्तों में त्याग, प्रेम नहीं रहा उससे बेहतर उसका टूट जाना ही है। नयी युवा पीढ़ी ऐसा ही मानती है। वसु अपने बीते हुए दिनों की स्मृतियों में गुम है। जब से रिश्ता खत्म हुआ, तब से वह कितनी सुखद ज़िंदगी जी रही है। ना ही किसी भी प्रकार की पाबंदी है। बीते दिनों को याद कर वसु कुछ परेशान भी है। वह अपनी बेटी रुचि से कैसे कहे कि उसने इन दिनों कितने मादक दिनों की अनुभूति को महसूस किया है कि “विवाह के उन छः वर्षों की सारी गाथा रुचिरा से कैसे कहे? कैसे कहे कि उसे पहली बार लगा था कि वह एक आकर्षक युवती है, उमंगें और कामनाएँ मरी नहीं है। अपने में निहित, स्वतंत्र, पूर्ण व्यक्तित्व को पाना कितनी बड़ी उपलब्धि थी। ओर श्यामल के अंकुशों से निकल कितना हल्का-हल्का, लगता रहता था। और कितने मादक थे वे अस्थायी संबंध - नलिन पटकनायक, विसं.............। बेटी पास लेटी हुई है और वह अपने जीवन में आए पुरुषों के नाम गिन रही है।”16 वसु शादी के टूटने से परेशान नहीं है। बल्कि वह अपने नवीन सुखद जीवन को स्वतंत्र रूप से जी रही है, जो बंधन मुक्त है। लेखिका उषा प्रियवंदा ने नारी के भारतीय संस्कृति व पाश्चात्य संस्कृति दोनों के स्तर को कहानी के माध्यम से दिखाया है। आधुनिक नारी की सोच किसी भी बंधन के तहत नहीं जीना चाहती पर कहानी में पुरुष भी स्त्री के व्यवहार से खुश ना होकर अकेले ही अपना जीवन व्यतीत करना चाहता है। वह अपने निर्णय से सहमत है। श्यामल पत्नी वसु के निर्णय को सही बताते हुए उसे प्रोत्साहित करता है। वसु जो तुमने सोचा बिल्कुल ठीक सोचा। श्यामल वसु से कहता है कि “देखों वसु, मैं चाहता हूँ कि तुम पिछली बातों को मन से बिल्कुल निकाल दो और जो रास्ता तुमने चुना है, उसी पर बहुत विश्वास से चलती रहो। जिसमें तुम्हें सुख मिले, वही करो। मैं नहीं चाहता कि मुझे या रुचि को लेकर तुम गिल्ट के बोझ को ढोती रहो।”17 यहाँ पति-पत्नी दोनों एक-दूसरे से छुटकारा पाना चाहते हैं। अपनी-अपनी जिन्दगी जीना चाहते हैं, साथ रहकर नहीं अलग-अलग। आधुनिक रूप से अपना जीवन, अपने तरीके से जीने वाले स्त्री-पुरुष की संवेदना को व्यक्त किया है।

‘ट्रिप’ कहानी में उषा प्रियंवदा ने पाश्चात्य संस्कृति के अनुरूप अपना जीवन जीने वाली सोनी की विचारधारा को प्रस्तुत किया है। शादीशुदा होते हुए भी वह जीवन को खुश होकर नहीं, बोझ के रूप में जा रही है। पहले नारी अपने जीवन में केवल अपने वैवाहिक जीवन की ही कामना करती थी। शादी होने पर वह सपनों को हकीकत रूप से परिवर्तित होते हुए देखती थी। उसी में वह खुश भी रहती थी। शिक्षित होने पर विचारों में बदलाव आ गया। संस्कारों, सभ्यता का जो महत्त्व पहले था। अब उन सब में बहुत परिवर्तन आ गया है। कहानी ‘ट्रिप’ में पात्र सोनी अपनी शादीशुदा ज़िंदगी से नाखुश है। पति और बच्चों के साथ रहकर भी वह अपने आपको अकेला महसूस करती है। सोनी का पति उसकी इच्छाओं को अनदेखा कर उसकी भावनाओं को ठेस पहुँचाता है। जिसके कारण वह भीतर ही भीतर टूट जानी। सोनी का झुकाव हर नये पुरुष की ओर आकर्षित होता है। सोनी का पति इन सब बातों से अछूता नहीं है। सोनी की सारी हरकतें वह जानता है कि वह गलत कर रही है। फिर भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। स्टीफन सोनी के पति का दोस्त है। सोनी का पति सोनी को आधुनिक रूप में देखना चाहता था। विचारों से नहीं, कपड़ों, तौर-तरीके आदि से। पति चाव-चाव में उसे सिगरेट पीने के लिए उकसाता है। आधुनिक वातावरण के अनुसार अपना जीवन बिताने के लिए उसे दिन-रात फोर्स करता है। उसे शराब, सिगरेट, स्कर्ट, जींस, आदि पहनने से लिए प्रोत्साहित करता है। सोनी अपने पति से कहती है कि “वह पाइप को पीने का भी एक खास नैक होता है। वह इसे मुश्किल से सीख पाई थी। उसने सिगरेट तक कभी नहीं पिया था, इसलिए ढेर सा धुँआ निगल लेती, असर नहीं होता था। पर अब तो बड़ी आसानी से कश लेकर फेफड़ों तक फेंक देती है।”18 सोनी इन नयी आदतों को लेकर खुश है। वह अपना बदला रूप देख कर खुद आश्चर्यचकित है। सोनी को अच्छा लग रहा है। यह सब करना। सोनी स्टीफन को सामने देखकर किसी ओर की तरफ बिलकुल नहीं देखती। स्टीफन, सोनी दोनों आमने-सामने बैठे हैं। दूसरी तरफ सोनी का पति बैठा हुआ है। सोनी का बार-बार स्टीफन की ओर झुकना पति को अच्छा नहीं लग रहा है। वह भी कुछ भी नहीं कर सकता। यह सब करने की आज़ादी तो उसने ही दी है। उसे इतना आजाद रखने का ही फल है। सोनी अपने को स्वतंत्र मानती है। वह पति की भी परवाह नहीं करती। उसके सामने ही वह बार-बार स्टीफन पर गिरती रहती है। पति यह सब देख “पति ने उसकी ओर देखा। स्टीफन शायद कुछ और कहता, पर चुप हो आया। वह अब भी, उसकी ओर झुका बैठा रहा। लड़कियों जैसे लम्बे बालों ने आगे ढलक कर उसके माथे को ढक रखा है।”19 सोनी का इस तरह अपनी मान-मर्यादा का तिरस्कार कर स्टीफन के प्रति प्रेम दिखाना उसके पति के मन में रोष पैदा कर रहा है। वह कुछ कर नहीं सकता, केवल अपनी ज़िंदगी को झेल रहा है। क्योंकि यह सब उसने ही अपनी पत्नी सोनी को सिखाया था। मर्यादा व रीति-रिवाजों के प्रति कोई ऊँगली उठाता है, तो समाज उसका जीना मुश्किल कर देता हैं। सोनी के पति के प्रति भी समाज के कुछ लोगों ने अपनी कुंठा को प्रकट किया है। सोनी का पति उसे किसी भी तरह की रोक-टोक नहीं करता है। वह जो भी करना चाहती है, कर सकती थी। स्टीफन भी सोनी के पति के विषय में अपनी राय बताता है कि “स्टीफन उसके पति से प्रभावित है। अधिकांश लोग उसके पति से प्रभावित हो जाते हैं। वे गम्भीर रहते हैं, तीखी इन्टेलेक्ट है। पर वे भी उस जैसी ‘रेस्टलेस’ पत्नी को नहीं समझ सकें। अब भी इतना कुछ हो चुकने के बाद भी उसे पत्नी के रूप में रखे हुए है। केवल दो बातें-एक, वह अपने अफयेर चुपचाप कन्डक्ट करेगी; दूसरे इस आयु में वह नए बच्चे की जिम्मेदारी नहीं लेंगे। इसका वह ध्यान रखेगी। बस ओर कुछ नहीं मांगते।”20 सोनी के पति को जब इन बातों की सूचना प्राप्त हुई तब वह “सब कुछ जान लेने पर चीखे-चिल्लाये नहीं, मारा-पीटा नहीं, न बच्चों को छीन लेने की धमकी ही दी। कुछ दिन एकदम चुप रहे। वह भी चुप रही। मन में बेहद डर रही थी। पर कुछ दिन उन्होंने बड़े नपे-तुले वाक्यों में कह दिया, वह अब भी उनकी पत्नी है। उससे गहरा लगाव भी है। उसके बच्चों की माँ भी है। बस, वह दो बातों का ख्याल रखे।”21 सोनी का पति सोनी को बेहद चाहता है। उसे इन सब बातों के लिए समझाया भी। सोनी कुछ देर तक वह बातें उसके मन में रहती है। कुछ समय उपरान्त वह मिट जाती है। पति के शांत होते ही सोनी अपने आपको उसी रंग में रंग लेती है। जैसे कुछ हुआ ही नहीं। लेखिका उषा प्रियवंदा ने नारी के परिवर्तित रूप की नूतन छवि को अंकित किया है। किस तरह से वह अपनी संस्कृति के सभी मूल्यों को छोड़कर पूरी तरह विदेशी संस्कृति के विचारों में ढल गई है। शर्म, हया, लज्जा जो कभी उसका गहना हुआ करता था। सबको पीछे छोड़ आई है।

‘स्वीकृति’ कहानी में उषा प्रियवंदा ने नायिका जया की समस्याओं को चित्रित किया है। भारतीय संस्कृति में ढली जया शादी होने के कुछ दिनों बाद ही उसे विदेश में नौकरी के लिए जाना पड़ता है। जया विदेश जाने के हित में नहीं है। पति सत्य के दबाव देने पर जया जाने को तैयार हो जाती है। सत्य अपने देश में रहकर ही काम करता है। जया को विदेश जाना पड़ता है। विदेश जाने की कोई उत्सुकता जया में दिखाई नहीं पड़ती। वह सत्य के साथ भारत में रहकर ही जीवन यापन करना चाहती है। सत्य जया को समझाते हुए कहता है कि “हम जिस स्थिति में है, उसमें पन्द्रह सौ डालर का ऑफर अस्वीकार नहीं कर सकते।”22 जया सत्य की बातों को सुन शांत हो जाती है। सत्य से स्पष्ट में कुछ कहना चाहती थी, पर कह नहीं सकती। जया वाशिंगटन जाकर खुश नहीं थी। वाशिंगटन में जया की मुलाकात वाल से हुई। जहाँ वह पढ़ाती थी, वही वाल भी परामर्शदाता है। वाल जया के काफी करीब आ गया था। जया की इच्छाओं का ध्यान रखना, समस्याओं पर चर्चा करना उसे अच्छा लगता था। यह सब बातें जो वह सत्य के साथ शेयर करना चाहती थी। सत्य ने जया की ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया। केवल उसे उपदेश ही दिये, भावनाओं को समझा ही नहीं। जया को लगने लगा था कि शादी एक समझौता ही है। जया अपने मन को झकझोर कर पूछना चाहती है कि “सत्य ने जया के रूप-रंग, उसकी भावनाओं या इच्छाओं पर कभी ध्यान नहीं दिया। जया सदा उसके लिए एक निमित रही है। अपनी आकांक्षाओं की मूक, श्रोता, अपनी उन्नति की सहायक। साथ रहने पर भी शायद सत्य ने यह नहीं जाना कि प्रायः रात को जाग कर वह छत के अँधेरेपन को ताकती रहती है, जबकि वह स्वयं गाढ़ी नींद में सोया रहता।”23 जया की मनस्थिति को देखकर भी सत्य नींद से नहीं जगा। वह जागे हुए भी सोया हुआ है। जया का ध्यान अब वाल की ओर जाने लगा। वह जया वाल के विचारों में ही मग्न रहती और कहती कि “क्या उसी तरह, जैसे जया ने वाल की आवश्यकता अनुभव की थी, एक संगी मित्र और पुरुष की आवश्यकता? एक ऐसा व्यक्तित्व, जिसके आगे अपनी भावनाओं, विचारों ओर अपने आचारण पर पड़े सभी आवरणों को एक झटके से उतार कर फेंका जा सके।”24 जया की सोच में वाल अभी तक है। जबकि चल रही है वह सत्य के साथ। जया को रह-रहकर वाल की याद सता रही है। वाल को भूलना चाहती है। पर ऐसा नहीं कर पा रही है। जया जब से विदेश में गई थी, तब से वही की सोच, परम्परा, संस्कृति में अपने आप को पा रही है। उससे अब छूट पाना मुश्किल सा लग रहा है। सत्य ने पैसों के लिए जया की सारी इच्छाएँ मार दी। जया खुश है या नहीं। सत्य को इन सब से कोई फर्क नहीं पड़ता।

कहानी ‘मछलियाँ’ में उषा प्रियवंदा ने पाश्चात्य संस्कृति और भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पण भाव को प्रकट किया है। संस्कृति व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के साथ जोड़ती है। समस्या, परिस्थिति उसे उसमें कैसे जीवन निर्वाह करने के लिए प्रेरित करती है यह दिखाया है। ‘मछलियाँ’ कहानी में नायिका विजयलक्ष्मी की शादी मनीष से होती है। विजयलक्ष्मी भारतीय परम्पराओं, रीति रिवाजों के अनुकूल रहती है। शादी होने के बाद मनीष उसे वही छोड़कर अमेरिका चला जाता है। समय बीतने पर भी वह उसे वहाँ रहने के लिए नहीं बुलाता स्वयं भी नहीं जाता। विजयलक्ष्मी हिम्मत करके अमेरिका जाने का निर्णय लेती है। परिवार की एक नहीं सुनती। लड़-झगड़ के पंजाब से अमेरिका पहुँच जाती है। विजी बिना किसी सहारे के अपनी यात्रा करती है। अमेरिका पहुँचने के बाद विजी को देख मनीष हैरान हो जाता है। मनीष जिस फ्लैट में रहता है। वह ज्यादा बड़ा नहीं है। उसमें नटराजन और मनीष का दोस्त भी वही रहता है। मनीष अब अपनी पत्नी विजी को भी वही रहने को कहता है। मनीष विजी को अंधविश्वासी, कम पढ़ी लिखी, दायिकानूसी ख्यालों की स्त्री समझता है। जिसे वह किसी के सामने भी नहीं ले जाता। मनीष को शर्म आती है। विजी के पहनावे, बोलचाल को देख मनीष को ओकवड लगता है। दूसरी तरफ विजी जब से पंजाब से आई है। उसका सारा ध्यान मनीष पर ही लगा है। मनीष की इच्छा ही उसके लिए सर्वोपरि है। मनीष को क्या अच्छा लगता। वही सब पूरा करने में वह दिन-रात प्रयास करती है। विजी कहती है कि “मनीष को दक्षिणी भोजन अच्छा लगता है, यह जानकर विजी ने सोत्साह नटराजन की शिष्या बनना स्वीकार कर लिया था। विजी ने कैसे पूर्ण कर दिया था।”25 विजी पति को परमेश्वर की तरह मानती है। उनकी हर इच्छा पूरी करना विजी का धर्म है। वह उसी धर्म का पालन कर रही है। मनीष विजी की ओर ध्यान नहीं देता था। विजी चाहती थी कि मनीष उसकी तथा उसके काम की प्रशंसा करे, उसे समझे। मनीष इन बातों से कोसों दूर था। विजी नटराजन से कहती है। मैंने मनीष के लिए अपने परिवार की एक बात नहीं मानी। उनके लिए सात-समुद्र पार भी चली आई। परिवार वालों ने मुझसे हर रिश्ते नाते तोड़ लिए है। मैं उनके लिए मर गई हूँ। पिता और भाई के ना चाहने पर भी मैं यहाँ आ गई। विजी नटराजन से दुःखी अवस्था में अपनी व्यथा कहती है कि “इतना लड़-भिड़कर, इतने गर्व के साथ चली आई थी। यह किस मुख से लिखती कि शादी टूट गई है। मनीष का जी मुझसे भर गया है।”26 मनीष का मन कभी मेरी तरफ था ही नहीं। वह नवीन विचारों की युवती से शादी करना चाहते थे। विजी अपने आपको कोसती हुई कहती है। ना जाने मैं फूहड़ कहाँ से उनके पले पे गई। मनीष को मुकी जैसी आधुनिक लड़की ही पसन्द आती है। मेरी जैसी कम पढ़ी-लिखी नहीं। विजी नटराजन को अपने हर दुःख-सुख की बातें बताया करती थी। नटराजन भी उसकी बात बड़े ही मन से सुना करता था। नटराजन को विजी के साथ समय व्यतीत करना अच्छा लगता था। विजी को मुकी कुछ ना पसन्द थी। मुकी की हरकतें ही ऐसी थी। मुकी आधुनिक विचारों से युक्त थी। मुकी के साथ रहना मनीष को भी ज्यादा भाता था। मनीष विजी के सामने मुकी की तारीफ ही करता रहता था। विजी को मन ही मन क्रोध आता पर वह कुछ कह नहीं पाती। विजी मुकी के संबंध में नटराजन के सम्मुख कहती है - “उसकी आँखें लम्बी-लम्बी है, वह सोफेस्टिकेटेड है, कार चलाती है, अंग्रेजी में कविता लिखती है, पीली मछलियाँ पालती है। वह सभी को अच्छी लगती है, तुम्हें, मनीष को, सबको ........।”27 विजी की मुकी के प्रति कड़वाहट केवल उसके पढ़े-लिखे होने के कारण नहीं है बल्कि मनीष के साथ उसकी बढ़ती नजदीकियों से है। नटराजन उसमें दूसरों के पति को अपनी तरफ आकृष्ट करनेकी कला भी है। मुकी के कारण उसकी शादीशुदा ज़िंदगी में बहुत सी अड़चने आ गई हैं। चाहकर भी वह मुकी को मनीष की ज़िंदगी से निकालने में नाकायाम होती है। विजी की ईर्ष्या दिनों दिन बढ़ती चली जा रही है। विजी मुकी को देखते ही उसके शरीर में आग सुलगने लगती है। और बोल उठती है कि “मनीष को मुकी से प्यार हैं, यह जान विजी बाद में विक्षिप्त-सी हो गई थी, उसने रोते हुए मुकी की बनाई पेंटिगज दीवारों से उतारकर फाड़ डाली थीं, उसके गढ़े हुए बर्तन ज़मीन पर पटक दिए थे, और जब मनीष की बर्तन ज़मीन पर पटक दिए थे, और जब मनीष की वर्जना का उस पर कोई असर नहीं हुआ तो उसने विजी को तड़ातड़ दो चांटे मार दिए थे।”28 इस घटना ने विजी को भीतर तक तोड़ दिया था। मनीष और विजी के दाम्पत्य संबंध में रिक्तता आ गई थी। मनीष ने अमेरिका से कनाड़ा जाने का निर्णय तुरन्त ले लिया था। विजी सोच-विचार में थी। जब से मनीष का रिश्ता मुझसे था। तब भी मैं दुःखी थी। अब रिश्ता समाप्त हो गया है तब भी कितना कष्ट दे रहा है। विजी कहती है कि “कितना चाहती हूँ कि दृढ़ बनूँ, पर फिर न जाने क्यों बहुत दुर्बल हो आती हूँ, और आसूँ नहीं रुकते।”29 विजी नटराजन को बताती है जब से मुझे मनीष छोड़कर कनाडा गया है। तब से चाहती हूँ, मैं भी उसे भूल जाऊँ,पर ऐसा हो नहीं पाता। मन के किसी कोने में अब भी उसके प्रति संवदेना का भाव है। विजी भावनाओं के इस तुफान में अपने आपको इस तरह घिरा पाती है। जिसमें से निकलना मुशिकल ही नहीं नामुनकिन है। विजी संभलना चाहती है। मनीष की भूली-बिसरी बातें उसे तिल-तिल सता रही हैं - “हाँ नटराजन मनीष का करता था कि प्यार चुक पाता है, भावनाएँ मर जाती है, अक्सर सोचती हूँ कि मुझमें ऐसा क्यों नहीं होता। मैं क्यों निर्मम, कठोर नहीं हो पाती। मुकी मुझ पर हँसती थी- मेरे भारतीय संस्कारों पर, मुझे इस पर लज्जा नहीं है कि मैं उसकी तरह आधुनिक नहीं हूँ।”30 विजी नटराजन से यह बात कह जोर-जोर से रोने लगी। एकाएक खामोश हो अपने में सिमटने लगी विजी। विजी नटराजन को अपने दुःखों से वंचित रखना चाहती थी -ऐसा हो नहीं पाया। भावनाओं के वशीभूत हो नटराजन से कहती है कि विजी “न जाने क्यों तुम्हें सम्मुख पाकर मैं बिखरने लगी हूँ - जो मन की तहों में छिपा – छिपा कर रखना चाहती हूँ।”31 नटराजन विजी के प्रति सहानुभूति का भाव प्रकट करता है। नटराजन कुछ कर नहीं सकता। केवल साँत्वना ही दे सकता है। लेखिका उषा प्रियवंदा ने कहानी के माध्यम से विचारों के द्ंवद्व को दिखाया है।

‘मछलियाँ’ कहानी में दो नारी पात्रों के वार्तालाप से ज्ञात होता है कि वह अपनी-अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा, समपर्ण भाव को व्यक्त किया है। निष्कर्षः कहा जा सकता है कि लेखिका उषा प्रियवंदा ने अपनी कहानियों के माध्यम से पाश्चात्य एवं भारतीय संस्कृति के महत्त्व दिखाया गया है। कहानियों में मध्यवर्गीय परिवार में स्थित - नारी का पाश्चात्य संस्कृति के प्रति रूझान को अने संदर्भों के तहत् चित्रित किया गया है।

संदर्भ

1. हिन्दी - साहित्य कोश, पृष्ठ 801
2. E.B. Tylor, Premitive Culture ed. 1889, page16
3. कल्याण (हिन्दू संस्कृति विशेषांक), पृष्ठ 41
4. दृष्टि-दोष - उषा प्रियवंदा, पृष्ठ 90
5. दृष्टि दोष - उषा प्रियवंदा, पृष्ठ 90
6. चाँद चलता रहा - उष प्रियवंदा, पृष्ठ 84
7. चाँद चलता रहा - उषा प्रियवंदा, पृष्ठ 86
8. चाँद चलता रहा - उषा प्रियवंदा, पृष्ठ 86
9. संबंध - उषा प्रियवंदा, पृष्ठ 11
10. संबंध - उषा प्रियवंदा, पृष्ठ 11
11. वही, पृष्ठ 15
12. वही, पृष्ठ 15
13. प्रतिध्वनियाँ - उषा प्रियवंदा, पृष्ठ 29
14. वही, पृष्ठ 29
15. वही, पृष्ठ 29
16. प्रतिध्वनियाँ - उषा प्रियवंदा, पृष्ठ 36
17. प्रतिध्वनियाँ - उषा प्रियवंदा, पृष्ठ 42
18. ट्रिप - उषा प्रियवंदा, पृष्ठ 56
19. ट्रिप - उषा प्रियवंदा, पृष्ठ 58
20. ट्रिप - उर्षा प्रियवंदा, पृष्ठ 61
21. वही, पृष्ठ 61
22. स्वीकृति - उषा प्रियवंदा, पृष्ठ 83
23. स्वीकृति - उषा प्रियवंदा, पृष्ठ 83
24. स्वीकृति - उषा प्रियवंदा, पृष्ठ 87
25. मछलियाँ - उषा प्रियवंदा, पृष्ठ 101
26. वही, पृष्ठ 102
27. मछलियाँ - उषा प्रियवंदा, पृष्ठ 103
28. मछलियाँ - उषा प्रियवंदा, पृष्ठ 110
29. वही, पृष्ठ 105
30. मछलियाँ ’ उषा प्रियवंदा, पृष्ठ 105
31. वही, पृष्ठ 105

डॉ. राजकुमारी शर्मा
पता: आर.जैड़ 505 ए/92
राजनगर पालम कॉलोनी,
नई दिल्ली – 110045
ई-मेल: sharmanitu465@gmail.com

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