मंदिर के बंद द्वार

15-02-2021

मंदिर के बंद द्वार

डॉ. आशा मिश्रा ‘मुक्ता’  (अंक: 175, फरवरी द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

मंदिर के द्वार पर 
आई वह 
झुर्रियों से भरे चेहरे थे 
बैठ गई  इंतज़ार में 
दयालुओं कृपालुओं के 
जो करें रहम और 
दे दे चंद सिक्के 
या दानों के कुछ कण 
पेट में डालने को 
 
देखा मैंने दूर से 
हाथों से नापती भूख की गहराई 
और ताकती मंदिर के बंद द्वार । 
खोली पोटली उसने 
निकाले चंद टुकड़े 
प्रयासरत वह कि जोड़कर 
दे पाए आकर इडली का 
 
सोच रही थी वह शायद 
कि खुले हैं सबकुछ अब 
दवा के साथ दारू भी 
काम कहाँ रुका है किसी का 
पर जाने क्यों अब तक 
नहीं खुले ये द्वार प्रभु के 
 
देखा मैंने उसे 
और उसने मुझे 
सड़क के उस छोर से 
खींच लाया पास 
चंद पैसों का लालच 
होंठ बंद थे 
पर आँखें कर गई बयाँ 
कथा बेबसी की 
 
पकड़ा दिया मैंने भी 
एक बड़ा सा टुकड़ा काग़ज़ का
और कर दिया एहसान 
उसकी बदहाली पर 
 
भाव विभोर सी वह 
देखती रही पल भर 
पलकें छलकीं कृतज्ञता में 
कहने लगी कहानियाँ पुत्र और उस पुत्री की भी 
जिन्होंने दी थी वज़ह 
बेरोज़गारी की 
निकलते वक़्त घर से 
भारी पड़ती थी 
दो जून की रोटी भी अब उसकी 
 
गवारा नहीं उसे भी 
बनना बोझ किसी पर 
ईश्वर रक्षक हैं सबके 
करेंगे रक्षा उसकी भी 
त्याग कर सब कुछ 
बनाया आसरा इस द्वार को 
जो बंद है आज फिर से 
 
लौटाते हुए पैसे कहने लगी थी वह 
इतना नहीं बेटा
छुट्टे काफ़ी होंगे भूख पाटने को 
देखी थी मैंने 
आत्मसम्मान की चमक 
उन झुर्रियों में 
मुस्कुराए थे फटे होंठ उसके 
आँखों में गुज़ारिश थी 
कल फिर आने की 
छुट्टे पैसे के साथ। 
 
निहारती रही मैं उसे 
जो पलटी थी अभी अभी 
नहीं पढ़ पाई 
उसके फटे होंठ 
और नीरस आँखें 
तलाशती मुट्ठी भर दाने 
मंदिर के द्वार पर 
 
सोच में हूँ मैं अब भी 
क्या वह वही थी जो बंद थी
उन पटों के पीछे 
जिसे पूजने आई थी मैं स्वयं भी?

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