क्षुधा
ऋत्विक ’रुद्र’उषापति के पीत पटल पर, आहट दे रजनी भागी
तंद्रा - निद्रा - शैल लाँघ, ले अँगड़ाई, धरणी जागी
फैल गयीं सर्वत्र, उषा की लहरें झिलमिल डोल रहीं
मानो बादल के अवगुंठन के पीछे से बोल रहीं
सरिता सरस वदन करती है, बहती जाती उच्छृंखल
कर्ण-कटु, पर गूँजी कैसी सृष्टि में यह ध्वनि विकल
ब्रह्मा के वंशज भागे उस ओर, जिधर चीत्कार हुआ
किस कारणवश परिवार यह, मरने को तैयार हुआ
धीरे से तब कुटिया बोली, कारण मैं बतलाती हूँ
जो सुनकर के निठुर शिला-सी आँखें भी भर आती हों
अपने कुल की भाग्यहीन मैं, बसे मुझी में चारों जन
फटे वसन थे तन पर, मन में रहते पीड़ा-व्योम सघन
उद्विग्न पड़ी रहती माँ, बालक भू पर रहते पटे हुए
छाती के तिनके दिखते थे, गाल सिकुड़ कर सटे हुए
विपन्नता मुस्काती रहती, भीषण शोर किया करती
उनके दु:ख की मैं दर्शक थी,जड़ थी, मूक रहा करती
मेरे कानों में कल हल्की ध्वनि हुई, अग्रज बोला
मर्म वेदना सुनकर उसकी, स्वयं कुटिल काल डोला
तीन दिवस बीते माँ, हमने कैसा यह उपवास रखा है
रोटी के टुकड़ों से ज़्यादा सामाजिक उपहास चखा है
अनुज पड़ा बेसुध कोने में, मैय्या भोजन ला दो न
रूखा, सूखा, बासी, मैला, जो हो, हमें खिला दो न
भगिनी क्षीण पड़ी है, माई! उदर ऐंठता जाता है
किन कर्मों का ऐसा फल, कैसा निर्दयी विधाता है
दयानिधि में ऊर्जा का संचार हुआ, ममता जागी
क्षुधा मिटाने संतानों की , अर्धनग्न बाहर भागी
तीन घरों से डाँट मिली, दो ने आघात परोस दिये
जो भी, कुछ भी देता था, वह देता उर में रोष लिये
अपमानों का भँवर लाँघ, माँ दो टुकड़े रोटी लाई
सूख पड़े थे, काले थे, अधरों पर मंद हँसी छाई
बच्चे उस आधे टुकड़े को, अपनी निधि बताते थे
पुलकित होंठ, खगों की भाँति कलरव करते जाते थे
तिरस्कार, व्यालों के जैसे अंतर्तम को डसता था
फलस्वरूप माता के मन में, ऐसा निश्चय बसता था
निशा यही अंतिम होगी, अब कोई कष्ट नहीं होगा
कृत्य भले हो भ्रष्ट, परंतु सबके लिये सही होगा
निर्बाध स्वरों में लोरी गा, माँ अंतिम स्नेह जताती थी
पंखुड़ियाँ छिप कर कोरक की गोदी में सुख पाती थीं
धीरे - धीरे कंटक उग आये, कोरक की छाती में
कई दाग़ लगने वाले थे, वात्सल्य की थाती में
अंबा वध करती थी, पंखुड़ियों की चीख निकलती थी
सभी शवों की आँखों में ममता की छवि पिघलती थी
नग्न पड़े धनदेव सभी थे, रतिकर्म में लीन रहे
क्रंदन सुन, मतवाले फिर भी केवल मदिराधीन रहे
अशनायुध से आहत हो, था टूटा ममता का आवास
साड़ी के फंदे से झूली दुखिया, ले अंतिम निश्वास
मेरे अश्रु निशीथ काल में, कोई देख नहीं पाया
बोल हुई चुप, चारों ओर सभी को स्तब्ध खड़ा पाया
हल्का काला पड़ा दिवाकर, बादल के अश्रु ढुलके
भूमि व्याकुल हो निहारती, चारों मृतक एक कुल के
त्याग गति का कर के वायु, श्रद्धांजलि चढ़ाता है
क्षोभ - रुदन करती सरिता का बाँध टूटता जाता है
पुष्प-त्यजे एक मधुकर आया, स्वर्गलोक में जाता है
भूमंडल के उस कोने का सारा हाल बताता है
कहता, दाता अब से ऐसे दृश्य हमें दिखलाना मत
हम सब तेरे बालक, हम पर क्षुधा-नीर बरसाना मत
अभिलाषा बस इतनी स्वामी, सब उदार उर वाले हों
अहंकार का अंश नहीं हो, भाव सुधारस प्याले हों
उदर भरे हों, तृप्त सभी हों, मानवता की वृष्टि हो
जहाँ लुप्त हो ऐसी पीड़ा, हर्षित, पुलकित सृष्टि हो