हिन्दी साहित्य में व्यंग्य के सार्थक चितेरे - कवि गोपाल चतुर्वेदी

01-03-2019

हिन्दी साहित्य में व्यंग्य के सार्थक चितेरे - कवि गोपाल चतुर्वेदी

डॉ. छोटे लाल गुप्ता

हिन्दी साहित्य में व्यंग्य की परंपरा अत्यंत समृद्ध है। कबीर के चुभते व्यंग्य तो दशों दिशाओं की विसंगतियों, धार्मिक आडंबरों तथा रूढ़िगत मान्यताओं पर गहरा प्रहार करते हैं। भारतेन्दु ने भारत दुर्दशा पर दृष्टिपात करते हुए स्वेदश का धन विदेश जाने और अंग्रेजी सभ्यता-संस्कृति के अनावश्यक प्रसार को अपने व्यंग्यों का निशाना बनाया। उनके भीतर इन सबके प्रति गहन आक्रोश का भाव था। भारत भारती में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अनेक तीखी व्यंग्यात्मक पंक्तियाँ लिखी हैं। माखनलाल चतुर्वेदी, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, नागार्जुन जैसी अनेक विभूतियाँ हैं, जिन्होंने समाज, राष्ट्र और व्यक्तिगत जीवन में व्याप्त विसंगतियों को आलोचना, अवहेलना तथा निंदा का लक्ष्य बनाया।

गोपाल चतुर्वेदी ने प्रतिदिन सामने आनेवाली अनेक दुखद घटनाओं, अटपटी बेहूदगियों को मध्यवर्गीय संदर्भों में उभारा है। भारतीय समाज में ऐसा वर्ग है जो विभिन्न प्रकार के परिवर्तनों, उनसे उभरने वाली दिक़्क़तों, चढ़ते-उतरते भावों और अभावों, महँगाई के संत्रास से सर्वाधिक प्रभावित होता है। अपनी सफ़ेदपोशी के आवरण को बनाए-बचाए रखने के लिए मध्यवर्गीय व्यक्ति को तरह-तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं और भाँति-भाँति के खट्टे-मीठे, चटपटे और कड़वे अनुभवों से गुज़रना पड़ता है। गोपाल चतुर्वेदी ने इन्हीं अनुभवों को व्यंग्य का प्रमाणिक जामा पहनाया है। यह बात दीगर है कि इस व्यंग्य में कहीं-कहीं हास्य-विनोद भी उभरकर आया है तकलीफ़ों को हँस-मुस्कुराकर टाल जाना, मगर उन्हें दूर करने का सकंल्प बनाये रखना बेख़ौफ़ ज़िंदादिली का लक्षण है। जैसा कि, ज्ञानदेव अग्निहोत्री के नाटक शुतुरमुर्ग में हुआ है, जहाँ उसने राजतंत्र के मूर्ख भोलेपन को विनोदपूर्ण व्यंग्य के माध्यम से उभारा है। कथात्मकता की दृष्टि से रागदबारी (श्रीलाल शुक्ल) ने स्वाधीन भारत में न्यायालयों, विद्यालयों आदि में व्याप्त भ्रष्टाचार को अपने सधे मगर चुभते व्यंग्य के माध्यम से उकेरा है।

जनतंत्र में धनतंत्र और भ्रष्टतंत्र के तालमेल ने स्थितियों को पूर्णतः बेक़ाबू कर दिया है। लालफीताशाही के बढ़ते प्रभाव, अफ़सरशाही की निर्लज्जता में अपनी जड़े गहरी करने के जो प्रयास किए उन्हें हमारे प्रबुद्ध, प्रगतिशील तथा प्रतिबद्ध व्यंग्यकारों यथा, हरीशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल रवीन्द्रनाथ त्यागी, शरद जोशी, शंकर पुणतांबेकर, केशवचंद्र वर्मा, मनोहर श्याम जोशी से लेकर अद्यतन गोपाल चतुर्वेदी ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

सचमुच युगीन सत्यों को व्यक्त करने वाला व्यंग्य, वक़्त की पेचीदगियों, आपाधापीयों, दुर्घटनाओं को रेखांकित करने वाला व्यंग्य मात्र ‘मनोरंजन साहित्य’ नाम का मैखाना नहीं होगा, वह विपरीत परस्थितियों के प्रति असंतोष जगाने के साथ-साथ बदलाव की वांछा और आकांक्षा को भी आंदोलित करता है। चाहे भारतेन्दु हों अथवा बालमुकुंद गुप्त, निराला हों अथवा नागार्जुन, सर्वेश्वर हों अथवा भारतभूषण अग्रवाल, भवानी प्रसाद मिश्र हों अथवा प्रभाकर माचवें, सभी ने अपने व्यंग्य को मात्र मनोरंजन का उपकरण नहीं बनाया है। व्यंग्य की यह सार्थक परिभाषा हर बड़े और सार्थक व्यंग्यकार पर लागू होती है। गोपाल चतुर्वेदी के व्यंग्य भी इस नियम के अपवाद नहीं हैं। कहना होगा कि गोपाल चतुर्वेदी के व्यंग्यों के शीषर्क जादू की तरह सिर चढ़कर बोलते हैं।

गोपाल चतुर्वेदी द्वारा लिखित सैकड़ो व्यंग्य संपन्न रचनाओं में कबीर और कुर्सीदर्शन एवं पशुपालन विकास उनके अनेक महत्वपूर्ण व्यंग्यों में अपना विशिष्ट स्थान रखते है। इन व्यंग्यों में निम्न परिस्थितियों और विसंगतियों को प्रहार का निशाना बनाया गया है, उनकी त्रासदी को उभारा गया है, वे एकायामी न होकर बहुआयामी अर्थात चौतरफ़ा हैं। श्रेष्ठ व्यंग्य की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि व्यंग्य चौराहे पर लगाए गए उस आदमक़द आईने के समान होता है जिससे हर रास्ते से गुज़रनेवाला व्यक्ति अपना प्रतिबिंब देख लेता है। गोपाल चतुर्वेदी ने अपने दीर्घ लेखकीय और प्रशासकीय अनुभव से भिन्न विसंगतियों, विद्रूपताओं, नाक़ाबिले बरदाश्त हालात को देखा-परखा तथा जाना पहचाना है, उन्हें अपनी बेलाग, मधुर मगर तीखी खिलंदड़ी शैली में मुक्त भाव से व्यक्त कर दिया है। कभी किसी पाखंड को बनाकर अथवा किसी घटना की परतें उधेड़कर उन्होंने यह व्यंग्य किया है।

‘दुम की वापसी‘ के बाद ‘खंभों के खेल‘ उनका अगला व्यंग्य संकलन है। इसमें उनके लगभग चालीस व्यंग्य समाहित हैं। समाज, राजनीति, पत्रकारिता और पुलिसिया क्षेत्रों में व्यक्ति अगर जनवतंत्र के स्तंभ है तो व्यंग्यात्मक भाषा में उन्हें खंभा कहा ही जाएगा। समाज के विभिन्न पक्षों और रूपों को विसंगत बनानेवाले इन खंभों की मानसिकता और कारगुज़ारियों से छेड़छाड़ करते हुए इनका पर्दाफाश करते हुए इन पर व्यंग्य प्रहार करते हुए सभी दुर्बलताओं, कथनी-करनी के अंतरों की कलई खोलते हुए आक्रमण किया है जिससे व्यंग्य द्वारा सर्जित एवं अर्जित लक्ष्यों तक पहुँचने की क़ामयाब कोशिश है।

शब्दों और विसंगतियों के बीच तालमेल बैठाकर स्थितियों से खेलते हुए गोपाल चतुर्वेदी समाज के चप्पे-चप्पे में व्याप्त हालात को सहज सुकमार अंदाज़ में व्यक्त कर देते हैं। रावण न हो पाने का संत्रास में उन्होंने दूरदर्शन पर प्रसारित रामायण धारावाहिक के बहाने स्थिति को परत-दर-परत उघाड़ते हुए तथाकथित आधुनिक में व्याप्त हालात, अज्ञान और मूर्खता के शून्य को बड़े कौशल से उकेरा है। गोपाल चतुर्वेदी व्यंग्यांकन के लिए जिन विषयों का चुनाव करते हैं, वे हमारे दैनंदिन जीवन से जुड़े प्रसंगों, आस-पास के जीते-जागते संघर्षत जीवों, जुगाड़ और धांधागर्दी करते व्यक्तियों, हमारे आसपास घटनेवाली दारुण और करुण घटनाओं तथा परस्पर व्यवहार में आनेवाले दोगले तरीक़ों को ख़ुलासा करने का काम करते हैं। ऐसे चरित्र चाहे राजनीति से जुड़े हों, नौकरशाही, अफ़सरशाही अथवा लालफीताशाही से है। गोपाल चतुर्वेदी के कतिपय-व्यंग्यों पर बात करें तो देखेंगे कि उन्होंने विसंगत स्थितियों को कितनी ईमानदारी से बयान करने उद्यम किया है। खंभा होने की नियति में पप्पू द्वारा पत्थर फेंके जाने के शौक़ को उसके पिता इन शब्दों में चित्रित करते हैं, “एक-दूसरे पर पत्थर फेंकना हमारा राष्ट्रीय शौक रहा है। फूल भगवान पर चढ़ाए जाते हैं या मृत इंसान पर। कभी एक-दूसरे से फुर्सत मिली या मन आया तो खंभों पर पथराव कर देते हैं। आपने कभी पत्थर फेंके कि नहीं?” इस व्यंग्य में विभिन्न खंभों के माध्यम से व्यंग्य को रचा गया है। समाज के अनेकानेक खंभों पर व्यंग्य के पत्थर बरसाने का काम व्यंग्यकार ने किया है।

दुम की वापसी परंपरागत ज्योतिष शास्त्र से कंप्युटरी, ज्योतिष द्वारा प्रश्नों के उत्तर देनेवाले परलोकों दास के पुत्र रमेश के माध्यम से संयोग्य सांसद सत्यप्रकाश जी के मंत्री बनने की जिज्ञासा को दर्शाता है तो, मशीन उत्तर देती है, “प्रश्नकर्ता को सफलता के लिए दुम उगाकर हिलाने का अभ्यास करना चाहिए।” अर्थात भले ही आप कितने योग्य सांसद क्यों न हों, आप में ख़ुशामद, चापलूसी के कीटाणु अवश्य होने चाहिएँ तभी आप तरक़्की के रास्ते पर आगे जा सकेंगे। आगे होता यह है कि सत्यप्रकाश जी की दुम पुनः वापस आने लगती है - दाँत में फँसी कुर्सी के प्रांरभ में कहा गया है, “जानवरों के बारे में विश्वास से नहीं कहा जा सकता पर यह इंसानों का भोगा हुआ यथार्थ है। अगर मुँह में भगवान की दी हुई बत्तीसी है तो उसमें कभी न कभी कुछ फँसता ज़रूर है।“ और आगे चलकर व्यंग्यकार ने मनुष्य के कुर्सी-मोह को निम्नांकित संवादों में व्यक्त किया है- “कुछ बेचारों के दाँत में कुर्सी फँसी है। असली लोहे के चने तो वही चबा रहे हैं। डाक्टर के पास जाने से कतराते हैं। उससे असिलयत कैसे बयान करें? कैसे मान लें कि हर दाँत की दरार में कुर्सी का कोई न कोई हिस्सा है। कहीं पाया तो कहीं गद्दी। ऊपर से सब सामान्य है। जटाजूट रूद्राक्ष, चंदन का टीका, संन्यासी का भेस, पर डॉक्टर तो भीतर झाँकेगा। कहीं असलियत उसके पल्ले पड़ गई तो उसका मुँह बंद करना पड़ेगा। चेलों की जमात में किसी को शामिल करना एक खर्चीला सौदा है। देश में सार्वजनिक भेद हो तो पर विदेशी भक्तों को तो ‘बाहर कान्हा, अंदर कुर्सी’ का पता नहीं लगना चाहिए। देश का कितना नुकसान होगा। डॉलर की दक्षिणा नहीं आएगी। विदेशी मुद्रा के भंडार पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। यों तो वह संन्यासी है, पर देश का तो सोचना ही पड़ता है। कुर्सी-पीड़ा नहीं सहे तो क्या करें?” कथ्यानुरूप बात करें तो कहा जा सकता है कि व्यंग्यकार ने दाँत में फँसी कुर्सी की मिज़ाजपुर्सी करते हुए उसकी मातमपुर्सी भी कर दी है।

‘कुर्सी का कबीर’ में सिर्फ़ नाम का कबीर मगर सब कुछ एक ऐसे व्यक्तित्व स्वार्थ लिप्सा से भरपूर, हर उपलब्धि के मोह में डूबे हुए एक ऐसे व्यक्तित्व का खाका है, जो कबीर कहला कर भी व्यवहार में ठीक उसका विलोम है। नाम बड़े दर्शन छोटे और खोटे का यह अद्भुत और बेहतरीन नमूना है। व्यंग्यकार ने रचना के शीर्षक में ही उभरनेवाली अनेकानेक विसंगतियों के रूप को बख़ूबी उभारने का काम कर दिखाया है। कहना होगा कि गोपाल चतुर्वेदी में कथात्मकता और नाटकीयता का सहारा लेकर विद्रूप को उभारने की मनोहारी क्षमता है। लाल फीताशाही से, समाज की मध्यवर्गीय चेतना अथवा चेतनाहीनता का प्रतिनिधित्व करते लोग हों, या व्यक्तिगत कुंठाओं, महत्वाकांक्षाओें को पोषित करते लोग हों, मगर वे हैं बिल्कुल हमारे आसपास की दुनिया के लोग। गणतंत्र में धनतंत्र के वर्चस्व एवं जन की उपेक्षा को भी गोपाल चतुर्वेदी ने अपने चिंतन और लेखन का मुद्दा बनाया है। फोन टेप न होने का दर्द, चुल्लू भर पानी की तलाश, मारूति महिमा जन सेवक का कुटीर उद्योग, हम वकील क्यों न हुए, चुनाव वर्ष, कार्यकर्ताओं की तलाश और प्रजातंत्र, डिमाक्रेसी बनाम रैलीकेसी चुनाव के बाद, पान-पॉलीटिक्स और पटना, एक और रस-बुद्धि, आदि कुछ ऐसे व्यंग्य हैं जो विसंगतियों को सहज भाव से समझने में सहायक होते हैं।

गोपाल चतुर्वेदी के पास एक सुविचारित और लगभग सर्वमान्य व्यंग्य-दृष्टि है। व्यंग्य के उद्देश्यों और प्रतिबद्धता के प्रति उनका यह दृष्टिकोण व्यंग्य को भलीभाँति व्याख्यायित करने की क्षमता के साथ-साथ उसकी अनिवार्यता को बहुत दूर-दूर तक सार्थक सिद्ध करता है। इस प्रसंग में गोपाल चतुर्वेदी ने ये विचार व्यक्त किए हैं, “व्यंग्य जीवन की वास्तविकता का दर्पण है। दुर्भाग्य से आज़दी के छह से अधिक दशक बीत जाने भी भारतीय सियासत और वज़ारत स्वंतत्रता संग्राम के बहुआयामी आदर्शों से कोसों दूर है। मुझे नहीं लगता कि रचनात्मक लेखन इस खाई को पार कर सकता है। यदि वह पाठकों को विसंगतियों, विरोधाभासों और बकवासों से परिचित कराने में समर्थ है तो इतना ही काफ़ी है।” मानना होगा ही गोपाल चतुर्वेदी ने अपने उक्त कथन में महान स्वतंत्र देश के सपनों और आदर्शों को ध्यान में रखते हुए अपने व्यंग्य को समाज सापेक्ष और राजनैतिक अनैतिकताओं को उद्घाटित करनेवाला बनाया है और सत्ता व समाज में परिवर्तन लाने की दिशा मे रचनात्मक लेखन की भूमिका पर भी अपना मत स्पष्ट किया है।

गोपाल चतुर्वेदी स्वयं को विविध विषयों, अधिसंख्य मुद्दों, चुनौतीपूर्ण स्थितियों तथा जीवन के व्यापक संदर्भों से जोड़े रखना चाहते हैं। उनका मानना है कि रचनाकार को स्वयं को सीमित नहीं करना चाहिए। उन्होंने दफ़्तरशाही, लिपिकीय मानसीकता लाटसाहिबी, मध्यवर्गीय परिवारों की द्वंद्वात्मक स्थितियों एवं व्यक्तिगत कुंठाओं को अपने व्यंग्य लेखन का आधार बनाया, मुक्त भाव से किसी भी मुद्दे पर क़लम चलाई। ज़िंदगी भर अफ़सरी करते-करते इन्होंने सरकारी दफ़्तरों के प्रत्येक पहेलू पर नज़र रखी और उसे मौका पाकर क़लमबद्ध किया। कुछ व्यंग्य, कुछ विनोद और कुछ अल्हड़पन के साथ उन्होंने ‘मधुशाला की पैरोडी‘ के रूप में निम्नांकित चुटकी भी ली है-

मेरी अर्थी के संग रखना
चंद फ़ाइलें, कुछ हाला
राम नाम का जाप न करना
जपना ‘सर-सर’ की माला
मेरी अस्थि विसर्जित करके
दफ़्तर में लिखवा देना
जब तक संभव था
जीवन में इसने हर निर्णय टाला।

अफ़सरान की निर्णय टालने की प्रवृत्ति पर गोपाल चतुर्वेदी ने एक यादगार चुटकी ली है जो समूचे सरकारी दफ़्तर तंत्र के आचरण को उघाड़कर रख देती है। स्वयं कवि होने के कारण ही उसने यह श्रेष्ठ पैरोडी संभव हो सकी है।

गोपाल चतुर्वेदी ने अन्य बड़े साहित्यकार व्यंग्यकारों के ही समान साहित्य को श्रेष्ठ मनुष्य बनाने की कोशिश के रूप में स्वीकार किया है। आदमी को सचमुच में आदमी बनाने के प्रयोजन के तहत उन्होंने अपने व्यंग्यों में संवेदना के सूत्रों को पकड़ने ही ओर भी ध्यान दिया है। व्यंग्य यात्रा को दिए गए अपने विशद साक्षात्कार में अपने प्रांरभिक लेखन के विषय में बताते हुए कहा, “मैं इलाहाबाद में विद्यार्थी था। तब तक मैंने दो उपन्यास पढ़े थे जार्ज आरवैल के। दोनों उपन्यासों में मनुष्यता की उड़ती हुई धज्जियाँ देखीं, इनके पात्रों को पीड़ा देखी, विद्रूप और कुत्सित मानसिकता देखी।“ तब से उनमें मनुष्य होने और मनुष्यता से भरे होने की प्रबल प्रेरणा पैदा हुई। आगे उन्होंने कहा है, “मेरी तभी से यह अनुभूति बनी हुई कि हमको सही अर्थों में आदमी बनना है। और आदमी आप कैसे बनेंगे? आदमी आप बनेंगे अपने संस्कार से, अपनी शिक्षा से, अपने आसपास के माहौल से और आप जो करना चाहते हैं उससे। तो आप ऐसा काम कीजिए जो आपकी इंसानियत को ज़िंदा रख सके। लेखन ऐसी ही चीज़ है, आपके अंदर के आदमी को अभिव्यक्ति देता है। आप दस आदमियों के बीच में बैठकर बात नहीं कर सकते। आप दफ़्तर में बैठे हैं। आपने फ़ाइल देखी, आप ऐसे लोगों से मिले जिनको आपसे कोई-न-कोई काम पड़ता है या ऐसे लोगों से मिले जो आपके अधिकारी हैं या उनसे जो आपके कनिष्ठ हैं। ऐसे समय में मुझे लगा कि अपनों से अपनी बात करने के लिए काग़ज़-क़लम सबसे अच्छा माध्यम है। इसमें पूँजी का भी ऐसा खर्चा नहीं है। काग़ज़ भी सस्ता है और क़लम भी आजकल बहुत सस्ती होती है। तो इसका उपयोग किया जाए। लिखता तो शायद, मैं इसलिए रहा कि अंदर का जो आदमी है उसे ज़िंदा रख सकूँ।” कहना होगा कि गोपाल चतुर्वेदी की लेखन यात्रा उन्हें बराबर मानवीय बने रहने और मनुष्यता, न्याय, सटीकता के प्रबल पक्षधर के रूप में पेश करती रही तथा उन्होंने अपने व्यंग्यों में भी चेतना की अलख जगाई।

तत्कालीनता और समकालीनता गोपाल चतुर्वेदी के व्यंग्यों का प्रमुख स्वर और सरोकार है। अपनी रचना पाप का घड़ा में व्यंग्यकार ने दारू की दुकानें खोलने में घोर रुचि दिखाने वाली सरकार के दुमुँहेपन पर तीखा व्यंग्य किया है। इस प्रसंग में गोपाल चतुर्वेदी अपनी चिंताओं का ख़ुलासा करते हुए कहते हैं, “इस नैतिकता निरपेक्ष युग में पाप-पुण्य जैसी दकियानूसी चर्चा से कोई ऊबे नहीं तो क्या करे? हमने उनसे निवेदन किया कि अब शहरों से घड़ा ही गायब है तो भरेगा कैसे? सचमुच पाप का दिखाई देनेवाला घड़ा भले ही लबालब भर जाए भरकर छलक भी जाए, मगर मिट्टी के घड़े को यह सुविधा हासिल नहीं है।“

गोपाल चतुर्वेदी के जीवन सापेक्ष सकारात्मक सोच संपन्न व्यंग्यों में उनके परिपक्व अनुभवों, मनुष्य की नैसर्गिक दुर्बलताओं और मानसिकताओं का अंकन, देश-विदेश के जैन-जीवन की व्यापक जानकारी, समस्याओं की हर तह तक पहुँचने की तत्परता, आहत, दलित, संघर्षरत मनुष्य के प्रति गहरी ममता ने उन्हें संवेदनशील हृदयों का चहेता व्यंग्यकार बना दिया है। उनकी कथनी में मौजूद तुर्शी जहाँ अपना नुकीलापन चुभाती है, वहाँ उसमें मौजूद निष्ठा और ईमानदारी पाठकों को लुभाने के साथ-साथ सोचने को विवश भी करती है। उन्हें पढ़कर जहाँ आम जनता खिलखिलाती-मुस्कराती है, वहाँ विसंगतियों और विद्रूपों से भरपूर मानसिकताएँ विचलित हो जाती हैं। हमारे विचार से गोपाल चतुर्वेदी के व्यंग्यों की यही सकारात्मक सोच नकारात्मक प्रवृत्तियों को निरस्त करती है।

एक अन्य स्थल पर अपने व्यंग्यों की भावभूमि और प्रभावभूमि का उल्लेख करते हुए गोपाल चतुर्वेदी ने यह भी स्वीकार किया है, “व्यवस्था तथा तंत्र से मेरा काफ़ी साबका रहता है। मैंने इसकी विषमताओं को और फरेब को भुगता भी है। ज़ाहिर है यह भुगता हुआ यथार्थ लेखन में उभरेगा ही। आज के जीवन में विषमताएँ हैं, व्यंग्य के विषय भी ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तरह हैं। व्यंग्य के नियम और विचार भले ही सहज उपलब्ध हैं, व्यंग्य लेखन एक कठिन कर्म है। मेरी कोशिश रहती है कि मैं किसी व्यक्ति विशेष को निशाना कभी न बनाऊँ। कुछ हैं तो दूषित प्रवृत्तियों के प्रतिनिधि हैं, उनसे निपटने के लिए आततायी और मुरारी जैसे चरित्र काफ़ी है।”

गोपाल चतुर्वेदी ने अपने बहुतेरे व्यंग्यों में आतताई और मुरारी जैसे पात्रों अथवा चरित्रों के दोगलेपन, घटियापन, छिछोरेपन को उकेरा है। कहना होगा कि गोपाल चतुर्वेदी अन्य श्रेष्ठ व्यंग्यकारों एवं संवेदनशील साहित्यकारों के समान वर्तमान समय के महत्त्वपूर्ण व्यंग्य हस्ताक्षर हैं।

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