छोटी-बड़ी बात

01-02-2020

छोटी-बड़ी बात

डॉ. मो. इसरार (अंक: 149, फरवरी प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

बाहर सफ़ेद कोहरे की चादर बिछी हुई थी और कमरे के अंदर मास्टर साहब हरे रंग के बोर्ड पर सफ़ेद चाक घिसते हुए गणित के सवाल हल करने में व्यस्त थे। कक्षा के बच्चे एकदम शान्त, मौनव्रत धारण किए, मास्टर साहब द्वारा हल किए जाने वाले सवालों को अपनी-अपनी कॉपियों पर छाप रहे थे। कक्षा इतनी शान्त थी कि किसी बच्चे के ज़ोर से साँस लेने पर उसकी ध्वनि भी साफ़-साफ़ सुनी जा सकती थी। बाहर से गुज़रने वाले को कुछ ऐसा भ्रम होता था कि मानों कमरा ख़ाली है, उसमें कोई नहीं।

तभी अकस्मात कक्षा का मौनव्रत टूटा क्योंकि मास्टर जी का फोन घरघरा कर बजने लगा। फोन की रिंगटोन प्रसिद्धि पाने वाले लेटेस्ट गाने की धुन पर थी। इसलिए बच्चों की नज़र कॉपी और बोर्ड से हटकर सीधे मास्टर साहब की ओर दौड़ गई। सबसे पीछे की सीट पर बैठे दो बच्चे हँसने भी लगे। परन्तु मास्टर ने जैसे ही उनकी तरफ़ टेढ़ी नज़र से देखा, वे शान्त होकर नीचे की ओर दुबक गए। फिर मास्टर साहब ने अपनी ओर देखने वाले बाक़ी बच्चों की ओर देखा। लेकिन दोनों तरफ़ के देखने में भावों का अंतर था इसलिए बच्चे फिर से अपनी-अपनी कॉपियों में सवालों की छपाई करने लगे।

मास्टर साहब ने फोन रिसीव किया और बोले, “हैलो, कौन बोल रहा है?”

जवाब आया “सर, मैं गेट से रामप्रसाद गार्ड… वो आपकी क्लास का शंकर, अपने पिता और चाचा के साथ आया है। कह रहा है कि उसके पेरेंट्स PTM (अभिभावक-शिक्षक मीटिंग) में नहीं आए थे, इसलिए आप से मिलना है।”

मास्टर साहब ने क्लासरूम में ठीक सामने की तरफ दीवार पर टँगी घड़ी की ओर देखते हुए जवाब दिया, “उनको अंदर भेज दो और सीढ़ियों के पास वाले कमरे में बैठा दो। पीरियड ऑफ़ होने के बाद मिलता हूँ उनसे...।”

मास्टर साहब ने मोबाइल पॉकेट में ठीक से रखा भी नहीं था कि एकाएक उन्हें याद आया, इस पीरियड के तुरन्त बाद तो दूसरी कक्षा में पीरियड है। शंकर के पिता से इसी समय मिलना पड़ेगा। इसलिए कक्षा में उन्होंने बच्चों को अपनी व्यस्तता का हवाला दिया और कमरे से बाहर चल दिए। बाहर निकलते समय उन्होंने सबको हिदायत दी, “ख़बरदार किसी ने चूँ भी किया, अगर किसी की आवाज़ कमरे से बाहर सुनाई दी, तो अंजाम अच्छा नहीं होगा।”

सीढ़ियों के पास वाले कमरे में बैठा शंकर, अपने पिता और चाचा को स्कूल के क़िस्से सुना रहा था। देखने में काफ़ी ख़ुश भी था। मास्टर जी के पैरों की आहट सुनी तो उसका क़िस्सा अधूरा रह गया। तुरंत ही आहट साक्षात मास्टर जी के रूप में बदल गयी। मास्टर जी को देखते ही शंकर एकदम चुप हो गया। और सीट से उठकर एक कोने में जा खड़ा हुआ।

शंकर के पिता व चाचा ने खड़े होकर मास्टर साहब से दुआ सलाम की। मास्टर जी ने अपने स्वभाव के विपरीत विनम्रता का लबादा ओढ़ते हुए कोमल स्वर में कहा, “पिछले महीने आप मिलने नहीं आए? फोन भी किया था और शंकर को भी बोला था।” 

शंकर के चाचा बोले, “साहब, फ़सल कट रही थी तो खेत में दिन कट जाता था। मज़दूर आदमी ठहरे, साहब हम। पापी पेट भी भरना है। बच्चा तो ज़िद कर रहा था, स्कूल में जाना है, मीटिंग है। नहीं गए तो मास्टर साहब डाँटेंगे। ना आने के लिए माफ़ी चाहते हैं, साहब...।” 

मास्टर साहब फोन में झाँकते हुए बोले, “कोई बात नहीं।” 

मास्टर साहब शंकर की बदमाशियों से भरे पड़े थे और फटने को आतुर थे। लेकिन उन्होंने स्वयं को एक क्षण के लिए रोका और सोचा, ’क्यों न इस शंकर की बदमाशियों के क़िस्से, पहले इसके पिता व चाचा से ही सुन लेते हैं। इससे मुझे बोलना भी नहीं पड़ेगा और बीच-बीच में आग में घी भी डाल दूँगा।’ अत: मास्टर साहब ने एक वाक्य छोड़ा, “घर पर कैसे पेश आता है ये, आप लोगों से?”

शंकर के पिता मुँह पर लिपटी शाल के पीछे से बोले, “साहब, आपने पिछले 8 महीने में हमारे बच्चे को बदल दिया है। पहले बात-बात पर गालियाँ देता था, अब क़ायदे से बात करने लगा है। पहले छोटी सी बात पर मुँह बनाकर लड़ने-झगड़ने लगता था, अब इसमें थोड़ी नरमाई आयी है। घर पर बैठकर पढ़ता भी है। और अब तो इसने घर का हिसाब-किताब करना भी सीख लिया है। फोन में नंबर अँग्रेज़ी में खोज भी लेता है और सेव भी कर लेता है...।”
 
पूर्व के सभी वाक्यों को अनदेखा कर बाद वाले वाक्य ने मास्टर साहब के मस्तिष्क में कुछ झनझनाहट सी पैदा की। वे सोचने लगे, ’इसमें कौन सी बड़ी बात है। ये तो आजकल सभी बच्चे कर लेते हैं।’

परन्तु ये वाक्य सुनकर शंकर पर फटने को आतुर मास्टर साहब के मन की आतुरता का स्तर कुछ नीचे आ गया। 

तभी शंकर के चाचा जी बोल उठे, “साहब, हमारे घर में सब अँगूठा टेक हैं। पीढ़ियों से कोई नहीं पढ़ा है। डंगर-ढोरों का दूध बेचकर गुज़ारा करना अपना काम रहा है। हमने इसे भी अपने जैसा बना लिया था। ये बच्चा पहले आठ-दस स्कूलों में पढ़ा लेकिन कहीं भी चार-छ: महीने से ज़्यादा टिकता नहीं था। कोई दिन ही ऐसा जाता था, जिस दिन बाहर से इसकी शिकायतें न आती हों। जो बच्चा दूसरे स्कूलों में पढ़ते हुए सात-आठ सालों में अपना नाम नहीं लिख पाता था, उसने पिछले आठ महीनों में अपने आस-पास के बच्चों जितना ही सीख लिया है। अब तो अड़ोसी-पड़ोसी भी शंकर की तारीफ़ करने लगे हैं। आज ये बच्चा जो कुछ भी है ना, उसमे आप लोगों का बड़ा हाथ है, साहब...।”

बातचीत ख़त्म हुई, शंकर के चाचा और पिता जी चले गए। अब खिड़की के बाहर फैली हुई सफ़ेद कोहरे की चादर को धूप हल्का-हल्का चीरते हुए मास्टर साहब के चेहरे पर गिर रही थी। वे, शंकर के पिता व चाचा के साथ हुई बातचीत को लेकर विचार मग्न थे। एक सवाल सा बार-बार उनके मन में कौंध रहा था, “ये सब बातें मेरे लिए कितनी छोटी हैं… लेकिन शंकर के पिता और चाचा के लिए...?”

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