चाँदनी रात में कभी-कभी...

04-08-2014

चाँदनी रात में कभी-कभी...

विकास वर्मा

मेरे दिल में भी छिपा है कहीं भावों का एक समन्दर, 
इसीलिए किसी चाँदनी रात में कभी-कभी,
जाग जाते हैं भाव।
मचलने लगती हैं लहरें अरमानों की, 
और भूलकर कुछ पलों के लिए पथरीली ज़मीन को,
रूमानियत की खिड़की से झाँकने लगते हैं ख़्वाब।

 

दिखाई देने लगता है एक ख़ूबसूरत-सा नज़ारा,
एक मदहोशी भरा मंज़र, 
जैसे खो रहा हो मेरा सारा वजूद - 
किन्हीं गहरी, सुरमई आँखों में,
जैसे समेट रहा हो कोई मुझे अपने में, 
सौंप रहा हो मुझे एक नया वजूद, 
एक नई शख़्सियत।

 

सुनाई देने लगते हैं - 
कुछ मीठे-से अल्फाज़,
जैसे कह रहे हों- 
एक ही तो है ज़िन्दगी, 
बना लो आसान इसे, 
बढ़ा कर तो देखो हाथ, कोई 
थाम ही ले शायद,
बढ़ा कर तो देखो कदम,
खड़ा हो शायद कोई इंतज़ार में,
माँग कर तो देखो साथ,
कोई बन ही जाए हमसफ़र शायद।

 

और फिर, चाँदनी रात की रूमानियत ख़त्म होते-होते, 
फिर से नज़र आने लगती है पथरीली ज़मीन,
चुभने लगता है उसका खुरदरापन....
लेकिन, 
एक धूमिल-से एहसास की मीठी अनुगूँज, 
फिर भी रहती है कायम.....
दिल है तो ख़्वाब तो होंगे ही, 
और ख़्वाब सच भी तो हो जाते हैं कभी-कभी.......

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