चाँद की व्यथा

15-04-2020

चाँद की व्यथा

कविता (अंक: 154, अप्रैल द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

ओ मानव!
आज देखा तुमने 
मुझे ग़ौर से 
मैं तो सदियों से 
ऐसा ही हूँ 
रोज़ आता हूँ ,
रोज़ जाता हूँ 
ख़ुद ताप सहकर
सारे जग को
अपनी शीतलता 
बिना भेदभाव
प्रदान करता हूँ 
कोमल किरणों से 
मानव मन में 
मधुरता भरता हूँ 
प्रेमियों के  मन में 
प्रेम का संचार 
करता हूँ .......


इस मशीनी युग 
की भागदौड़  में
मुझे देखने का 
कभी तुमको 
समय ही ना मिला 
तुम प्रकृति से दूर 
अप्राकृतिक जीवन 
जीने मे व्यस्त रहे 
समय का अभाव रहा 
जीवन बरबाद रहा .....


कवियों का कहा 
तुमने सर झुका 
मान लिया !
अपनी नज़र से गर
मुझे देखते-परखते 
चाँदनी के साथ मेरे 
ज़ख़्म भी दिखते 
कोमल किरणों का
दर्द भी अनुभव होता ......


कानों के कितने 
कच्चे हो तुम !
आज किसी ने 
कह दिया कि 
उल्टा हो गया हूँ मैं 
तो झट मान लिया?
पर चलो 
इस बहाने से तुमने 
मुझको ग़ौर से 
कुछ देर निहार 
तो लिया....

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