बंदर का खेल

01-09-2021

बंदर का खेल

कविता झा (अंक: 188, सितम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

मदारी आया, मदारी आया
सुनो बच्चों और बच्चों की अम्मा
बजा रहा डमरू
डम डम डुम डुम डुम डम डम
साथ में है एक बंदर
और एक सजी-धजी बंदरिया
दोनों देख रहे
आस पास खड़े
लोगों को
दंग विस्मित
हँसी भी आ रही थी
कौन नाचने वाला यहाँ
बंदर या मानव।
 
बंदर का खेल देखने
जुट गई भीड़
बोलेगा ये बंदर
पहले थाल में
पैसे रख
बच्चे हो या उनकी माता
सब को पैसों की बात अखड़ी
मुफ़्त में मिले तो सब अपना
पैसे देने पड़े तो जग सपना
इतने में भीड़ हुई आधी
जुटे भीड़ ने रखे सिक्के
थाल में फेंक के
और फिर शुरू हुआ
खेल बंदर का।
 
“चल बोल घमरु ससुराल जाएगा
रूठी बीबी को मनाएगा”
बंदर ने हाँ में सर हिलाया
“मना कर घर लाएगा
घर लाकर प्यार से रखेगा”
दंग बंदर ने सर खुजाते
हामी में सर हिला दिया
सोचा यही तो हाल है
मनुष्य का यहाँ
हाँ जी का काम
ना बोलने वालों का दाम।
मदारी के इशारे पर
नाचने लगा बंदर
ले बंदरिया को संग
सोचा ऐसे ही तो अमीर
नचाते ग़रीब को
पढ़े लिखे अनपढ़ को
और ओहदा वाले
दुर्बलों को।

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