आर्षकालीन राष्ट्रीयता

19-08-2016

आर्षकालीन राष्ट्रीयता

डॉ. रामकेश्वर तिवारी

आर्ष प्रतिपादित अपौरुषेय वेदों में राष्ट्र और देश की स्पष्ट कल्पना है। यजुर्वेद के दसवें अध्याय में राज्याभिषेक के अवसर पर राष्ट्रीय कर्तव्यों का उल्लेख है। राष्ट्र के विषय में उल्लेख करते हुए कहा गया है कि यह एक उद्देश्य को लेकर चलने वाला हो - अर्थेतस्थ राष्ट्रदा राष्ट्रं मे दत्तं, ओजस्वतीस्थ।1अर्थेत से तात्पर्य है- अर्थ अर्थात् एक उद्देश्य को लेकर चलने वाला। राष्ट्र में प्रजा तेजस्वी, हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ हो, उसमें तेज और वर्चस् हो- सूर्यवर्चसस्थ, मन्दास्थ, शविष्ठास्थ, शक्वरीस्थ॥2 अर्थात् प्रजा सूर्य के सदृश तेजस्वी हो। प्रसन्नचित्त, आह्लादित शक्तिशाली एवं बलिष्ठ हो। देश स्वतंत्र एवं स्वाधीन हो तथा उसको अपने कर्तव्यों के निर्धारण के लिए पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए। राष्ट्र में जनता का कल्याण हो। जनता की सुख-समृद्धि के लिए प्रयत्न होना चाहिए तथा संसार की सुख-समृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।3 अर्थात् स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही राष्ट्र में प्रत्येक व्यक्ति सुखी एवं सम्पन्न होना चाहिए तथा विश्व के कल्याण के साथ ही विश्व की प्रगति में भी सहायक होना चाहिए। राष्ट्र की कल्पना के साथ ही राष्ट्र की प्रार्थना करते हुए ब्राह्मणादि वर्णों के कर्त्तव्य, स्त्रियों व युवकों के कर्त्तव्य तथा यथासमय वर्षा और योगक्षेम की प्रार्थना की गई है। राष्ट्रीय प्रार्थना में राष्ट्र के कर्तव्यों, राजा के दायित्व, नागरिकों के कर्तव्य एवं विधि-विधान का वर्णन होता है। यहाँ इस प्रार्थना में कहा गया है कि ब्राह्मण वर्ग तेजस्वी, ज्ञान-विज्ञान में अग्रगण्य हों। राष्ट्र के मार्गदर्शक हों। ये दिशा-निर्देश और राष्ट्र संचालन के लिए संविधान तैयार करते हैं। ये जितने योग्य विद्वान निःस्वार्थ एवं आचार-विचार में उन्नत होंगे, राष्ट्र की उन्नति में उतने ही सहायक होंगे।4 ब्राह्मणों के अतिरिक्त क्षत्रियों, वैश्यों एवं शूद्रों की राष्ट्र निर्माण में भूमिका का उल्लेख करते हुए कहा गया है- हमारे क्षत्रिय वीर एवं महारथी हों, जहाँ भी जाएँ विजय उन्हें प्राप्त हो। वैश्य वर्ग प्रतिभाशाली हो क्योंकि राष्ट्र की आर्थिक समृद्धि इन्हीं पर आधारित होती है। शूद्रों को विविध उद्योग-धन्धे एवं शिल्प आदि का ज्ञान होना चाहिए, जिससे वे राष्ट्र के लिए अपना दायित्वपूर्ण कर सकें।5वर्तमान समय में उपरोक्त बातें हमारे देश के निर्माण, उन्नति एवं समृद्धि के लिए अति आवश्यक हैं, अतएव प्रत्येक नागरिक को देश के लिए अपनी भूमिका का निर्वाह करना चाहिए। हमारे मनीषियों ने जिन बातों का उल्लेख किया है राष्ट्र के सन्दर्भ में वे इस समय भी प्रासंगिक है। ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों एवं शूद्रों के अतिरिक्त यह प्रार्थना भी की गयी है कि- हमारी गायें प्रचुर मात्रा में दूध दें, बैल हृष्ट-पुष्ट और भारवाहक हों, घोड़े तीव्रगामी हों, स्त्रियाँ परिवार का दायित्व भली प्रकार निर्वाह करें। हमारे शूरवीर सदैव विजयी हों, युवक सभ्य एवं सुशिक्षित हों। मेघ समय पर वर्षा करें, वृक्ष-वनस्पति फल-पुष्प से युक्त हों और अन्नादि से सुखी एवं सम्पन्न हो और उनका कल्याण हो। अथर्ववेद में पृथिवी के धारक तत्व छः बताये गये हैं -

सत्यं बृहद् ऋतमुग्रं दीक्षातपो।6 
ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति॥

अर्थात् सत्य, ऋत, दीक्षा, तप, ब्रह्म और यज्ञ। इन छः तत्वों की वास्तव में राष्ट्र निर्माण में अहम भूमिका है। जब तक इन छः गुणों का हमारे द्वारा सम्यक पालन किया जायेगा तब तक हमारा राष्ट्र सुरक्षित रहेगा। इनके विपरित आचरण से पृथिवी असुरक्षित होगी एवं इससे सृष्टि का नाश भी हो सकता है। राष्ट्र में सत्य एवं पारस्परिक विश्वास का होना अनिवार्य है। प्रथम सत्य में हमें प्रकृति के नियमों को समझना एवं उसके अनुकूल आचरण। जैसे- सूर्य, चन्द्र-नक्षत्र आदि के कार्य प्राकृतिक सत्य हैं। सूर्य प्रतिदिन अपने समय पर आता है एवं हमें प्रकाश देता है यदि, एक दिन भी सूर्योदय अपने समय पर न हो तो क्या होगा?

वायु हमारे प्राण निर्वाह के लिए आवश्यक है। यह भी निरन्तर हवा प्रदान कर रही है। अर्थात् प्रकृति अपने नियम में व्यवस्थित है एवं हमारी सहायता करती है, इसी प्रकार मनुष्य को भी अपने जीवन को व्यवस्थित करना चाहिए। मनुष्य को समाज में व्यवस्थित रूप से रहते हुए सत्यनिष्ठा ईमानदारी एवं असत्य आचरण नहीं करना चाहिए जो कि राष्ट्र के निर्माण में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जब तक संसार में सत्य एवं विश्वास है तब तक संसार की गति निर्बाध रूप से चलती रहेगी एवं जिस दिन सत्य एवं विश्वास समाप्त हो जायेंगे राष्ट्र भी नष्ट हो जायेगा। राष्ट्र निर्माण में पृथिवी के दूसरे धारक तत्व ऋत का महत्वपूर्ण स्थान है। ऋत से तात्पर्य है प्राकृतिक नियम। प्रकृति के अत्यन्त कठोर नियम हैं। इनका पालन प्रकृति के निर्बाध गति के लिए प्रत्येक के लिए आवश्यक है। इनका पालन सूर्य, चन्द्र आदि से लेकर प्रत्येक जीव करता है। सूर्य एवं चन्द्र समय से उदय एवं अस्त होते हैं। वायु चलती है, पृथ्वी अपनी धुरी पर प्रतिक्षण घूम रही है। प्रत्येक अणु इस नियम के कारण ही संसार (राष्ट्र) के निर्माण में अपना योगदान दे रहा है। राष्ट्र के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक मनुष्य इन नियमों का पालन करे, अन्यथा प्रकृति जीव-जगत् को दण्ड देगी। जैसे- भूकम्प, सूखा, अतिवृष्टि आदि। वर्तमान समय में ऋत (प्राकृतिक नियम) का पालन न करने के कारण ही पर्यावरण की समस्या, हमारे समक्ष विकराल रूप में उत्पन्न हो रही है। दीक्षा का तात्पर्य है संकल्प लेना। संकल्प के द्वारा ही हम व्यवस्थित जीवन व्यतीत करते हैं, जो कि व्यवस्थित समाज के निर्माण में सहायक होता है जिससे राष्ट्र की उन्नति सम्भव है। जो राष्ट्र अनुशासित होगा वही उन्नति के शिखर पर पहुँच सकता है अन्यथा वह नष्ट हो जायेगा। इसीलिए दीक्षा (संकल्प) को पृथिवी (राष्ट्र) का धारक तत्व स्वीकार किया गया है। तप का अर्थ है नियमित संयम पूर्वक जीवन व्यतीत करना। अर्थात् निर्धारित कर्तव्य को सम्यक रूप से पूर्ण करना। इसे हम समर्पण भी कह सकते है। इस भावना को त्याग एवं तप आदि शब्दों से अभिहित किया जाता है। राष्ट्र निर्माण में त्याग एवं तप दोनों ही महत्वपूर्ण है। सृष्टि में जो कुछ भी विद्यमान है वह सभी के लिए है ऐसा सोचकर त्याग पूर्वक उसका उपभोग करना चाहिए जिससे संसार निर्बाध रूप से चलता रहे। त्याग एवं तप उन्नति एवं प्रगति के लिए आवश्यक है। इसलिए तप को पृथिवी (राष्ट्र) के धारक तत्व में स्वीकार करते हैं। पृथिवी के धारक तत्वों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है ब्रह्म अर्थात् ज्ञान और आस्तिकता। ज्ञान से मनुष्य को उचित एवं अनुचित का विवेक होता है जिससे उसे संसार में विद्यमान समस्त जीवों में सर्वाधिक बुद्धिमान मानते हैं। ज्ञान के ही होने से मानव जीवन के उद्देश्य का निर्धारण कर पाता है। ज्ञान के अभाव में मनुष्य एवं पशु में कोई अन्तर नहीं होगा। ज्ञान से मनुष्य जीवन के पुरूषार्थ चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) को पूर्ण करता है एवं इस नश्वर संसार से ऊपर उठकर आवागमन के चक्र को पार करता है, जिसे मोक्ष कहते हैं। आस्तिकता से तात्पर्य है संसार का निर्माण करने वाली परमसत्ता को स्वीकार करना। हमारे वेद हमें इस विषय का बोध कराते हैं। यह परमसत्ता ही है जिसे हम परमात्मा, ईश्वर, आत्मा आदि कहते हैं। परमात्मा को मानने वाला व्यक्ति यदि कभी निराश भी होता है तो उसे यह आशा होती है कि ईश्वर हैं एवं वह उसके लिए कुछ अच्छा करेंगे। इस परमशक्ति के भय से ही मनुष्य पाप एवं दुर्गुणों से स्वयं को दूर रखता है, एवं जीवन को परिष्कृत करता है। इससे मनुष्य जीवन में आत्मशक्ति एवं इच्छाशक्ति प्राप्त करता है एवं असम्भव कार्य को सम्भव करता है जिससे उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। यह राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यज्ञ से तात्पर्य केवल हवन से नहीं है, अपितु यह सृष्टि निर्माण की संक्षिप्त प्रक्रिया है। यज्ञ स्वार्थ के लिए न होकर परार्थ के लिए होता है। यज्ञ करने से वातावरण शुद्ध होता है, जिससे हमारा जीवन स्वस्थ होता है। यज्ञ एकता का सूचक है। सामूहिक कार्य यज्ञ की श्रेणी में आते हैं। यज्ञ को पर्यावरण शोधन का सर्वोत्तम उपाय मानते हैं। यज्ञ में हवि के रूप में अग्नि में डाली जाने वाली सामग्री में रोगनाशक तत्व होते हैं, जिनसे वातावरण शुद्ध होता है। यज्ञ के धूम से बादलों का निर्माण होता है, जिससे वर्षा होती है, जो कृषि कार्य के लिए सहायक होती है। अतएव यज्ञ का महत्वपूर्ण स्थान है राष्ट्र निर्माण में। ये छः जो पृथ्वी (राष्ट्र) के धारक तत्व बनाये गये है हमें इनका पालन करना चाहिए जिससे हम उत्तम राष्ट्र का निर्माण कर सकें जिससे हमारा जीवन सुचारू रूप से चल सके। यजुर्वेद के दसवें अध्याय में पृथिवी को माता के सदृश मानकर उसकी रक्षा का उल्लेख है -

पृथिवी मातर्मा मा हिंसी,7 मो अहं त्वाम्।

अथर्ववेद के बारहवें काण्ड के प्रथम सूक्त को भूमिसूक्त की संज्ञा प्राप्त है। इसमें 63 मंत्रों में पृथिवी के प्रति दायित्व, राष्ट्र के प्रति समर्पण, बलिदान आदि के भाव का वर्णन हैं। पृथिवी को हम माता मानते हैं - माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।8 इस उदात्त भाव से राष्ट्र भक्ति एवं विश्वबन्धुत्व की भावना ज्ञात होती है। पृथिवी को माता मानने से माता पुत्र की रक्षा करती है एवं पुत्र माता के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है। यह उदात्त राष्ट्रीय भाव राष्ट्र का कल्याण करता है। पृथिवी विविध धर्म और विविध भाषा वाले मनुष्यों को इस प्रकार धारण करती है, जैसे एक परिवार हो। वह हमें अनेकों प्रकार से लाभ पहुँचाती है एवं हमारा पालन करती है -

जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं,9 नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्।
सहस्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां, ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरन्ती॥

अर्थात् राष्ट्र के सभी व्यक्ति, चाहें वह किसी भी भाषा को बोलने वाले हों, सभी एक परिवार के सदस्य है। जब ऐसी उदात्त भावना प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में होगी तो उस राष्ट्र का कल्याण अवश्य ही होगा। राष्ट्र कल्याण के लिए यह अति आवश्यक है कि मनुष्यों में सहिष्णुता, सामंजस्य प्रेम एवं एकता हो, जैसे कि एक परिवार के प्रत्येक सदस्यों में परस्पर होता है। हम जो भी बोलें मधुर एवं प्रिय बोलें एवं दूसरों के प्रति प्रेम की भावना से देखें -

यद् वदामि मधुमत् तद् वदामि।10
यदीक्षे तद् वनन्ति मा॥

कटु वाणी से विवाद होता है जिससे लोगों में परस्पर वैर की भावना उत्पन्न होती है, जिसका प्रभाव समाज पर पड़ता है तथा राष्ट्रीय एकता को क्षति होती है। अतएव राष्ट्र कल्याण के लिए परस्पर प्रेमपूर्ण व्यवहार होना चाहिए। हमें सदैव राष्ट्र रक्षा के लिए तैयार रहना चाहिए एवं शत्रुओं का विनाश करना चाहिए।11 राष्ट्रीय सुरक्षा अत्यावश्यक है, यदि राष्ट्र की सुरक्षा भली-भांति न हो तो राष्ट्र परतंत्र हो सकता है। यजुर्वेद में उल्लेख है कि हमें राष्ट्र रक्षा में सदैव जागरूक रहना चाहिए- वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः॥12 अर्थात् राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता जितनी आवश्यक है, उतनी ही आवश्यक राष्ट्रीय सुरक्षा है। राष्ट्र-कल्याण के लिए सत्य आधारशिला है। जहाँ सत्य, ईमानदारी, परस्पर विश्वास की भावना है, वह राष्ट्र सदैव उन्नति की ओर अग्रसर होता है।13 जहाँ सत्य का अभाव है वहाँ अवनति और विनाश है। वास्तव में समाज में जो भी भ्रष्टाचार, भय, अपराध आदि विद्यमान है उसका मूल असत्य भाषण ही है। जहाँ सत्य एवं प्रियभाषी राष्ट्र एवं समाज होता है वहाँ सदैव कल्याण एवं सुख-शान्ति रहती है।14 वह राष्ट्र जिसकी व्यवस्था अच्छी होती है भूमि उस राष्ट्र को तेजस्वी बनाती है। जहाँ लोग परिश्रमी एवं सदाचारी होते हैं उस राष्ट्र की भूमि सभी प्रकार की अन्नसमृद्धि, तेजस्विता एवं सौभाग्य प्रदान करती है- 

सा नो भूमिर्भूरिधारा पायो दुहाम्,15 अथो उक्षतु वर्चसा॥

राष्ट्र के संचालन के लिए सभा एवं समिति का निर्देश दिया गया है। सभा ग्राम या छोटे नगरों तक ही सीमित थी। इसका कार्य स्थानीय विवादों को निपटाना और स्वच्छता आदि की व्यवस्था करना, अपराधियों को दण्ड देना, खेत आदि के मुकदमों को निबटाना, ग्रामों की अर्थव्यवस्था को ठीक करना। यह एक प्रकार से प्राचीन ग्राम पंचायत थी। समिति केन्द्रीय सभा थी। यह केन्द्र की व्यवस्था सँभालती थी, पूरे राष्ट्र का संचालन यह करती थी। इसी के अधिकार क्षेत्र में राजा का निर्वाचन, अयोग्य सिद्ध होने पर राजा को गद्दी से उतारना, न्याय एवं दण्ड की व्यवस्था एवं आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाना था। यह संसद के तुल्य थी, इसका नियंत्रण पूरे देश पर था। सभा एवं समितियों में योग्य वक्ता को महत्व प्राप्त था - याः सभा अधिभूम्याम्,16 ये संग्रामा समितयस्तेषु चारू वदेम। अर्थात् जो उत्तम वक्ता होगा, वह अपनी बातों को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त कर सकेगा। अपने क्षेत्र की समस्याओं को उत्तम ढंग से व्यक्त कर उनका भली प्रकार निराकरण प्राप्त कर सकेगा। वेदों में पंचजन का उल्लेख है, इन्हें विशेष यज्ञों में आमंत्रित किया जाता था- तवेमे पृथिवि पंचमानवाः।17 पंचजन से तात्पर्य है- चारों दिशाओं एवं केन्द्र के सभी व्यक्ति, अर्थात् सम्पूर्ण प्रजा। पंचजन के संरक्षण को महत्वपूर्ण बताया गया है।18 ऋग्वेद में स्वराज्य की प्रशंसा की गई है एवं कहा गया है देश में जो अपराधी एवं पापी हैं, उन्हें नष्ट कर दो एवं उनके लिए कठोर उपाय भी करने पड़ें तो करो।19 स्वराज से राष्ट्र यशस्वी होता है। इसको सभी देवताओं का प्रेम प्राप्त होता है, अतएव किसी भी प्रकार स्वराज्य को नष्ट नहीं होने देना चाहिए -

अस्य हि स्वयशस्तरं, सवितु कच्चनप्रियम्।20
न मिनन्ति स्वराज्यम्।

स्वराज्य बड़े संगठनों द्वारा ही प्राप्त होता है अतः स्वराज्य का अधिक से अधिक विस्तार होना चाहिए।21 उपर्युक्त दृष्टान्तों के विवेचन से स्पष्ट है कि हमारे वैदिक वाङमय में राष्ट्र के प्रति अत्यन्त उदात्त एवं सुदृढ़ भावना वर्णित है। इनका व्यापक प्रचार प्रसार एवं अनुकरण करके हम अपने देश को सुदृढ़ बना सकते हैं। हमारे देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, अन्धविश्वास, रूढ़ियों, तथा अन्य अनेक दोषों से मुक्ति पा सकते हैं।

रामकेश्वर तिवारी (वरिष्ठ अनुसन्धाता) 
व्याकरण विभाग, सं. वि. ध. वि. संकाय
का. हि. वि. वि., वाराणसी

संदर्भ सूची:

1. यजुर्वेद - 10/3
2. वही - 10/4
3. वही - 10/4
4. वही - 22/22
5. वही - 18/48
6. अथर्व- 12/1/1
7. यजु0 - 10/23
8. अथर्व0 - 12/1/12
9. अथर्ववेद - 12/1/45
10. वही - 12/1/58
11. अथर्ववेद - 1/29/4
12. चजुर्वेद- 9/23
13. अथर्ववेद- 13/1/20
14. अर्थववेद 13/1/1
15 . वही - 12/1/9
16 . अथर्वदेव 12/1/56
17 . वही 12/1/15
18 . ऋग्वेद - 10/53/4, 5/35/2
19 . वही - 1/80/1
20 . वही - 5/82/2 
21 . ऋग्वेद- 5/66/6

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