आँख

गोलेन्द्र पटेल (अंक: 183, जून द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

1.
सिर्फ़ और सिर्फ़ 
देखने के लिए नहीं होती है आँख
फिर भी देखो तो ऐसे 
जैसे देखता है कोई रचनाकार
2.
दृष्टि होती है तो 
उसकी अपनी दुनिया भी होती है
जब भी दिखते हैं तारे दिन में, 
वह गुनगुनाती है आशा-गीत
3.
दोपहरी में रेगिस्तानी राहों पर 
दौड़ती हैं प्यासी नज़रें
पुरवाई पछुआ से पूछती है — 
ऐसा क्यों?
4.
धूल-धक्कड़ के बवंडर में 
बचानी है आँख
वक़्त पर 
धूपिया चश्मा लेना अच्छा होगा
यही कहेगी हर अनुभव भरी, पकी उम्र
5.
आम आँखों की तरह 
नहीं होती है दिल्ली की आँख
वह बिल्ली की तरह होती है 
हर आँख का रास्ता काटती
6.
अलग-अलग आँखों के लिए अलग-अलग
परिभाषाएँ हैं देखने की क्रिया की
कभी आँखें नीचे होती हैं, कभी ऊपर
कभी सफ़ेद होती हैं तो कभी लाल!

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