ये तस्वीर बनी कैनवस पे

01-10-2022

ये तस्वीर बनी कैनवस पे

विवेक (अंक: 214, अक्टूबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

ये तस्वीर बनी कैनवस पे, 
अधूरी-सी कुछ, कुछ है पूरी, 
रंगों ने, कुछ काले पीले धब्बों ने, 
कोई कहानी-सी कही है छुपी-सी
काश, 
कि साथ में स्वर भी उतर आते 
इस ख़ामोश काग़ज पर 
कोई धुन भी बजती कहीं गुम, 
कहीं खोयी सी . . . 
 
सिर्फ़ महसूस हो सकते 
उन अहसासों की गर्मी भी 
उकर पाती अगर, 
मन में उमड़ते आपस में ही लड़ते— 
विचारों की परछाईं है
 
जाने कौन से कोने में छिपी 
बचपन की कौन सी है ये याद जो 
इस तस्वीर में उतर आई है
साथ में लायी है 
वो जाड़े की धूप और अदरक वाली चाय
 
वो पहाड़ में पड़ी 
ताज़ा बर्फ़ का अहसास हवाओं में है 
वो सग्गड़ की गर्मी के लिए 
ठंडी रजाई में काँपते पैर भी हैं
ताज़े दही और चकोतरे की खटास है 
तो गर्म दूध की मिठास भी
वो नानी की राजा रानी की कहानियाँ हैं 
तो पेड़ों पे इक्कट्ठे हुए पंछियों का शोर भी
 
गरमपानी के आलू और रायते में 
घुलती वो चीड़ की महक
वो अनगिनत मोड़ जो— 
जाने कितनी बार देखे पर हर बार नए लगे हैं
वो कोहरे को चेहरे पर 
महसूस करते हुई बालों से गिरती बूँदें
 
शायद इसीलिए अधूरी-सी है तस्वीर, 
कि कैसे ले आयें 
एक छोटे से काग़ज़ पे इन सब को उतार, 
 
पर फिर भी पूरी है मानो 
किसी माला का एक सिरा हो 
जो अनगिनत सीपियों को बाँधा हो . . . 
और हर एक सीप में 
अनमोल सी कोई तस्वीर बंद हो— 
जैसे हो मोती
कभी उस पतली-सी 
घूमती हुई पगडण्डी को 
इस कैनवस पर ले आऊँगा
 
या उस आम के पेड़ पे 
बीते बचपन को रंगों से बना पाऊँगा
या शायद उन चार दोस्तों की मस्ती 
इस छोटे से काग़ज़ में समझा पाऊँगा
 
उस छोटे से घर की स्मृति में 
इतने सालों का सामान है, 
वो हर कोने में छुपी हँसी 
और आँसुओं को कैसे 
समेट कर बताऊँगा
 
ये तस्वीर बनी कैनवस पे, 
अधूरी सी, 
लगती फिर भी पूरी है . . .।

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