यह पल

देवेन्द्र कुमार मिश्र (अंक: 201, मार्च द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

सुबह सवरे
पहाड़ों की ओट से
अँगड़ाई लेता
उनींदा सूरज
नहीं दिखता
निराश और मायूस
 
उस तपन
और जलन की
पीड़ा से
जिसमें वह
झुलसता रहता है
पल हर पल
दिन हर दिन
अनंत काल से
 
अलसाई भिनसार में
ओसकण से
भीगी कलिका
सूरज की कोमल
किरणों को छूकर
होती पुलकित
प्रफुल्लित
 
जानकर
अनजान बनती
कि
ये किरणें
चिचिलाती धूप बन
उसे जलाती हैं
 
वह जानती है
यह क्षण
यह पल
जिसे वह जी रही है
अभी-अभी
 
फिर कभी
नहीं
लौटने के लिए
चला जाएगा
भूतकाल की
अतल गहराइयों की
ख़ामोशी में . . . 
 
और मैं
पुरातत्ववेत्ता
विक्षिप्त सा
छानता फिरता
भग्नावशेष
अपनी स्मृतियों का
जहाँ छिपा पड़ा है
इतिहास
आदम की
कराहों का . . . 

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