वक़्त बदला है, भावनाएँ नहीं

01-12-2021

वक़्त बदला है, भावनाएँ नहीं

विनीता मोटलानी (अंक: 194, दिसंबर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

कई बार लोगों से यह कहने सुनने को मिलता है कि युवा पीढ़ी में पहले की तरह भावनाएँ नहीं रही हैं। यह पीढ़ी बहुत ही तार्किक और प्रायोगिक हो रही है। परंतु पिछले दिनों जो कुछ भी देखने सुनने में आया उसने इस धारणा को निर्मूल साबित किया। 

हुआ यूँ कि अष्टमी पूजन था। मुझे नौ कन्याओं को बुलाना था। इसलिए मैंने अपनी बेटी को कन्याओं को बुलाने भेजा। समीप ही रहने वाले चौकीदार की चारों बेटियों को और दूसरी कन्याओं को बुलाकर कुल नौ कन्याओं को कन्या भोज करवाना था। बिटिया जब आई तो नौ कन्याओं के साथ चौकीदार का छोटा बेटा भी था, जो उसे चार कन्याओं के बाद हुआ था। 

मैंने बिटिया से कहा, "सभी कन्याओं को एक साथ आसन पर बिठा दो।"

बेटी ने सभी कन्याओं को आसन पर बिठाया। इसके साथ ही एक दूसरा आसन रखकर उस बच्चे को भी बिठाया। 

मैंने आपत्ति जताते हुए कहा, "कन्या भोज में इस बच्चे को क्यों बिठा रही हो?"

इस पर वह बोली, "माँ, बच्चे तो सभी भगवान का रूप होते हैं ना! जब मैं इन बच्चियों को लेने गई तब यह बिलख-बिलख रो रहा था और बहनों के साथ आने की ज़िद कर रहा था। इसलिए मुझसे देखा नहीं गया और मैं इसे भी ले आई। अगर हमने इसे भी एक थाली परोस दी तो क्या ग़लत हुआ?"

उसका तर्क सुनकर मुझे भी लगा बात तो सही है; अगर मैंने इन कन्याओं के साथ इस बच्चे को भी कुछ खिला दिया तो यह पुण्य की ही बात है। इसमें कोई अंधविश्वास या ग़लत नहीं माना जाना चाहिए और मैंने शांति पूर्वक उस बच्चे को भी थाली में खाना परोस दिया। जो कन्याओं को भोज के लिए दिया था। 

सभी खाकर संतुष्ट होकर जब चले गए तो मैं मन ही मन में सोचने लगी हम आज की युवा पीढ़ी को दोषी तो मानते हैं पर वह कहाँ ग़लत है? बस वह लकीर की फ़क़ीर नहीं बन रही है यही तो है। बाक़ी तो कुछ भी ग़लत नहीं है। 

इसी तरह का एक और दूसरा उदाहरण जब देखने को मिला मन में यक़ीन हो गया नहीं, युवा पीढ़ी ग़लत नहीं है बस वह जस का तस चीज़ों को स्वीकारने के बजाय अपनी विवेक शक्ति और तर्कशक्ति के आधार पर सब कुछ अपनाना चाहती है और यह सही है। 

हुआ यूँ मेरी एक परिचिता के बेटे का इंटरव्यू था। वह ज्यों ही घर से निकलने लगा तभी एक बिल्ली रास्ता काट गई। चूँकि उसके इंटरव्यू का टाइम भी होने वाला था सो वह बहुत जल्दी में था। 

माँ बोली बेटा, "थोड़ा रुक कर चले जाओ।"

वह शायद किसी अनिष्ट की आशंका से घबरा रही थी। 

नौजवान बोला, "नहीं, माँ मुझे समय पर पहुँचना ही होगा।" 

इस तरह वह नौजवान पूर्ण आत्मविश्वास के साथ इंटरव्यू में गया और सफल होकर भी आया। यहाँ माँ मन में निर्मूल आशंका पाल कर बैठी थी और इंतज़ार कर रही थी कि कहीं उसके साथ कुछ अनहोनी तो नहीं हुई। 

जब उसने आकर बताया कि वह इंटरव्यू में सफल हुआ है। उसका चयन भी हो गया है। तब माँ को अपनी ही सोच पर शर्मिंदगी महसूस होने लगी। घर के बाक़ी लोग भी सोचने लगे कि अगर हम इसे रोक लेते तो हो सकता था कि इसका इंटरव्यू में चयन नहीं होता।

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