व्यंग्य से विचारोत्तेजक पहल: ‘सर क्यों दाँत फाड़ रहा है’

01-12-2023

व्यंग्य से विचारोत्तेजक पहल: ‘सर क्यों दाँत फाड़ रहा है’

आर पी तोमर (अंक: 242, दिसंबर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

पुस्तक: ‘सर क्यों दाँत फाड़ रहा है’ (तृतीय संस्करण 2020) 
लेखक: धर्मपाल महेंद्र जैन
प्रकाशक: किताबगंज प्रकाशन, सवाई माधोपुर, राजस्थान
मूल्य: ₹200/-

व्यंग्यकार धर्मपाल महेंद्र जैन विविध विचारधाराओं की जकड़बंदी से ग्रस्त वातावरण में शुद्ध साहित्यिक दृष्टि से लिखने वाले ऐसे रचनाकार हैं, जिनकी अवधारणाएँ समाज व सर्वहित के प्रति ही लक्षित व समर्पित हैं। बाहर का कोई दर्शन, विचारधारा, विषय या आग्रह उनकी लेखनी को किसी प्रकार आक्रांत नहीं कर पाया। वे व्यंग्य रचना को किसी विचार, दर्शन, या मनोरंजन तक सीमित नहीं मानते ये पथ या पाथेय हो सकते हैं, किन्तु ध्येय नहीं होते। अंततः ध्येय तो लोक मंगल है। 

मनुष्य जीवन भर अपनी केंचुल में बँधा-बँधा विराट सृष्टि से अपना राग और सम्बन्ध भूल जाता है और आत्म सीमित हो जाता है। व्यंग्य रचना उसके टूटे हुए सम्बन्ध को जोड़ती है और उसे विराट दृष्टि से जोड़कर मुक्त आत्मा बनाती है। व्यंग्य रचना व कविता एक तरह का भावयोग है। व्यंग्य रचनाएँ संवेदना-मृत लोगों में अनुभूति जगाकर उन्हें मनुष्यता की ओर लौटाती हैं। धर्मपाल महेंद्र जैन देश की पत्ती-पत्ती से, पेड़ पौधों से, बंदर, बिल्ली, कुत्तों से, सामान्य से सामान्य प्राणी से भली-भाँति परिचित हैं। इसलिए वे उनकी वेदना को गहराई में जाकर उजागर करते हैं। वे सभ्यता व व्यवस्था के लबादे को चीरकर उनसे उन मूल्यों को निकाल लाते हैं, जिनसे आमजन पीड़ित हैं। 

मेरे द्वारा धर्मपाल जी की यह पहली किताब बाद में पढ़ी गयी, मैं इससे पहले उनकी अन्य पुस्तकें पढ़ चुका हूँ। पढ़ी गई उनकी व्यंग्य रचनाओं में जो पाया गया है वह सब कुछ अलग और छाप छोड़ने वाला व्यंग्य है। रचना को हेतु बनाते हुए वे वैचारिकी में कोई भ्रम पैदा नहीं होने देते हैं। ‘सर क्यों दाँत फाड़ रहा है’ में पक्षधरता से व्यंग्य में प्रखरता साफ़ झलकती है। मेरा मानना है कि वे अपनी पहली ही पुस्तक में व्यंग्य लिखते हुए सामान्य सीमाओं से परे जाकर गहराई में चले गए हैं। व्यंग्य से पगे वाक्यों की झड़ी लगाने में उनका कोई सानी नज़र नहीं आया है। 1984 की अपनी पहली ही कृति में ‘पूत के पाँव पालने में दिखने’ जैसी कहावत को उन्होंने चरितार्थ कर दिया है। टेलीफोन क्रांति को छोड़ कर उन्नीस सौ अस्सी-नब्बे के काल में मौजूद विसंगतियाँ चालीस वर्षों बाद भी मुखर दिखती हैं। 

हास्य-व्यंग्य संकलन ‘सर क्यों दाँत फाड़ रहा है’ की पहली ही रचना पुस्तक के शीर्षक पर है। जिसमें पुलिस की कार्यप्रणाली का बख़ूबी वर्णन करते हुए असलियत बताई गई है। वे कहते हैं कि पुलिस वालों को पुलिस वाले ही डंडे मार रहे हैं और जनता देख रही है, अख़बार छाप रहे हैं, सरकार चटखारे ले रही है। अभी तक पुलिस वाले रिश्वत खाते थे, अब बलात्कार भी करने लगे हैं। अब ज़िन्दा आदमी भी जलाने लगे हैं। पहले वकीलों संग आँख लड़ाते थे, अब हाथ-पाँव लड़ाने लगे हैं। अब ख़ुद को ईदी अमीन और गृहमंत्री समझने लगे हैं। वे बिना वर्दी के ताबूत लगते हैं। लोग पुलिस को मौक़े की तलाश में रहने वाला चलता पुर्जा कहते हैं। पुलिस भौंकने लगी है, शराब, गाँजा, भाँग, अफ़ीम, चरस की हल्की सी गंध इनके दिमाग़ का ज़ीरो बल्ब प्रज्वलित कर देती है। अबला नारी को देख ये पुरुषार्थी बन जाते हैं। क़ानून व्यवस्था को यह आचार मुरब्बा मानते हैं। नटवरलाल जेल से भाग रहे हैं। डाकू थाना लूट रहे हैं और पुलिस नारे लगा रही है। सिपाही थानेदार के लिए, थानेदार डीएसपी के लिए रिश्वत लेता है और एसपी को भगवान मानकर उन पर पैसा रूपी नैवेद्य चढ़ाया जाता है। क्यों बे भाई साहब इनकी सभ्य भाषा है। सर क्यों दाँत फाड़ रहा है बोलना इनकी तहज़ीब है। इसलिए कहते हैं श्रीमान को दो झापड़ देंगे तो बत्तीसी बाहर आ जायेगी। 

‘हवाई अड्डा लाना है’ रचना में धर्मपाल महेंद्र जैन ने नेताजी किस तरह से जनता को बेवुक़ूफ़ बनाते हैं, वह अपने फ़ाइनेंसरों को कैसे ख़ुश करते हैं इस पर सटीक व्यंग्य है। ‘एक अदद तत्त्व’ रचना में गुंडा तत्त्वों की महिमा बताते हुए लेखक कहते हैं—गुंडा तत्त्व शहरों में भारी व गाँव में कम तादाद में है। भारत में भौतिक व रासायनिक दोनों गुणों वाले गुंडा तत्त्वों के भंडार हैं। वे दर्शन के छह तत्त्व बराबर विज्ञान के एक सौ अट्ठारह बताते हुए कहते हैं—पानी, ऑक्सीजन व हाइड्रोजन से बना है। पृथ्वी लोहा, तांबा, सोना-चाँदी आदि धातु व अन्य तत्त्वों से अटी पड़ी है। गुंडों को हीरा बताते हुए धर्मपाल जैन ने गर्म लोहे पर हथौड़े वाली चोट की है। ‘साहब के दस्तख़त’ में कटाक्ष करते हुए सही ही कहा गया है कि साहब को सारे गुर उनके अधीनस्थ सिखाते हैं। वह उनकी विदाई पर कहते हैं-साहब के दस्तख़त देखकर हमें ख़ुशी होती है और होगी भी क्यों नहीं, जब हमने उन्हें दस्तख़त करने सिखाए और क़ाबिल बनाया है। 

‘खेल मंत्री उवाच’ में बहुत ही सटीक कटाक्ष किया गया है। मंत्री जी के भाषण के माध्यम से कहा गया है कि देशी-विदेशी तकनीकी और ज्ञान से “मेड इन इंडिया” खेल और खिलाड़ी दोनों में आत्मनिर्भर हो जाएगा। इसी बहाने विदेश भ्रमण की योजना बना देते हैं। मंत्री कहते हैं कि हम तृतीय विश्व के देश हैं। क्योंकि हमारे यहाँ अधिकांश आबादी को पोषक आहार नहीं मिलता। इसलिए बिना दमख़म वाले ज़्यादा से ज़्यादा खिलाड़ियों वाले खेल तलाशने होंगे। ‘उधार वर्ष मनाना है’ में व्यंग्यात्मक तरीक़े से बताया गया है कि देश जाए भाड़ में उन्हें तो अपने मज़े से मतलब है। कहा गया है कि उधार से ही सब कुछ चलता है। इस पर व्यंग्य करते हुए धर्मपाल कहते हैं—उधार से देश भले ही दिवालिया हो जाए लेकिन सरकार ख़ुद अमन चैन से जीती है। जनता को भी शान से जीने देती है और अगला चुनाव जीत जाती है। व्यंग्यकार ने उधारी को भारत का राष्ट्रीय चरित्र बताते हुए कहा है—भगवान भरोसे सरकार और रामभरोसे देश चलता है। वहीं व्यंग्यात्मक तरीक़े से उधार को ही विकास का रास्ता बताया गया है और दुनिया के हर व्यक्ति की समस्याओं का एकमात्र हल। वे भारत में दलाली पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि देश की बात करके कोयले की दलाली में काले हाथ नहीं करूँगा। आपने एक साल महिला वर्ष मनाया, एक साल बाल वर्ष, विकलांग वर्ष मनाया। क्यों न अगला वर्ष उधार वर्ष मनाएँ? हमें देवऋण, और पितृऋण पैदा होते ही मिल जाते हैं फिर भी भारत के सत्तर प्रतिशत लोग ग़रीब हैं। सब लोगों को जी भरकर पैसा मिल जाये तो दुनिया की तक़दीर ही बदल जाए। ‘जा तुझको जमी दुकान मिले’ में अवैध कमाई पर व्यंग्य है तो ‘टेलीफोन लीला’ में व्यंग्य करते हुए सच्चाई बयान की गई है कि कैसे लैंडलाइन फोन के ज़माने में विभाग उपभोक्ताओं का ख़ून चूसता था। धर्मपाल महेंद्र जैन ने ‘टेलीफोन लीला’ का तत्कालीन सही ख़ाका खींचा है। 

किसानों को किस तरह से राजनीति ने जकड़ लिया है। वह खेती-बाड़ी छोड़कर त्वरित सुख में ही खो जाता है। इस पर ‘चलो साफ़ा भी मिलेगा’ में चित्रण करते हुए कहा गया है मैं ना किसान बन सका ना नेक आदमी ही रहा। बस दुःख सालता रहा। ‘ब्रीफ़केस प्रसंग’ में अंत में दी गई इन लाइनों, “ब्रीफ, सूट दोऊ पड़े, काके लेंऊ उठाए। बलिहारी गुरु आपने, ब्रीफ़केस दियो बताए” में ही सब कुछ समेट दिया है। ‘कंडक्टर लिपि’, ‘नदी लाओ समिति’, ‘महंगाई बाला का स्वयंवर’ आदि ग़ौरतलब व्यंग्य हैं। ‘आख़िरी तारीख़ का इंतजार’ नामक रचना में कहा गया है कि सरकारी तंत्र की आख़िरी तारीख़ मार्च के इकत्तीसवें दिन आती है। सभी सरकारी कर्मचारियों में उस दिन ग्लूकोज चढ़ जाता है। चार-छह दिन में सारे साल की ख़रीद-फ़रोख़्त हो जाती है और आटे-दाल का वार्षिक गणित हल हो जाता है। शेष सारे साल चाय-पानी की फ़िक्र में बंधुवर कुर्सियों को जलाऊ लकड़ी बनाते रहते हैं। यह ऐसी रचना हैं, जिसे भुलाया नहीं जा सकता। रचना में सरकारी धन की बंदर बाँट का ख़ाका खींचा गया है। 

‘फ़ाइल इतनी दीजिए’ कृति में रचनाकार धर्मपाल महेंद्र जैन ने बिना डर के दफ़्तरों की भ्रष्ट व्यवस्था की प्रक्रिया का ख़ाका खींचा है। लिखा है—आजकल दफ़्तरों में फ़ाइलें गुम हो जाना सामान्य बात हो गई है। इनके भी बाबुओं की तरह से पर निकल गए हैं। फ़ाइलें सर्वव्यापी सत्य हैं। वह अमेरिका में भी है और बरेली में भी। फ़ाइल त्रिलोकी है, ज़मीन, अंतरिक्ष और सागर पर भी। फ़ाइलें त्रिकालदर्शी तो हैं ही। भूतकाल की फ़ाइलें इतिहास लिखने वालों के संदर्भ ग्रंथ हैं तो भविष्यकाल की फ़ाइलें अफ़रा-तफ़री करने की वृहत योजनाएँ हैं। फ़ाइलें बेखटके प्रधानमंत्री की तरह इधर से उधर दौड़ती हैं। फ़ाइल रुकी काम अटका। साम्यवाद, पूँजीवाद, समाजवाद व चमचावाद सभी व्यवस्थाएँ फ़ाइलवाद के सामने नतमस्तक हैं। फ़ाइलें बाबू का भत्ता है, अफ़सर की सत्ता है, राज्य सरकार के तख़्ते का हत्था है। फ़ाइल का लाल फीता प्रशासन की जान है, इसलिए लालफीताशाही सरकार का नाम है। इसलिए कहा गया है—फ़ाइल इतनी दीजिए जामे कुटुंब समाए। मैं भी भूखा न रहूँ बॉस न भूखा जाए। 

‘प्रवेश चालू है’ में सरकारी स्कूलों की दुर्दशा और शिक्षकों पर काम का बोझ तथा सरकारी लक्ष्य की प्राप्ति से खिलते प्राचार्य के चेहरे का सही चित्रण किया गया है। वहीं पूरी व्यवस्था पर गहरी चोट भी की गई है। आदमी के बच्चे नामक रचना में व्यंग्य को मनुष्यों पर केंद्रित किया है—लिखा है कि मनुष्य शान्ति से नहीं रह सके, इसलिए हम दानवों की तरह कुछ दुष्ट आदमी बनाएँगे। वे बच्चों को उड़ाएँगे। उनकी ख़रीद-फ़रोख़्त करेंगे। उनको लूला-लंगड़ा, अंधा कर देंगे और उनसे भीख मँगवाएँगे। चोरी करना सिखाएँगे। इसलिए आदमी हमेशा परेशान रहेगा ख़ुद के ही बच्चों से। सदन में तालियों की गड़गड़ाहट से इस प्रस्ताव का स्वागत किया। बहस के बाद अंततः ‘आदमी के बच्चे’ प्रस्ताव पास हो गया। ‘डाका डालने की क्या ज़रूरत है’ में बैंकों की हालत गाँव में छाछ निकालने वालों जैसी बताई गई है। छाछ खट्टी, मीठी कैसी भी हो बस मिलनी चाहिए। बैंकों से उसी तरह से लोन व ख़ैरात बँट रही है। सरकार की योजनाओं में पहले काल में सर्वे, दूसरे में स्वीकृति, तीसरे में ख़ुदाई, चौथे में भराई और पाँचवें में मिट्टी दबाई से व्यवस्थाओं की पोल-पट्टी खोलकर रख दी गई है। 

धर्मपाल महेंद्र जैन की पहली ही व्यंग्य रचना ‘सर क्यों दाँत फाड़ रहा है’ का शीर्षक जब मैंने देखा तो मुझे बड़ा अजीब-सा लगा था, एकबारगी ऐसा भी लगा कि शायद प्रूफ़ रीडिंग में ग़लती रह गई है, क्योंकि एक तरफ़ ‘सर’ कहा गया है तो दूसरी तरफ़ ‘दाँत फाड़ रहा है’। यदि सर कहा है तो ‘रहा है’ कि जगह ‘रहे हैं’ सम्मानजनक और सही होता। इसी कशमकश में पुस्तक पढ़ने की लालसा हुई। असंगत व्याकरण से व्यंग्य भाषा बनाना व्यंग्यकार का कौशल है। पुस्तक पढ़कर लगा कि इस पुस्तक रचना के लिए इससे अच्छा शीर्षक कोई अन्य नहीं हो सकता था। ज़िन्दगी दो-चार दिन या शतायु बनी रहे, मन में प्रसन्नता रहे और ज़िन्दगी बढ़ती रहे, ‘सर क्यों दाँत फाड़ रहा है’ व्यंग्य संकलन एक बार पढ़ते ही आत्मा में ऐसे घुल गया कि मैं स्वयं भी यदा-कदा उन्हें मन ही मन दोहराने लगता हूँ। गुरुजनों ने सही कहा है कि सारा जीवन ही एक पाठशाला है। इसके हर क्षण में एक न एक सीख समाई हुई है। बस हमें सीखना आना चाहिए। वैसे तो वरिष्ठ साहित्यकार हरिशंकर परसाई जी ने छह लाइन की अपनी भूमिका में इस तरह से ‘सर क्यों दाँत फाड़ रहा है’ का पूरा सार कह दिया है कि उससे आगे कुछ भी लिखने को बाक़ी नहीं रहता है। उन्होंने उसी तरह से लिखा है जिस तरह से किसी ने रामायण को दो लाइन में समेटते हुए कहा था, “एक था राम, एक था रावड़ा, उसने चुरा ली उसकी सीता और उसने फूँक दिया उसका गाँवड़ा।” इसी तरह से परसाई जी कहते हैं . . . “जरूरी नहीं कि व्यंग्य में हँसी आए। यदि व्यंग्य चेतना को झकझोर देता है, विद्रूप को सामने खड़ा कर देता है, आत्म साक्षात्कार करता है, व्यवस्था की सड़ाँध को इंगित करता है और परिवर्तन के लिए प्रेरित करता है तो वह सफल व्यंग्य है।” तीसरे संस्करण के लिए अपनी बात लिखते हुए लेखक का यह चिंतन सही है कि मानवीय प्रगति के साथ ये विषमताएँ और विद्रूपताएँ क्षीण होने और समाज के बेहतर होने की उम्मीद प्रगतिशील भारत में की जा सकती थी। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हुआ नहीं है। इक्कतीस निबंधों के माध्यम से दर्ज प्रतिरोध में से केवल टेलीफोन लीला की कठिनाइयों से समाज मुक्त हुआ है। जो मोबाइल बनकर जीवन का सुखद अभिन्न अंग हो गया है। शेष आज भी ज्वलंत हैं, प्रासंगिक हैं। 

हालाँकि परसाई जी द्वारा ‘सर क्यों दाँत फाड़ रहा है’ की बहुमूल्य भूमिका के बाद किसी अन्य द्वारा कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाने जैसा ही होगा। लेकिन पुस्तक पढ़ने के बाद मन में उठे विचार अगर काग़ज़ पर न उतारे गए तो यह मन के साथ वैसा ही अत्याचार होगा, जिसके ख़िलाफ़ धर्मपाल महेंद्र जैन ने लेखनी युद्ध शुरू किया है। मेरा मानना है कि ‘सर क्यों दाँत फाड़ रहा है’ व्यवस्थाओं का भंडाफोड़ करने वाली ऐसी पुस्तक है, जो सिर्फ़ मनोरंजन ही नहीं, बल्कि हमारी सोच और कर्म में बदलाव के लिए विचारोत्तेजक पहल भी है। इसके लिए धर्मपाल महेंद्र जैन को साधुवाद। 

 (समालोचक अंतरराष्ट्रीय पत्रकार एवं विश्लेषक हैं) 

— आर पी तोमर, अंतरराष्ट्रीय पत्रकार
मो. 94577 14100
rptomar510@gmail.com

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