“और सब बढ़िया? फ़ैमिली में सब ठीक है?” 

“आँ? हाँ।”

” . . . पहले तो आप हमेशा भाभीजी के साथ ही आते थे,” दुकानदार ने मुस्कुराते हुए बकाया रुपए मेरी तरफ़ बढ़ा दिए। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था, सो मैं भी हलका-सा मुस्कराया, और रुपए पर्स में रखकर दुकान से बाहर निकल आया। मेरे पास उत्तर नहीं था, क्योंकि भाभीजी नहीं है। जी नहीं, आप ग़लत समझ रहे हैं, भाभीजी सचमुच नहीं है, कभी भी नहीं थीं। मैं अभी तक अविवाहित हूँ। 

लेकिन वह विवाहित है। निश्चय ही। वही जो हमेशा भाभीजी के साथ इस दुकान में आता था। दुकानदार सज्जन व्यक्ति है, अकारण झूठ नहीं बोलेगा। 

गत कुछ समय से . . . अब तो एक वर्ष होने को है . . . मुझे एक अजीब-सी समस्या का सामना करना पड़ रहा है। मैं जिस प्रतिष्ठान में कार्यरत हूँ, उसी में एक अन्य व्यक्ति भी विद्यमान है . . . उसे और मुझे ईश्वर ने एक ही साँचे में ढाला है। सादृश्य इस स्तर तक है कि मेरे सहकर्मी . . . जो गत 2 वर्षों से मेरे ही कार्यालय में बैठते हैं . . . वे भी ग़लती कर बैठते हैं। अब यदि मेरे निकटजन ही मुझे पहचानने में असमर्थ हैं तो फिर अन्यजन से कितनी आशा रखी जा सकती है? इस सब की शुरूआत तब हुई जब एक शाम को मैं चाय की दुकान पर जा रहा था, और मैंने अनुभव किया कि एक युवा व्यक्ति मेरी ओर अपलक दृष्टि से घूर रहा था। हम अक़्सर ही ऐसा करते हैं, किन्तु नज़रें मिल जाने पर लज्जित होकर निगाह फेर भी लिया करते हैं। लेकिन इस युवा ने ऐसा कुछ नहीं किया। जब मैं बहुत पास आ गया, और फिर भी उसने अपनी आँखें नहीं हटाईँ, तो मैंने ही पहल करते हुए उससे कहा, “जी नहीं, आप मुझे नहीं जानते। हम इससे पहले कभी भी नहीं मिले हैं।”

युवा ठठाकर हँस दिया, “आपकी शक्ल मेरे एक मित्र के भाई से हू-ब-हू मिलती है। यहीं काम करता है। मैं तो एक बार के लिए चकरा ही गया कि उसे तो इस समय बंगलूर में होना चाहिए, यहाँ क्या कर रहा है।”

“कोई बात नहीं। इसी बहाने आपसे परिचय हुआ। नए मित्र बनाने का इससे अच्छा तरीक़ा और क्या हो सकता है! मेरा नाम सुदीप है।”

“और मैं कुशल। आशा है फिर मिलेंगे। लेकिन दुबारा ऐसी ग़लती नहीं होगी,” युवा ने मुझसे विदा ली और चला गया। 

लेकिन ग़लती हुई, और वह भी अगले ही दिन। मैं एक किराने की दुकान से निकला ही था कि कुशल सामने गलियारे में से गुज़रा। उसने उसी समय तो मेरी ओर ध्यान नहीं दिया, लेकिन कुछ दूर जाने के बाद पीछे मुड़ा और मेरी ओर घूरने लगा। 

मैं हँस दिया, “आप फिर से ग़लती कर रहे हैं।”

“क्या करूँ? आप दोनों एकदम एक ही जैसे हैं।”

“बस यह जान लीजिए कि आपके मित्र के भाई इस समय बंगलूर में ही हैं।”

इसके बाद तो यह सिलसिला चलता ही गया। सिक्योरिटी गार्ड मुझे देखकर सलाम ठोकते हैं, विद्यार्थीगण समय पर न आ सकने के कारण लज्जित होते हैं और माफ़ी माँगते हैं, कर्मचारी समय पर काम समाप्त न कर सकने के लिए क्षमा-याचना करते हैं और मुझे घूरने वालों की संख्या तो दिनों-दिन बस बढ़ती ही जा रही है। और कहाँ तक बयान करूँ? बस इतना समझ लीजिए कि झल्लाहट होने लगी है। एक अजीब सी स्थिति है यह . . . आप स्वयं कल्पना करके देखिए। आप जहाँ भी जाते हैं, सभी लोग आपको जानते हैं, या यूँ कहिए कि वे समझते हैं कि वे आपको जानते हैं, लेकिन आप किसी को भी नहीं जानते। चलिए माना, ऐसा अक़्सर होता है। लेकिन यहाँ तो लोग परम आत्मीयता के साथ अभिवादन भी करते हैं और वार्तालाप भी करते हैं। वैसे तो अभी तक कोई अप्रिय अनुभव नहीं हुआ, और प्रार्थना करता हूँ कि आगे भी न हो, लेकिन भविष्य किसने देखा है? वह मेरा जुड़वाँ नहीं है, परिवार का सदस्य भी नहीं, यहाँ तक कि हमारे “डीऐनए” में दूर-दूर तक किसी प्रकार की समता या योगायोग की सम्भावना भी नहीं है। यह तो केवल नियति वश हुआ है। 

एक सुबह मेरे सहकर्मी ने आकर बताया, “मुझे पता चल गया है कि आपका हमशक्ल वह व्यक्ति कौन है। मैंने आज ही उसे देखा।”

जिज्ञासावश मैंने पूछा, “देखने में कैसा है?” 

सहकर्मी ने प्रश्न में छिपी मेरी चालाकी को भाँपकर कहा, “बिलकुल आपके जैसा है। आगे आप ख़ुद समझ लीजिए।” 

सो समस्या ज्यों की त्यों बनी रही। आज भी वैसी ही है। 

हमशक्लों के बारे में कई घटनाएँ और कहानियाँ प्रचलित हैं। फ़िल्में भी बन चुकी हैं। “अंगूर” तो आपने देखी होगी और “कानून” भी। मुझे तो अपनी क्लास के वे जुड़वाँ भाई अब भी याद हैं जिनमें से एक काम नहीं करता था और दूसरा मार खाता था। कुछ वर्ष पहले बंगाली पत्रिका “आनन्दमेला” में एक उपन्यास छपा था जिसमें एक व्यक्ति ने कोई जालसाज़ी करने के उद्देश्य से अपने हमशक्ल व्यक्ति का अस्तित्व सिद्ध करने की चेष्टा की थी। ख़ैर, वह तो कथानक था, पर यहाँ जो बीत रही थी, सब कुछ सत्य था, जीवन्त था। और असह्य था। 

फिर जब नहीं सहा गया, तो एक दिन मैं पास की दुकान पर गया और पूछा कि क्या उनके पास ऐसी कोई टी-शर्ट है क्या जिस पर लिखा हो, “मैं वह नहीं।” उनके पास नहीं थी। मुझे “अहं ब्रह्मास्मि” और “तत् त्वं असि” की तो टी-शर्ट दिखाई गई, लेकिन ऐसी कोई नहीं थी जो बता सकती कि मैं वह नहीं हूँ। 

इस अनुभव ने एक नवीन प्रश्न को जन्म दिया . . . आख़िर मेरी अपनी पहचान क्या है? पुनश्च, चेहरे को किसी व्यक्ति की पहचान मानना कितना उचित है? उदाहरण के लिए, विभिन्न महकमों में आवेदन करते समय आवेदक की फोटो माँगने का फिर औचित्य क्या रहा? विभिन्न दफ़्तरों में टँगी गाँधी, नेहरू, भगत सिंह, आज़ाद आदि की फोटो क्या सचमुच उन गणमान्य लोगों को निरूपित करती हैं? 

शायद आप जानते होंगे, पॉली अपवर्जन सिद्धान्त के अनुसार कोई भी दो इलेक्ट्रॉन समान क्वाण्टम स्थिति में नहीं रह सकते। अन्य सभी मानदण्ड समान होने पर भी उनका घूर्णन तो विपरीत होगा ही। कहते हैं कि जैव संसार में दिखने वाली विविधता का यही कारण है। तो फिर मेरे और उसके बीच सादृश्यता का अर्थ क्या यह है कि हमारे संदर्भ में इलेक्ट्रॉन किसी अज्ञात कारण से एक ही क्वाण्टम स्थिति में आ गए हैं? क्या मात्र हम दोनों ही इस प्रकिया के एकमात्र दृष्टांत हैं? यदि हाँ, तो यह चमत्कार कैसे हुआ? और यदि यह चमत्कार ही है तो क्या यही मेरी विशिष्टता है? यह सोचने में अद्भुत लगता है कि एक घटना जो मेरी विशिष्टता पर प्रश्नचिह्न लगाती है, वही मेरी विशिष्टता की पुष्टि भी करती है। लेकिन यदि हमारे जैसे अन्य लोग भी हैं जो किसी प्रकार का पारिवारिक सम्बन्ध न होने पर भी सदृश हैं, तो फिर क्या पॉली के सिद्धांत की व्यापकता पर प्रश्नचिह्न नहीं लग जाता? 

सत्य तो यह है कि समान चेहरे तथा शारीरिक गठन के बावजूद हम दोनों वास्तव में पृथक् हैं। हमारी संस्कृति तथा भाषा, और शायद विचार, पसंद-नापसंद, जीवन-दर्शन भी, पूर्णतः भिन्न है। शायद यही मानदण्ड हम दोनों को अपनी निजी पहचान देते हैं। तो क्या इसका अर्थ यह है कि इलेक्ट्रॉन भौतिक स्तर पर ही नहीं, अपितु मानसिक और चारित्रिक स्तर पर भी एक व्यक्ति की विशिष्टता का निर्धारण करते हैं? यदि ऐसा है, तो इस विषय को “भौतिक” शास्त्र कहना कहाँ तक उचित होगा? सभी कुछ कितना जटिल है! 

कारण कुछ भी हो, मैं अपनी मानसिक उद्वेगना को तो नकार नहीं सकता। लेकिन इसका वास्तविक कारण क्या है? क्या स्वयं को विशिष्ट जानने और मानने की मानसिकता? ईशावास्योपनिषद से लेकर क्वाण्टम भौतिकी तक सभी चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि हम सभी समान हैं, समान उपादानों से गठित हैं, विशिष्टता कुछ भी नहीं। फिर भी मन के गहरे अंतराल में हम चाहते हैं स्वयं को अन्य सभी से पृथक् जानना, विशिष्ट मानना। मात्र एक सदृश व्यक्ति मुझे मिला तो मैं पहचान-संकट से जूझने लगा। तो यदि किसी दिन मुझे पता लगे की पूरी मानव जाति एक ही जैसी है, तो क्या मैं मानसिक उद्वेग से मर नहीं जाऊँगा? मेरी विचार से विभिन्न संघर्षों के पीछे कारण यही है . . . प्रत्येक व्यक्ति का स्वयं को विशिष्ट मानना और समझना। अनगिनत लेखों, प्रवचनों और भाषणों के बावजूद हम समानता नहीं चाहते। यह चिंतन ही हमारे लिए असहनीय है। समानता हमारी विशिष्टता का, हमारे अहंभाव का हरण करती है। और उनके बिना तो मानों हमारा अस्तित्व ही संकट में आ जाएगा! 

इन सब चिंतन के साथ-ही-साथ मैं यह भी सोचता हूँ कि भला उन सज्जन पर क्या गुज़र रही होगी, और उन्हें किस-किस प्रकार के व्यवहार का सामना करना पड़ रहा होगा। मुझे जितने प्रकार के लोगों और उनकी समस्याओं से सामना करना होता है, उसे देखते हुए तो उन पर अवश्य ही बहुत भारी समय बीत रहा होगा। मैं प्रतिदिन उनके लिए शान्ति और सुख की कामना करता हूँ। मैंने उनकी परोक्ष-रूप से सहायता करने की कोशिश भी की। मैंने सचमुच उनकी सहायता करने की कोशिश की। मैंने अनौपचारिक प्रकार की जीवन शैली अपना ली . . . जीन्स, सैण्डल, कमीज़ बाहर निकालकर पहनना, हमेशा साइकिल की सवारी, और हाँ, टोपी। अब इससे अधिक और क्या करता? लेकिन कुछ लाभ नहीं हुआ, समस्या ज्यों-की-त्यों बनी रही। 

“सर, आज आप कुछ अलग-से लग रहे हैं,” मुझे बताया गया। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में