विष्णु प्रभाकर के यात्रा-संस्मरण 

15-07-2022

विष्णु प्रभाकर के यात्रा-संस्मरण 

डॉ. रेखा उप्रेती (अंक: 209, जुलाई द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

सभ्यता के प्रारंभ से ही यात्रा मानव-मात्र के जीवन की अपरिहार्य आवश्यकता रही है। मानव की भौतिक प्रगति तथा आत्मिक उन्नति के क्रम में यात्रा ने आधारभूत भूमिका निभाई है। स्वभाव से जिज्ञासु, सौन्दर्याकांक्षी तथा प्रगतिशील चेतना से युक्त मानव ने निरन्तर चलते रहने में ही जीवन की सिद्धि मानी है। यात्रा में व्यक्ति का मानस सामान्य जीवन स्थितियों से उबर कर एक व्यापक धरातल पर गतिशील रहता है। उसकी चेतना अधिक उन्मुक्त और उदात्त होकर जीवन और जगत का पर्यवेक्षण करती है, उसके सत्व को ग्रहण करती है। साहित्यकार में यह ग्रहणशीलता स्वभावत अधिक रहती है इसलियए जब कोई यायावर साहित्य सृजन की क्षमता अर्जित कर लेता है या कोई साहित्यकार यायावर वृत्ति की ओर उन्मुख होता है तब साहित्य लेखन जिस विशिष्ट विधा का रूप लेता है उसे ही यात्रा-साहित्य कहा जाता है। 

नाटककार, कथाकार तथा जीवनीकार के रूप में विख्यात विष्णु प्रभाकर ने हिंदी यात्रा-साहित्य के सृजन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। मानव जीवन को स्वयं में अभियान मानते हुए उन्होंने छोटी-छोटी यात्राओं में जीवन के विराट रूप का वामन रूप देखा है और इसी वामन रूप को अपनी सबसे बड़ी अनुभूति स्वीकार किया है।1 ‘हँसते निर्झर दहकती भट्टी’ की भूमिका में अपने यात्रावृत्तों के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है, “इनमें जानकारी देने का प्रयत्न इतना नहीं है जितना अनुभूति को वह चित्र प्रस्तुत करने का है जो मेरे मन पर अंकित हो गया है। इन अर्थों में ये सब चित्र मेरे अपने हैं, कहीं मैं कवि हो उठा लगता हूँ, कहीं दार्शनिक, कहीं आलोचक, कहीं मात्र एक दर्शक”2 विष्णु जी की प्रकाशित यात्रापरक रचनाएँ हैं: ‘जमना गंगा के नैहर में’ (1964), ‘हँसते निर्झर, दहकती भट्टी’ (1966), ‘ज्योति पुंज हिमालय' (1982) तथा ‘हिम शिखरों की छाया में’ (1988) ‘जमना गंगा के नैहर में’ हिमालय में स्थित यमुनोत्री, गंगोत्री और गोमुख तक की पदयात्रा के अनुभवों का संकलन है। हिमालय के भव्य शिखरों का आकर्षण मानव के लिए सदा चुनौतीपूर्ण रहा है। भारतीय जनमानस के लिए जहाँ हिमालय का प्राकृतिक सौन्दर्य आकर्षण का केन्द्र है वहीं हिमालय के साथ उसकी आस्थाएँ भी सम्बद्ध हैं। विष्णु जी के लिए भी हिमालय केवल नैसर्गिक वैभव के कारण दर्शनीय नहीं है, उसके साथ उनकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चेतना भी जुड़ी हुई है। इस रचना में यमुना और गंगा नदी के उद्गम स्रोतों तक की साहसपूर्ण और रोमांचक यात्रा-कथा वर्णित है। हिमालय की ऐश्वर्यपूर्ण प्रकृति के मनोरम रूप और सतत् सानिध्य का अनुभव इस यात्रा-वृत्त की प्रमुख उपलब्धि है। प्रकृति के विविध रूप, पर्वतीय प्रदेश का शान्त व शीतल परिवेश, मौसम के बदलते रंग, मार्ग के सुरम्य दृश्य सभी लेखक की अनुभूति का स्पर्श पाकर कृति में प्रतिबिम्बित हो उठे हैं। वनों, नदियों, झरनों, पर्वतों, घाटियों के विविध रूपों, पर्वतीय प्रदेश के बदलते परिवेश की विविध छवियों को कल्पना के रंगों द्वारा सजीव रूप से रचना में उतार दिया है। प्रकृति को विष्णु जी ने स्वर्गीय, भव्य, दिव्य और रम्य सभी रूपों में देखा और पहचाना है। प्रकृति उनके लिए सजीव है, जो मानव की ही भाँति व्यवहार करती है। वस्तुतः प्रकृति के जीवन्त स्वरूप का अंकन इस कृति की प्रमुख विशेषता है। अनेक चित्रों और बिम्बों में व्यक्त होकर भी कहीं-कहीं उसकी आनन्दानुभूति रचनाकार के लिए अनिवर्चनीय हो उठी है। 

“जो यहाँ आ सकता है, वह सचमुच स्वर्ग में आता है। उस स्वर्ग का वर्णन नहीं हो सकता, अनुभव ही किया जा सकता है। पार्थिव जगत से वह नितान्त भिन्न है। शान्ति का साम्राज्य, मुक्त सौन्दर्य का विस्तार इसके अतिरिक्त भी कुछ है जिसे शब्दों में नहीं बाधा जा सकता।”3 

प्रकृति चित्रण के समानान्तर विष्णु जी की सांस्कृतिक चेतना का उद्घाटन भी रचना में हुआ है। वस्तुतः उनके सम्मुख प्रकृति व संस्कृति एक रूप होकर उभरी हैं, एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। इसलिए उनका प्रकृति वर्णन केवल सौन्दर्य का उद्घाटन नहीं करता, उनकी सांस्कृतिक चेतना को भी वाणी देता है, हिमालय में स्थित भारतीय संस्कृति के आदि तीर्थों की यात्रा लेखक के लिए सांस्कृतिक स्रोतों और धरोहरों की पहचान का माध्यम है, वह एक धर्म-भीरु भक्त की यात्रा नहीं, एक सहज आस्थावान व्यक्ति की आध्यात्मिक यात्रा है। हिमालय और उसके अचल में बसे विविध तीर्थ उनके लिए विराट सांस्कृतिक प्रतीक हैं जो उन्हें सार्वभौम सत्य की प्रतीति कराते जान पड़ते हैं। 

“हमारे जितने भी प्रयत्न हों, सार्वभौम हो, संस्कृति भूमा है, इतिहास भूमा है, यह सत्य हिमालय के इन शिखरों पर अंकित है।”4 

इन स्थलों से जुड़ी हुई किंवदन्तियाँ, पौराणिक कथाएँ और चरित्र भी कृति का प्रतिपाद्य बने हैं। साथ ही देश की भौगोलिक विविधता के मध्य विद्यमान सांस्कृतिक एकता के सूत्रों की पहचान उन्हें गौरवान्वित करती है। भारत की सांस्कृतिक एकता की कल्पना सदा अखण्ड रही है। भौगोलिक सीमा के कारण उत्तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम का भेद भले ही रहा हो। भारतवासियों के हृदय में मानवता के स्तर पर कभी कोई भेदभाव नहीं रहा।”5

विष्णु जी को जहाँ एक और प्राकृतिक और सांस्कृतिक वैभव अभिभूत करता है वहीं सामाजिक स्तर पर मूल्यों का विघटन, नैतिक पतन, भूख, ग़रीबी, लाचारी देखकर उनका हृदय व्यथित हो उठा है। सौन्दर्यपूर्ण प्रकृति के मध्य बेबस असहाय, रुग्ण और अभावग्रस्त लोगों को देखकर उनकी करुणा पिघल उठी है और वे सोचने लगते हैं यह सौन्दर्य ये रोग और ये अभाव कब मनुष्य इनसे मुक्ति पाकर सही अर्थों में इस दैवी सौन्दर्य का उपयोग कर सकेगा? जिस दिन कर सकेगा, उसी दिन हम सचमुच स्वतंत्र होंगे। तब तक यह स्वतंत्रता छल है।”6 यह सामाजिक चिन्तन अनेक स्थलों पर मुखर हुआ है। कहीं भीख माँगने पर विवश लोगों को देखकर, कहीं जीवन से पलायन कर साधु बन गये लोगों की अकर्मण्यता पर, कहीं पारिवारिक स्तर पर मूल्यों के ठहराव के दुष्परिणाम देखकर उनका चिंतनशील मन आकुलता है।” हिन्दू परिवार की यह चिरपरिचित गाथा क्या सदा ही उसे त्रस्त करती रहेगी? क्या यह हमें सोचने को विवश नहीं करती कि हमारे सामाजिक मूल्यों में ठहराव आ गया है। इसीलिए यह दुर्गन्ध है, इसीलिए परिवर्तन अनिवार्य है।”7

कर्म के प्रति रचनाकार की अदम्य आस्था है। अपने कर्तव्य से विमुख होकर ईश्वर भक्ति की उनकी दृष्टि में कोई सार्थकता नहीं है। उनकी नैतिकता दायित्वों को पूरा करने में ही अपनी सार्थकता समझती है। इसलिए घर छोड़कर साधु हो जाने में उनका विश्वास नहीं है। अपने चारों ओर परिवार खड़ा करके फिर उसे मझधार में छोड़कर यात्रियों की सेवा करने वाले संन्यासियों का कार्य भी उन्हें संगत प्रतीत नहीं होता। भीख माँगने और गांजा पीने वाले तथाकथित साधु उन्हें अज्ञानता और आलस्य के प्रतिरूप जान पड़ते हैं और ऐसे साधुओं को वे राष्ट्र, मनुष्य और बुद्धि सभी का अपमान करने वाले अन्धविश्वासी के रूप में देखते हैं। भक्ति और मुक्ति की कामना में अपने कर्तव्य से विमुख हो जाने वाले संन्यासियों की तुलना में दीन हीन पर कर्मरत मानव पर उनकी अधिक श्रद्धा है। जो कर्मशील है, कर्तव्यनिष्ठ है, वही सच्चा आस्तिक है। ऐसे ही लोगों की श्रद्धाभावना विष्णुजी को आकर्षित करती है। 

‘जमना गंगा के नैहर में’ जहाँ एक ही यात्रा का शृंखलाबद्ध वर्णन है वहाँ ‘हँसते निर्झर दहकती भट्टी’ में देश-विदेश के अलग-अलग स्थलों की अलग-अलग समय में की गई यात्राओं के अनुभव निबद्ध हैं। इसमें एक और बद्रीनाथ व केदारनाथ की पदयात्रा का रोमांच है तो दूसरी ओर संकटग्रस्त विमान में मृत्यु का साक्षात्कार करने व उससे उबरने का रोमांचक अनुभव है। कहीं कश्मीर के स्वर्गीय सौन्दर्य की अभिव्यक्ति है तो दूसरी ओर कलकत्ता की भाग-दौड़ भरी सड़कों पर चलने का अनुभव है। कहीं झरनों का विहँसता सौन्दर्य है तो कहीं इस्पात की दहकती भट्टी का वर्णन। एक ओर यमुनोत्री व गोमुख जैसे सांस्कृतिक तीर्थों की यात्रा है तो दूसरी ओर वैशाली के खण्डहरों के विगत वैभव की झाँकी। इन विविध प्रकार के अनुभवों से समृद्ध आलोच्य संग्रह में विषय की विविधता होना स्वाभाविक है। वस्तुतः यह विविधता ही इस संकलन की प्रमुख विशेषता है। ‘कहीं विहसते निर्झर मुस्कुराते उद्यान उसका स्वागत करेंगे तो कहीं विगत के खण्डहर उसकी ज्ञानपिपासा को शांत करेंगे। कहीं उसे भीड़ के अन्तर में झाँकने की दृष्टि मिलेगी तो कहीं नयी सभ्यता का संगीत भी वह सुनेगा।”8

‘हँसते निर्झर दहकती भट्टी’ संग्रह के दो संस्मरण ‘मैं यहीं मरना चाहता हूँ’ तथा ‘यमुना के नैहर में’ पूर्व प्रकाशित जमना गंगा के नैहर में से लिये गये हैं। जिसमें क्रमशः गोमुख तथा यमुनोत्री यात्रा की पदयात्रा का वर्णन है। ‘केदारनाथ दर्शन’, ‘मेरी बद्रीनाथ यात्रा’ तथा ‘जहाँ पाण्डवों ने चौपड़ खेली’ शीर्षक अध्यायों में केदारनाथ व बद्रीनाथ की पदयात्रा के कुछ अंश हैं। हिमालय की दुर्गम घाटियों का सौन्दर्य इन संस्मरणों में सजीव रूप से अंकित हुआ है। प्रकृति का सहज-सुन्दर व भयावह रूप, बीहड़ व दुर्गम मार्ग की कठिन चढ़ाई, स्थलों का सांस्कृतिक महत्त्व तथा यात्रा के आनन्द की अनुभूति इनमें प्रतिपादित है। 

‘सौन्दर्य का दर्द’, ‘निद्रा का सौन्दर्य’, ‘ये मुस्कुराते उद्यान’, ‘झीलों का देश’ शीर्षक संस्मरण कश्मीर की नैसर्गिक सुषमा से अभिभूत लेखक के सौन्दर्य बोध का उद्घाटन करते हैं। झरनों, झीलों, उद्यानों, पर्वतों के काव्यात्मक सौन्दर्य वर्णन के साथ-साथ लेखक का प्रकृति प्रेम, भावुक हृदय, सौन्दर्य के प्रति ललक की अभिव्यक्ति हुई है। ‘जहाँ आकाश दिखाई नहीं देता’ में कलकत्ता शहर की गलियों, सड़कों, फुटपाथों ट्रामों, ताँगों में सफ़र करते हुए उस शहर की दौड़-भाग से भरे जीवन की धड़कन को नाटकीय शैली में अभिव्यंजित किया गया है। वैशाली के खण्डहर संस्मरण में वैशाली यात्रा, वैशाली का विगत वैभव तथा वर्तमान दशा, उस स्थल से जुड़े पौराणिक, ऐतिहासिक सन्दर्भ का भावपूर्ण और कल्पनात्मक विवेचन हुआ है। विवेच्य संग्रह में देश यात्रा के साथ विदेश यात्राओं से जुड़े हुए अनभुव भी संकलित हैं। ‘राह चलते’, ‘मीत्रो की सैर’, ‘गोर्की इन्स्टीट्यूट में’, ‘प्यार की भाषा’ शीर्षक अध्याय सोवियत संघ की यात्रा के अनुभव पर आधारित हैं। ‘राह चलते’ में सोवियत नागरिकों की अनुशासनप्रियता, कर्मशीलता और कर्तव्यपरायणता की झलक है। ‘मीत्रो की सैर’ में विष्णु जी ने सोवियत संघ की भूमिगत रेल सेवा मीत्रों के सफ़र का वर्णनात्मक संस्मरण प्रस्तुत किया है। ‘गोर्की इन्स्टीट्यूट में’ गोर्की की पुत्रवधू से हुए वार्तालाप और गोर्की संस्थान का परिचय है। ‘प्यार की भाषा’ में सोवियत नागरिकों का भारतीयों के प्रति प्रेम और आदर की भावना का प्रकाशन है। 

‘दक्षिण पूर्वी देशों का सांस्कृतिक जीवन’ तथा ‘एक स्कॉलर प्रिंस से भेंट’ शीर्षक संस्मरण बर्मा, थाईलैण्ड, वियतनाम, मलाया, कम्बोडिया आदि को यात्राओं के संस्मरण प्रस्तुत करते हैं। इन देशों पर भारतीय संस्कृति के प्रभाव का आकलन प्रमुख रूप से हुआ है। साथ ही इन देशों के सामाजिक साहित्यिक वातावरण की झलक भी प्रस्तुत की गई है। 

‘ज्योतिपुंज हिमालय में’ एक ही यात्रा क्षेत्र से सम्बद्ध तीन यात्राओं के अनुभवों को समवेत अभिव्यक्ति मिली है। विष्णु जी सन् 1958 में पहली बार गंगोत्री तथा गोमुख तक गये थे। दूसरी बार 1971 में तथा तीसरी बार 1981 में उन्हें पुन इस क्षेत्र की यात्रा का अवसर मिला। पहली यात्रा का सम्पूर्ण वृत्तान्त उन्होंने 1964 में प्रकाशित रचना ‘जमना-गंगा के नैहर’ में प्रस्तुत किया था। ‘ज्योतिपुंज हिमालय’ के अधिकांश भागों में उन्हीं अनुभवों की शब्दश: पुनरावृत्ति हुई है लेकिन बाद की दोनों यात्राओं के अनुभव भी उसके समानान्तर अभिव्यक्त हुए हैं, जिससे रचना में मौलिकता और नवीनता का संचार हुआ है और वह ‘जमना गंगा के नैहर में’ का पुनर्संस्करण न बन कर एक नयी रचना का स्वरूप ग्रहण करती है। 

अज्ञेय ने अपने यात्रा वृत्तान्त ‘अरे यायावर रहेगा याद’ के एक प्रसंग में लिखा है कि “फिर आना वास्तव में कभी होता ही नहीं, क्योंकि काल की दिशा में लौटना कभी नहीं होता। प्रत्येक आना नया आना होता है। घटना की आवृत्ति होती है, अनुभूति की नहीं . . . अनुभूति की आवृत्ति पुनरावृत्ति केवल स्मरण में है।”9 यह कथन विवेच्य रचना के सन्दर्भ में अक्षरशः सत्य प्रतीत होता है। एक ही स्थल पर एक ही व्यक्ति द्वारा तीन बार यात्रा करने और तीनों बार के वृत्तान्तों को प्रस्तुत करते हुए भी यह रचना उन्हीं अनुभवों को नहीं दोहराती तीनों बार के अनुभव एक-दूसरे से पूर्णतः भिन्न रहे हैं। यह भिन्नता यात्रा स्थलों में आये परिवर्तन के कारण भी है और लेखक की बदलती हुई मनःस्थिति के कारण भी। पाँच खण्डों में विभाजित इस रचना में क्रमश उत्तरकाशी, गंगोत्री, गोमुख और तपोवन जाने और वापस लौटने की यात्रा-कथा वर्णित है। 1958 से 1981 तक के तेईस वर्षों में इन क्षेत्रों में घटित परिवर्तनों को विष्णु प्रभाकर ने प्रमुख रूप से रेखांकित किया है। वस्तुतः सभ्यता के विकास के साथ आये परिवर्तन ने जहाँ एक ओर सुविधाएँ प्रदान कर इन क्षेत्रों की यात्रा को सुगम से सुगमतर बना दिया है वही यहाँ के सांस्कृतिक स्वरूप को विकृत भी कर दिया है और यात्रा के रोमांच को भी घटा दिया है। यह बोध यात्रा के हर सन्दर्भ में विष्णु प्रभाकर को व्यथित करता रहा है। बाद की दोनों यात्राओं में वे लक्षित करते हैं कि यात्रा के साधन ही नहीं बदले बल्कि वातावरण भी बदल गया है और मनुष्य भी। पहली यात्रा के अनंतर हुई दोनों यात्राओं के मार्ग में उन्हें पुरानी स्मृतियाँ झकझोरती रही हैं। पहली बार पत्रकारों और साहित्यकारों के दल के साथ की गई डेढ़ सौ मील की दुर्गम पद-यात्रा के संवेदन और उल्लास का वे बार-बार स्मरण करते हैं। सुरम्य मार्गों पर रुक-रुक कर चलते हुए प्रत्येक पड़ाव पर सामाजिक व प्राकृतिक परिवेश से परिचय व आत्मीयता जोड़ते हुए तय की गई वह यात्रा उनके मन पर अंकित रही है। दूसरी और तीसरी यात्रा में प्रकृति का यह सान्निध्य, उसकी बदलती छवियाँ आँख भर न देख पाने की कसक बनी रही है। इसी कारण यात्रा का रोमांच जैसे समाप्त हो गया हो। वे लिखते हैं, “यायावर सुख-सुविधा की चिन्ता नहीं करता, क्योंकि वह जानता है कि सुख-सुविधा से आनन्द मिलता ही नहीं समाप्त भी हो जाता है। बने बनाये मार्गों पर चलने से मार्ग खोजते चलने का अपना एक आनन्द होता है और वह आनन्द अनिर्वचनीय होता है।”10 पर्वत शिखरों पर वही सौन्दर्य दृश्य वर्तमान रहे हैं, पर रफ़्तार की सुविधा ने सौन्दर्योपभोग के अवसरों को कम कर दिया है। विष्णु प्रभाकर इन स्थलों पर चल रहे निर्माण कार्य को देखकर इस भूखण्ड की भौतिक समृद्धि के प्रति आश्वस्त हैं लेकिन साथ ही यहाँ के अल्हड़ अटपटे भयानक व मांसल सौन्दर्य के खो जाने की आशंका उन्हें पीड़ा पहुँचाती है।” केवल यात्रा मार्ग में ही नहीं, हिमशिखरों से घिरे सुरम्य समतल तपोवन की परम शांत और रूपवती प्रकृति पर भी सभ्यता के क़दमों की आहट सुनकर उन्हें लगता है कि बहुत शीघ्र सभ्यता इस सुरम्य पावन प्रदेश के कौमार्य को नष्ट कर देगी। सभ्यता और संस्कृति का यह द्वन्द्व उन्हें व्यथित करता है पर साथ ही यह बोध भी देता है कि यह द्वन्द्व शाश्वत है। “अच्छा-बुरा शुभ-अशुभ सब सापेक्ष है। सब साथ-साथ आते हैं। सभ्यता सुख सुविधा का कारण बनती है तो आंतरिक अशांति का भी। संस्कृति छूट जाती है कहीं। यह द्वन्द्व शाश्वत है।”11

तीनों यात्राओं में केवल बाह्य वातावरण ही नहीं बदला है, लेखक की मनःस्थिति भी बदलती रही है। पहली यात्रा का अदम्य उत्साह, भयानक पथों को पार करने का रोमांच और प्रकृति का निर्द्वन्द्व साक्षात्कार बाद की यात्राओं में क्रमश: कम होता गया है। दूसरी यात्रा में पहली यात्रा की सुखद स्मृतियाँ छायी रहीं हैं, पर पत्नी व पुत्र के साहचर्य के कारण वह यात्रा भी आनन्दप्रद रही है। तीसरी व अन्तिम यात्रा में लेखक के भीतर का द्वन्द्व और अपवाद सघन रूप से छाया रहा है, जिसकी प्रतिच्छवि रचना में स्पष्ट देखी जा सकती है। कुछ अपनी वृद्धावस्था के कारण कुछ सहयात्रियों के बिछोह की पीड़ा के कारण और कुछ स्थानों की गरिमा को घटा हुआ देखकर वे निरन्तर क्षुब्ध और व्यथित होते हैं। अन्तर की यह व्यथा-कथा ही तीसरी यात्रा का प्रमुख अनुभव बनकर अभिव्यक्त हुई है। उदासी, पीड़ा और द्वन्द्व से घिरी इस यात्रा के अनुभव यद्यपि निराशाजनक रहे हैं पर इसे भी उन्होंने साहित्यकार के लिए एक उपलब्धि के रूप में देखा है। 

“. . . पर यह सत्य है साहित्यकार कभी कुछ खोता नहीं। हर दर्द उसकी पूँजी है। वाल्मीकि क्रौंच वध के समय दर्द सहने की जिस यातना से गुज़रे थे वही यातना तो राम कथा के सृजन का आधार बनी थी।”12

प्रकृति तीनों ही यात्राओं में विष्णु जी के लिए प्रमुख आकर्षण रही है, फलतः रचना में प्रकृति के सुन्दर बिम्बों की सृष्टि हुई है। उत्तराखण्ड के तीर्थ स्थलों की यात्रा पर होते हुए भी विष्णु प्रभाकर में धार्मिक भावना उतनी प्रबल नहीं है, जितना प्रकृति का आकर्षण। प्रकृति का मोहजाल ही उनके लिए साध्य और सिद्धि रहा है।  भागीरथी का कल-कल निनाद, चारों ओर चीड़ के मनोरम वृक्षों से सज्जित पर्वतमाला, मेघाच्छन्न हिम शिखर, गंगा के प्रबल प्रवाह, हिम सरिताओं की अठखेलियाँ, रात्रि में आकाश का वैभव, देवदार के वृक्षों से निर्मित सघन वन, चाँदी के समान झरते मादक झरने, उन्मादिनी नीलवर्णा जाह्नवी और शांत दूधिया जलवाली भागीरथी का समन्वय, हिमशिखरों पर पड़ती सूर्य की किरणें और चाँदनी का प्रकाश, विभिन्न घाटियों और शिखरों का वैभव आदि अनेकानेक प्रकृति-चित्र रचना में अंकित है। 

‘हिमशिखरों की छाया में’ पुरानी यात्राओं के उन्हीं अनुभवों को दोहराती है, जिनका प्रकाशन ‘जमना गंगा के नैहर में’ या ‘हँसते निर्झर दहकती भट्टी’ में हो चुका है तो कुछ संस्मरणों के स्वरूप और आकार में परिवर्तन किया गया है। यह रचना तीन खण्डों में विभक्त है—पहले खण्ड में उत्तराखण्ड की यात्रा का दूसरे में जमुनोत्री यात्रा का और तीसरे खण्ड में कश्मीर की यात्रा के वर्णन हैं। पहला खण्ड केदारनाथ वासुकिताल, तुंगनाथ, बद्रीनाथ की यात्रा के संस्मरण प्रस्तुत करता है। 1966 में प्रकाशित ‘हँसते निर्झर दहकती भट्टी’ में भी इन यात्राओं के संस्मरण प्रकाशित हैं। यहाँ किंचित परिवर्तन और विस्तार के साथ उन्हें प्रस्तुत किया गया है। जमनोत्री खण्ड में यमुनोत्री यात्रा का वृत्तान्त है, जो उनकी पहली रचना ‘जमना गंगा के नैहर में’ प्रकाशित हो चुका है। तीसरे खण्ड की रचनाएँ, जिनमें कश्मीर के सौन्दर्य का उद्घाटन हुआ है, वे भी ‘हँसते निर्झर दहकती भट्टी’ के संस्मरणों का ही पुनर्प्रकाशन है। इस प्रकार हिम शिखरों की छाया में रचना कुछ नवीनता के साथ पुरानी रचनाओं का ही नया संकलन है। 

समग्रतः विष्णु प्रभाकर के यात्रा संस्मरण एक भावुक, संवेदनशील, आस्थावान तथा आदर्शप्रिय व्यक्ति की साहसिक यात्राओं के रोचक वृत्तान्त हैं। उनके साहित्यिक व्यक्तित्व के सभी पक्ष उनकी इन रचनाओं में झलकते हैं। इन यात्रा-वृत्तों में हमें लेखक द्वारा देखे गये विभिन्न स्थलों का व्यापक परिवेश ही दृष्टिगत नहीं होता वरन् लेखक के अन्तर्जगत का भी साक्षात्कार होता है। विष्णु जी विविध भावों, विचारों व घटना प्रसंगों को समर्थ व रोचक शैली में प्रस्तुत करते हैं। विषय-विविधता के अनुरूप उनकी शैली भी स्वरूप बदलती है। जहाँ प्रकृति चित्रण में उनका कवि रूप उभरकर आता है वहाँ उनकी शैली कल्पना का आश्रय लेती हुई काव्यात्मक वातावरण की सृष्टि करती है। ऐसे स्थलों पर भाषा का आलंकारिक सौन्दर्य व कवित्वशक्ति स्वतः उद्घाटित होते हैं। दूसरी ओर ‘जहाँ आकाश नहीं दिखता’ जैसे संस्मरणों में भाषा एकदम चुस्त व प्रवाहमयी तथा शैली यथार्थ चित्रणयुक्त हो जाती है। परिनिष्ठित शब्दावली, समृद्ध व कल्पनाशील सादृश्य विधान चित्रात्मकता, बिम्बधर्मिता उनकी भाषा को अलंकृत करते हैं। विष्णु प्रभाकर की ये रचनाएँ उनके सौन्दर्य बोध, सांस्कृतिक चेतना तथा जीवन मूल्यों के प्रति आस्था की भावना का प्रकाशन करती है। भाव प्रकाशन क्षमता, बिम्ब निर्माण कौशल, प्रकृति को जीवन्त और मानवीय रूप देने वाली शैली उनके रचना-शिल्प की विशेषता है। प्रौढ़ तथा प्रांजल भाषा पर विष्णु प्रभाकर का पूर्ण अधिकार है। ये सभी रचनाएँ एक मँजे हुए साहित्यकार की उत्कृष्टता का प्रमाण भी हैं और यात्रा-साहित्य के सृजनात्मक स्वरूप का श्रेष्ठ प्रतिमान भी। 

रेखा उप्रेती 
एसोसिएट प्रोफ़ेसर 
इंद्रप्रस्थ महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय 

संदर्भ:

  1. विष्णु प्रभाकर, हँसते निर्झर दहकती भट्टी, 1966, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली पृ-5

  2. वही, पृ-6 

  3. विष्णु प्रभाकर, जमना गंगा के नैहर में, 1964, सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, पृ-76

  4. वही, पृष्ठ-137 

  5. वही, पृष्ठ-137 

  6. वही, पृष्ठ-46 

  7. वही, पृष्ठ-58 

  8.  विष्णु प्रभाकर हँसते निर्झर दहकती भट्टी, 1966, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, पृ-6

  9. अज्ञेय, अरे यायावर रहेगा याद, 1975, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, पृष्ठ-81-82 

  10. विष्णु प्रभाकर, ज्योतिपुंज हिमालय, 1982, शब्दकार प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-15 

  11. वही, पृष्ठ-21 

  12. वही, पृष्ठ-168 

विष्णु प्रभाकर, हिम शिखरों की छाया में, 1988, राजपाल एंड संस, दिल्ली

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