विषादधारा

15-10-2016

विषादधारा

आकांक्षा बोहरा

पाषाणखंडों सा खंडित
चट्टानों पर आरोहित
बड़वानल सा विकराल
विषाद मानव हृदय का
मात देता काल तृषा को।

कुंठा और शंका की व्यथा,
उपेक्षा उपेक्षितों से,
रुग्ण जीवन का चिर क्रंदन,
ज्यों जग घनघोर निशा हो।

भ्रमित जीव भ्रमित प्राण
सृष्टि का रूप विकराल
करुण आस औ’ करुण विलाप
सर्प कुंडली सा यह मोहजाल
निःशब्द वचन, निःश्वास कर्म
क्या कोई अर्थ या छिपा मर्म

क्यों मानव पीड़ित होता है
अपनी ही दी हुई वेदना से।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में