विरासत

डॉ. कविता नन्दन (अंक: 231, जून द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

यह सच है
कि उच्च शिक्षा प्राप्त पढ़ा-लिखा
प्रौढ़ हूँ, बेरोज़गार हूँ
यह बात
सत्ता और सियासत के लिए मामूली है
मत पेटिका में पड़े अपने मतपत्र की ही तरह
गाँव के मुखिया से लेकर
देश के मुखिया तक के लिए अभी तक गौण हूँ। 
 
रोज़ाना
काम की तलाश में निकलता हूँ
दैनिक मज़दूरी का मिलना
इतना भी आसान नहीं होता, जितना
खाते-पीते घरों के लोग समझते हैं या फिर
देश समझता है। 
कभी लिखता हूँ
अख़बार के लिए कॉलम
कभी किसी के लिए बैंक की अर्ज़ी
कभी फ़रार क़ैदी के लिए
सिपाही बना दिया करता है अपराधी फ़र्ज़ी, 
कई बार दूसरे फ़्लोर पर बैठे
राजगीर के लिए फेंकता हूँ ईंट और कभी
आधी क़ीमत पर ठेकेदार के लिए करता हूँ मजूरी
फेंकता हूँ माटी
घर में
दरवाज़ा है न टाटी
एक पत्नी और दो बच्चे
हर वक़्त इतने भूखे कि कोई भी अनाज दो
खा सकते हैं कच्चे, इसीलिए
अक़्सर बिना दाल, सब्ज़ी के आटा ही ले जाता हूँ
ज़्यादातर ख़ाली हाथ आता हूँ
सच्चाई यह है कि इससे ज़्यादा
कभी मयस्सर ही नहीं हुआ
रोज़ नहीं निकलता चूल्हे से धुआँ। 
 
सुनाता हूँ क़िस्सा आज का
लौट कर ख़ाली हाथ घर पहुँचा
चिड़चिड़े स्वभाव वाली पत्नी की चिड़चिड़ाहट से
टूट चुका है पहरा लाज का
बच्चे से पानी माँगा और पत्नी मंत्र पढ़ने लगी
'काम का न काज का, दुश्मन अनाज का . . . 
मर क्यों नहीं जाते। ' गहरी साँस लेते हुए
“हाँ!” कहकर बैठ जाता हूँ
 
शायद फिर कोई भूला गीत गाता हूँ
बेटे पूछते हैं
बारी-बारी
क्या आप अब मर जाओगे? 
“मरने से पहले बताना
हमारे नाम क्या कर जाओगे?” 
सोचता हूँ
क्या जवाब दूँ उनके मासूम सवालों का
न कोई संदूक न कोई हिसाब है तालों का
मेरे पास
ग़रीबी, बेरोज़गारी, क़र्ज़े और अपमान के सिवाय
है ही क्या? शायद
विरासत में यही दे जाऊँगा! 

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