विहान
सत्यजीत कुशवाहा
कुहू-कुहू सुन कोयल की बोली
उठ चली भानु की डोली
बिखर गई अम्बर में रंगोली
कुकडू-कू सुन मुर्ग़े कि बोली
उषा कर रही ठिठोली
नील बदन की लाल चुनर से
झाँक रही पूरब घूँघट से
धानी चादर ओढ़े वसुधा
जड़ी हैं जिसमें सुन्दर लड़ियाँ
चहक-चहक उड़ते खग अम्बर में
जग को भाँप रही ये घड़ियाँ
उठते ही उषा का घूँघट
चल पड़े तारा घटमंडल
मलिन हुआ वो चन्द्र निकेतन
गाँव-शहर में हुआ अज़ान
बाल-ग्वाल सब चले क्रीड़ा क्षेत्र में
हल को लेकर चला किसान
घर को चली नारी पनघट से
रजनी बीती हुआ विहान। . . .