वह दिन आज भी याद है

01-05-2024

वह दिन आज भी याद है

शुभा कपूर (अंक: 252, मई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

जीवन में कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जो अक्सर याद रह जाती हैं। ऐसी ही एक दिन की घटना मैं आप सबके साथ साझा करना चाहती हूँ।

बात उन दिनों की है जब हमारा परिवार मुंबई की चकाचौंध को छोड़ कुमाऊँ पहाड़ियों के बीच बसे एक छोटे से गाँव जूलीकोट में आकर रहने लगा था। यह गाँव काठगोदाम और नैनीताल जाने के रास्ते में पड़ता है, वहाँ हरी-भरी वादियाँ, ऊँची-ऊँची चोटियाँ, कल-कल करती नदियाँ और सुंदर शांत परिवेश सहज ही मन को मोह लेता था। उन दिनों न तो वहाँ बिजली थी न ही पानी के नल। लोग गैस के हंडों और लालटेन से अपना काम चलाते थे, पानी के लिए पहाड़ी झरने और नदी थी। हवा और पानी स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ही उत्तम था।

वहाँ के शांत वातावरण को देखकर ही शायद अँग्रेज़ों ने नैनीताल को छोड़कर जूलीकोट में रहना पसंद किया था। वहाँ अँग्रेज़ों की बनाई हुई बहुत सुंदर-सुंदर कोठियाँ थीं जो अपने भव्य लॉन और फलों के बग़ीचों के लिए मशहूर थीं। कोठियों को देखकर अँग्रेज़ों की शानो-शौकत का अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता था। ऐसी ही एक कोठी हमने किराए पर ले रखी थी। यह कोठी जूलीकोट की एक सुंदर वादी में स्थित थी जो अपनी ख़ूबसूरती के लिए बहुत चर्चित थी। उसके तीन तरफ़ पानी था, सड़क से जब आप वादी में उतरते तो बँगले के ऊपर बस एक छोटी-सी नहर काटकर बनाई हुई थी जो खेतों को सींचने के काम आती थी। कोठी की बग़ल में ख़ूबसूरत झरना था जिसका पानी नहाने और खाना बनाने के काम में आता था। बँगले के नीचे से एक पहाड़ी नदी बहती थी, जिसे पहाड़ी लोग गधेड़ा कहते थे। सड़क से दस से-बारह सीढ़ियाँ उतरकर बँगले के लॉन में पहुँचा जा सकता था। बँगले के तीन साइड बड़ा सा बरांडा उसके बाद बड़े-बड़े हॉलनुमा, ऊँची सीलिंग वाले कमरे, बरांडा पार करके कुछ सीढ़ियाँ उतर कर रसोई और भंडार घर था। रसोई में मिट्टी के चूल्हे बने हुए थे, रसोई के पीछे सीढ़ीनुमा खेत थे। खेतों में आड़ू, आलूबुखारा, नीबू और माल्टा आदि के पेड़ थे। जो मौसम आने पर फलों और फूलों से भरे रहते थे, जिनकी ख़ुश्बू से मन विभोर हो उठता था। खेतों के बाद माली और चौकीदार के घर थे।

माँ धार्मिक स्वभाव की सीधी-साधी घरेलू स्त्री थी, उन्हें अपने मुंबई के भरे पूरे परिवार को छोड़ वहाँ आकर रहना अच्छा नहीं लग रहा था, ऊपर से बिजली और पानी के ना होने के कारण काफ़ी परेशानी हो जाती थी। शाम होते ही लालटेन जलानी पड़ती थी, पानी नौकर झरने से लाकर भरता था। कहाँ मुंबई की चहल-पहल कहाँ इतना सन्नाटा। दूर दूर तक कोई पड़ोस भी नहीं था।

शाम होते ही जंगल से झींगुर की आवाज़ें आने लगती थीं और रात को नदी के कल-कल का शोर, रात इतनी सुनसान और डरावनी हो जाती थी, हम सब दरवाज़े बंद करके अंदर बैठ जाते थे। दिन में जो माहौल इतना लुभावना लगता, वही रात को डरावना लगने लगता था। हम दादी माँ के स्वास्थलाभ के लिए वहाँ गये थे, दादी जी के साथ-साथ हम सब का भी स्वास्थ्य बहुत अच्छा हो गया था। माँ को वहाँ अच्छा नहीं लग रहा था। माँ, पापा को वापस मुंबई चलने के लिए मना ही लेती, ऐसा सम्भव हो भी जाता लेकिन गर्मियों में सब रिश्तेदारों के आ जाने से कोठी चहल पहल से भर जाती थी। सबको वह जगह बेहद पसंद आ गई।

गर्मियों में इतने मेहमान आने लगे की कोठी छोटी पड़ जाती। सब का खाना बनाने के लिए घर की स्त्रियों के अलावा चार-पाँच नौकर रखने पड़ते थे। बड़ी-बड़ी पतीलियों में दाल-सब्ज़ी बनती थी, झरने का पानी इतना मीठा और सुपाच्य था कि खाना तुरंत हज़म हो जाता था। बच्चे फिर भूख-भूख करने लगते थे। माँ, बुआ, चाची सब परेशान हो जाती थीं।

शाम को दादाजी सबसे बड़े भाई को दस रुपए देकर हम सबको स्टेशन ले जाने के लिए कहते सब मिलाकर पचीस-छब्बीस बच्चे हो जाते। स्टेशन जाकर हम सब मूँगफली, काफल, स्ट्रॉबेरी और बाल मिठाई खाते। स्टेशन पर डोटिया लोग आग जलाकर पहाड़ी लोक-गीतों पर नाचते जिन्हें देखने के लिए गाँव के काफ़ी लोग इकट्ठे होते थे।

एक साल हम लोग जाड़ों में मुंबई नहीं गए, पापा टूर पर गए हुए थे। दादा-दादी जी, माँ, भाई, बहन हम सब घर पर ही थे। रात के क़रीब आठ बजे थे। फ़ायर-प्लेस में बड़े-बड़े लठ जल रहे थे, फिर भी ठंड के मारे सबका बुरा हाल था। माँ और चंदन सिंह (घर का नौकर) दूध लेकर रसोई से आ रहे थे तभी छत से टीना पीटने की आवाज़ आई। डर के मारे हम सब रजाई में घुस गए, माँ बहुत डर गई थी वह चंदन सिंह से बोलीं, जल्दी ताला लगाकर अंदर आ जाओ। रसोई में ताला लगाकर चंदन सिंह भी अंदर आ गया, अंदर आते ही उसने लालटेन एकदम कम कर दी, खिड़की दरवाज़ों पर पर्दे डाल दिए। अब सिर्फ़ फ़ायर प्लेस की रोशनी ही थी। दादाजी माँ से बोले आवाज़ बॉक्स रूम की छत से आ रही है। चंदन सिंह बड़ा होशियार था, उसने सब बच्चों को रजाई इस प्रकार ओढ़ा दी जिससे एसा लगे की बड़े आदमी सो रहे हों। फिर सब आदमियों के नाम ले लेकर पुकारने लगा, “साहब उठिए, चोर है, चोर है।” माँ ने धीरे से बॉक्स रूम का दरवाज़ा खोला, चाँदनी रात थी रोशनदान से दो लोगों की परछाईं फ़र्श पर पड़ रही थी। चंदन सिंह बोला, “बहूजी अंदर मत जाइए इनके पास खुकरी होगी, ऊपर से ही मार सकते हैं।” डर के मारे हम सबों के होश उड़े हुए थे, तभी माँ जो अभी ईश्वर के आगे रो रही थी चंदन सिंह से बोली, “चंदन सिंह बंदूक निकाल।” बंदूक पापा ने खोल के रखी हुई थी। इससे पहले माँ ने शायद ही कभी बंदूक को हाथ लगाया होगा, लेकिन न जाने उस दिन उनमें क्या दैवी शक्ति आ गई बंदूक जोड़ भी ली और कारतूस भरकर बोलीं, “जिसका भी सिर दिखे गोली मार दे, चिंता मत कर। कारतूस भरे पड़े हैं।”

रात भर हम सब जागते रहे, क़रीब तीन बजे छत से चार लोगों के कूदने की आवाज़ आई। चंदन सिंह बोला लगता है चोर चले गए। लेकिन इस डर से कि कहीं चोर वापस न आ जाएँ, हम सब जागते रहे।

सुबह दूध वाले से पता चला कि शर्मा स्टेट में डाका पड़ा है, शायद ये वही चोर थे जो रात हमारे घर आए थे। दादाजी ने पुलिस में रिपोर्ट लिखाई, चार पुलिस वालों की ड्यूटी हमारे घर पर लगी, सब माँ की तारीफ़ कर रहे थे कि किस साहस से उन्होंने हम सब की रक्षा की। ईश्वर न करे फिर जीवन में ऐसा दिन आए।

2 टिप्पणियाँ

  • 6 May, 2024 12:07 PM

    हार्दिक आभार

  • सजीव वर्णन। ऐसा लगा कि हम भी वहीं पहुँच गए। आपकी माँ की सूझ बूझ और साहस अद्भुत है। बहुत अच्छा लगा। ऐसे संस्मरण भेजती रहिये। शुभेच्छा!

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