उदास आँखों के जलते बुझते जुगनू
कान्ता रॉय
पहाड़ियों के बीच घिरा भोपाल का बड़ा तालाब। शाम का वक़्त, दूर क्षितिज में कहीं उतरता हुआ डूबता सूरज। पानी की झिलमिल सतह। आज नववधू के रूप में नख से शिखा तक शृंगार कर मानो साजन से मिलने को उद्यत हो। सुंदरी के रूप में इस नवयौवना झील ने सोने की चादर ओढ़ ली थी। इस विहंगम दृश्य को अपलक निहारते नेहा और रोहित। दोनों प्रेमी स्वर्णिम आभा से युक्त झील की सुंदरता को देखते रहे। रोहित झील की सतह पर मोटरबोट की छूटती रफ़्तार को अपनी आँखों से पकड़ने की कोशिश करता रहा।
इधर नेहा ने बड़े ध्यान से झील के अनंत विस्तार को देखा, फिर मोटरबोट की ओर देखा। वह अपनी रफ़्तार में हवाओं को चुनौती देती हुई प्रतीत हुई। एकटक देखती हुई वह गहरे पानी में उठती लहरों को गिनने लगी। कुछ देर तक वह उनमें खोई रही। रोहित के कंधे पर अपना सिर टिकाते हुए फुसफुसाई, “यह झील बिल्कुल तुम्हारे जैसी है, विशाल और गहरी।”
सुनकर रोहित ने उसकी आँखों में आँखें डालकर देखा, मुस्कुराया और सिर को झटका दिया। नेहा सजल नेत्रों से अपनी कामना प्रकट करते हुए बोली, “मैं तुम्हारी इन गहराइयों में समा जाना चाहती हूँ।”
रोहित आकुलता से भर गया। वह उठ खड़ा हुआ और नेहा का हाथ पकड़कर कहा, “चलो, यहाँ से कहीं और चलते हैं।”
नेहा उसकी बेचैन आँखों को ताकने लगी, “कहाँ?”
“आगे सिहोर वाले हाइवे की तरफ़, दूर कहीं चलते हैं . . . ” रोहित ने डूबे हुए स्वर में कहा।
“जहाँ तुम्हारा मन करे, ले चलो,” नेहा ने आँखें बंद कर लीं।
रोहित ने उसकी कलाई कस कर पकड़ी और पार्किंग की ओर बढ़ गया। वहाँ से गाड़ी निकाली। नेहा को बैठने का इशारा किया। हमीदिया रोड से होते हुए नादरा बस स्टैंड, अस्त-व्यस्त गाड़ियों के बीच से रास्ता लेते हुए अगले ही पल दोनों लालघाटी से होते हुए बैरागढ़ की तरफ़ जा रहे थे। आज़ू-बाज़ू चकाचौंध से भरे बाज़ार को पीछे छोड़ते हुए, शहर से बाहर क़रीब दस किलोमीटर दूर एक ढाबे पर जाकर गाड़ी रुक गई। वहाँ से बाईं तरफ़ एक रास्ता जाता है, आगे क़रीब आधे किलोमीटर दूर एक पहाड़ी है। दोनों हाथ में हाथ डाले पैदल पहाड़ी की ओर निकल गए। कुहासे से घिरी उस पहाड़ी का सौंदर्य देखते ही बनता था। चारों ओर खेत ही खेत। हरियाली की अद्भुत छटा।
तभी दूर खेत में पसरे कुहासे में एक ग्रामीण बाला की आकृति उभरने लगी। वे और नज़दीक गए। अब वह स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी। उस बाला की उम्र तक़रीबन 30 से अधिक न होगी। उसके वेश-भूषा और पहनावे से न वह कुँवारी प्रतीत होती थी, न गृहिणी, और न ही योगिनी। खुले काले सघन, छितरे हुए केश, विरहिणी की मुद्रा में उसने आकाश की ओर निहारते हुए देखा। ध्यान से देखा तो लगा, वह किसी से वार्तालाप कर रही थी।
नेहा और रोहित दोनों निशब्द थे। थोड़े से और निकट जाने पर संवाद के स्वर स्पष्ट रूप से सुनाई देने लगे। उन्होंने महसूस किया कि वहाँ कोई दूसरा भी है, जिसे वह संबोधित कर रही थी।
वह किसी अनदेखे से कह रही थी, “तुमने जब होली खेलने से मना कर दिया, तब मैंने किसी प्रकार की ज़िद तो नहीं की, पर मन बुझ-सा गया। न बाज़ार गई, न ही रंग ख़रीदा, न ही कोई शृंगार किया।
“पहले भी मेरे पास कोई अपना रंग तो रहा नहीं था। संसार से हर्ष, उल्लास, हताशा, निराशा, दुख-सुख के जितने, जो रंग मिले, सामाजिक दायित्व को पूरा करते हुए उन्हीं में ख़ुद को रँगती रही। यह सच है कि इस तरह से ख़ुद को रँगते हुए देख कर अक्सर दुखी होती रहती थी।
“सोचती थी कि क्या कभी ऐसा भी होगा, कि मेरे पास भी मेरा अपना कोई रंग होगा? जिस तरह से संसार मुझे रँगता आया है, क्या अपने रंग से इस संसार को कभी रँग पाऊँगी?
“इस वर्ष खेतों में धान ख़ूब लहलहाए। किसानों के खलिहानों में रौनक़ें लगी थीं। बेटियों और बहुओं ने इस बार वर्षों बाद गोटेदार चुनरी ओढ़ी थी। गेहूँ की बुवाई हुई। गेहूँ के बाल चुनकर बेटियों ने अपने गाँठों में रक़म बाँधी। अबकी फागुन मेले में चूड़ियाँ ख़ूब खनकीं। चाँदी के झुमके-पायल और सोने की बालियों की नई डिज़ाइन की चमक फैली हुई थी। सुरमई शाम और मदहोश रातों ने जीव के प्राण अस्थिर कर दिए, तो भला कोई कमज़ोर मानुष कैसे इससे ख़ुद को बचा पाता!
“मेरी आँखों में गोटेदार सपने लहरा गए। जाने ऐसी क्या बात हुई कि मुझे भी महसूस हुआ कि वो मेरा ‘अपना वाला’ रंग मुझे मिल गया। अपनी कामनापूर्ण नज़रों से देखा, यह रंग संसार से बिल्कुल अलग था। इसकी चमक तेज़, चटकीली, इसकी चमक में एक विशेष प्रकार की सुगंध बसी हुई थी। ऐसा अनोखा रंग इस दुनिया में किसी ने देखा नहीं होगा।
“मेरे अरमानों ने करवट बदली। लालसाएँ उठ खड़ी हुईं। अबकी बार ऐसी होली खेलूँगी जैसा किसी ने कभी खेली नहीं होगी। जिसके साथ मेरी यह होली होगी, उसका चेहरा इस संसार में नया-नवेला है। जब वह आएगा तो इतना रँगा हुआ होगा कि क़रीब से देखने पर भी वह पहचाना नहीं जा सकेगा। मेरी बात और है, मैं उसकी देह की गंध से ही उसे पहचान लूँगी। जानती हूँ कि गहरे रंग से पुते हुए उसके चेहरे पर चमकती हुई आँखों में तैरते दो कमल, जो सिर्फ़ मेरे हैं, खिल उठेंगे।
“मैं गुलाबी रंग से भरे अपने दोनों हाथ उसके चेहरे की ओर बढ़ाऊँगी। वह क़रीब आकर अपना चेहरा झुका देगा। उसके दोनों हाथों में भी गुलाल होगा। उसके गुलाल का रंग हरा होगा। फिर हम दोनों आपस में रंग लगाते हुए कुछ देर तक झकझोरी करते रहेंगे। इस झकझोरी में हमारी अधूरी दुनिया एक होकर पूरी हो जाएगी। सपनों की मीनारें ऊँची, और अधिक ऊँची होती जा रही थीं . . . तभी अचानक तुमने होली खेलने से इंकार कर दिया।
“मेरी तंद्रा तुम्हारे इंकार से टूट गई। मैं खेतों की ओर दौड़ पड़ी। आसमान की ओर उछाह भरी नज़रों से ताकती गेहूँ की सुनहरी बालियों के बीच जाकर खड़ी हो गई और उन्हीं की तरह आसमान की ओर उत्कंठा से देखने लगी। इस मास के मधु को हम दोनों कभी साथ-साथ नहीं पी सकते थे। अपने मन के दुखों को नीले-नीले रूई के फाहों जैसे, अनंत विस्तार लिए उस आसमान को समर्पित कर दिया और फिर से पहले की तरह ही संसार से मिले रंग को अपना लिया।”
कहती-कहती वह उस खेत में ही कहीं बिला गई। उसके बिला जाने पर वे दोनों और अधिक उदास हो गए। मन में भँवर का तूफ़ान उठा। नेहा ने भावुक होकर फिर से कामनासिक्त नयनों से रोहित की ओर देखा। रोहित के नेत्र सजल हो चुके थे।
समान रूप से धड़कने वाले दो दिलों के बीच दुनिया की दीवारें क्यों खड़ी हो जाती हैं?
आख़िर अपने मन का जीवनसाथी चुनने का अधिकार समाज क्यों नहीं देता?
उस ग्रामीण बाला में उसे अपना ही अक्स नज़र आया। रोहित उसके जीवन का आधार है, फिर भी वह उसके जीवन का हिस्सा होने से बेदख़ल कर दिया गया है।
नेहा ने दिल पर क़ाबू करते हुए धीरे से पूछा, “क्या तुम कल होली खेलने आओगे?”
रोहित ने उदास स्वर में कहा, “नहीं, कल तड़के ही अम्मा के साथ मामा के यहाँ जाना होगा।”
जब से रोहित के पिता का स्वर्गवास हुआ था, उस पर अम्मा की ज़िम्मेदारी बढ़ गई थी।
नेहा ने मायूस होकर उसके हाथों को पकड़कर कहा, “परसों मेरे पति मुझे ले जाने के लिए आ रहे हैं। अगले महीने हम लोग अलास्का चले जाएँगे।”
“अलास्का . . .!” उसके चेहरे पर बेचारगी उभर आई। फिर संयत होकर पूछा, “अलास्का में कहाँ?”
“जूनो।”
“फिर कब लौटोगी?”
“नहीं मालूम।”
रोहित ने नेहा को कसकर बाँहों में भर लिया। आलिंगनबद्ध दोनों देर तक रोते रहे।
वापसी में, चुप। कोई संवाद नहीं।
शहर पहुँचकर नेहा अपने घर से फ़र्लांग भर दूर गाड़ी से उतरी और पलटी। जाने से पहले उदास आँखों से इतना ही कह पाई, “मैं जानती हूँ कि सपनों के महल में खिड़कियाँ नहीं हुआ करतीं। हम दोनों को बिना खिड़की के इस सपनों के महल में रहना होगा।
“तुम अपनी कम्पनी में अर्ज़ी देकर देखना और अलास्का आने की कोशिश करते रहना। मैं इंतज़ार करूँगी।”
नेहा के जाने के बाद रोहित उतावला-सा हो गया था। किसी भी कार्य में उसका मन नहीं लगता। उसने अलास्का जाने की जुगत लगा ली थी। कम्पनी की एचआर उससे प्रभावित थी। उसने प्रबंधन को अपने हक़ में ले लिया था।
अपनी अम्मा को मामा के यहाँ छोड़ आया। यह कहकर कि वह अलास्का, जो कि अमेरिका में है, वहाँ जा रहा है। पहुँचकर प्रत्येक महीने अम्मा के ख़र्चे के लिए रुपए भेजता रहेगा। सुनकर मामी ने आश्वासन दिया, “तुम्हारी अम्मा को यहाँ आराम से रखेंगे, तुम अपनी नौकरी पर ध्यान देना।”
दिल्ली से उसकी फ़्लाइट थी, जो दुबई होते हुए जाएगी। नेहा को गए आठ महीने हो चुके थे। इस बीच सोशल मीडिया और फोन के ज़रिए दोनों जुड़े रहे।
नेहा अलास्का के जूनो में रहती थी और इधर रोहित को एंकोरेज का लोकेशन मिला था।
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एंकोरेज एक बेहद ख़ूबसूरत शहर है। वह ऑफ़िस से छूटकर अक्सर यहीं पास के एक रेस्टोरेंट में चला जाता। यह रेस्टोरेंट यहाँ मशहूर है। यहाँ के लोग व्यवहार में जितने सुसंस्कृत हैं, हरकतों में उतने ही जंगली। दरअसल एंकोरेज, अलास्का का सबसे बड़ा शहर है, चुगाच पर्वत और कुक इनलेट के बीच स्थित।
शहर से थोड़ी ही दूरी पर दर्जनों रोमांचकारी जंगल हैं। वहाँ के जनजातीय समूहों के लोगों का शहर में आना-जाना बना रहता है।
रोहित को यह देख कर आश्चर्य होता कि यहाँ के लोग बाहर खाना खाने के लिए साधारण कपड़े पहनकर जाते हैं। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आप किसी बढ़िया डाइनिंग रेस्टोरेंट में जा रहे हैं या फ़ूड ट्रक में।
अकेलेपन से बचने की जुगत में कभी वह संग्रहालय भी घूम आता। यहाँ थिएटर का अच्छा माहौल था।
उसे बचपन से ही थिएटर का शौक़ था, लेकिन इससे पहले इस शौक़ के लिए इस तरह से कभी समय नहीं निकाल पाया था।
थिएटर में उसके कई नए दोस्त बन गए थे। थिएटर में इन दिनों क्या नया हो रहा है, इसकी जानकारी मिल जाती थी।
साथ ही उनके साथ रंग, प्रकाश इत्यादि पर वह चर्चा भी कर लेता था।
एंकोरेज धीरे-धीरे उसकी जीवन-शैली का हिस्सा बनता जा रहा था।
रोहित को एंकोरेज में आए दो महीने से अधिक हो चुके थे लेकिन अब तक नेहा से मिलना नहीं हो पाया।
टेड स्टीवंस एंकोरेज इंटरनेशनल एयरपोर्ट से प्रतिदिन क़रीब 20 उड़ानें जूनो के लिए हैं, लेकिन ऑफ़िस में कार्य के दबाव के चलते वह अभी जूनो नहीं जा सका।
उसने नेहा पर कई बार एंकोरेज आने का दबाव बनाया, लेकिन वह नहीं आ सकी।
यहाँ वर्ष का सबसे छोटा दिन 21 दिसंबर, शीतकालीन संक्रांति होता है। इन दिनों सब तरफ़ उत्सव का माहौल छाया रहता है।
वह चाहता था कि नेहा कम से कम आज तो उसके साथ हो। चमकीले प्रकाश, तेज़ गति से भागती कारें, शीशे की ऊँची-ऊँची इमारतों के बीच वह तनहा-तनहा ख़ुद में ही खोया रहता।
वह देर तक रेस्टोरेंट में बैठा रहा। कलाडी यहाँ का मशहूर कॉफ़ी हाउस है।
छतों से नीचे तक लटकती असंख्य सितारों-सी चमकती झूमरें, दीवारों पर सिक्वेंस में सजी महँगी पेंटिंग्स, नक़्क़ाशीदार दरवाज़े और खिड़कियाँ।
मदहोश कर देने वाली मंद-मंद संगीत . . . इसकी रंगीनियाँ उसे लुभा क्यों नहीं रही थीं?
आसपास के टेबलों पर युवा अपने पार्टनर के साथ मस्ती में क़हक़हे लगा रहे थे। एक अलग तरह की रूमानियत सी छाई हुई थी।
कॉफ़ी पीते हुए उसने नेहा को कई बार फोन लगाया।
नेहा ने फोन रिसीव नहीं किया बल्कि काट ही दिया।
इस अवहेलना से उसका हृदय फटा जा रहा था। नेहा से दूरी उसके मन में अशांति का कारण बनती जा रही थी।
उसकी यादों को अपने अंतःकरण में सदैव आलिंगनबद्ध किए रहता था, बावजूद इसके वह न तो हँसने योग्य बचा था, न ही रोने योग्य।
नेहा इन दिनों एक अलग तरह के कशमकश से गुज़र रही थी। उसके साथ दिक़्क़त यह थी कि वह यहाँ अलास्का में अपने स्तर पर अपना सर्कल बनाने में असफल रही थी। उसके पड़ोसी को भारतीय लोग नहीं सुहाते थे। अधिकांश अमेरिकियों का यह मानना है कि हम भारतीय उनके हिस्से का रोज़गार हथिया कर बैठे हुए हैं, जबकि सच तो यह है कि यहाँ भारतीयों को अमेरिकियों के मुक़ाबले कम सैलरी मिलती है। इस अपार्टमेंट में वह एकमात्र भारतीय थी। वीरेंद्र को यह अपार्टमेंट उसके किसी अमेरिकी दोस्त ने सस्ते में दिलवाया था।
नेहा चुपचाप रहने लगी थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करे। अकेले किसी अन्य शहर में जाने के लिए एक वाजिब कारण तलाशने में मुश्किल हो रही थी। वर्किंग वुमन होती तो बात और थी। वीरेंद्र की मर्ज़ी नहीं थी, इसलिए उसने नौकरी के लिए कभी आवेदन भी नहीं दिया। रोहित के आने से पहले ही अपने आने वाले जीवन में कुशंकाओं को लेकर एक प्रकार की धुकधुकी सी बैठ गई थी। वीरेंद्र वैसा नहीं है जैसा दिखता है। उसके पीछे बहुत कुछ है, जिसका पर्दे से बाहर आना बाक़ी है।
अब लग रहा है कि एक नौकरी की उसे बेहद ज़रूरत है। यहाँ आने के बाद वीरेंद्र के बारे में जिस सच का पता चला, वह अकल्पनीय था। उस सच ने ही आगे बढ़ने का रास्ता सुझाया था। रोहित को लेकर पहले जिस तरह के अपराधबोध से वह घिर जाया करती थी, वह अब औचित्यहीन था। अब रोहित ही उसका प्रारब्ध है, यह वह जान रही थी। उसने अलास्का में सॉफ़्टवेयर कंपनियों की सूची तैयार की। जूनो और एंकोरेज में स्थित आईटी हब को समझने की कोशिश करने लगी। उसने ऑनलाइन कई ट्रेनिंग प्रोग्राम में हिस्सा लिया और स्वयं को अपडेट करने की कोशिश की।
रोहित को नेहा की याद के अलावा और कुछ नहीं सूझता। वह अपने प्रोजेक्ट पर फ़ोकस करता था और विराम के क्षणों में नेहा पर ध्यान लगा रहता था। क्षण भर को भी काम से ब्रेक लेता तो नेहा की याद सताने लगती। नेहा से वह जब चाहे तब बात भी नहीं कर सकता था। उससे मिलने की बेक़रारी परेशान करती थी। उसने सोच लिया था कि वह किसी न किसी तरह अगले हफ़्ते जूनो जाने का प्लान करेगा। ख़ुद में डूबा हुआ वह कैफ़ेटेरिया में पहुँचा और कॉफ़ी का ऑर्डर देकर सामने कुर्सी पर अनमने मन से बैठ गया। तभी मोबाइल पर वॉट्सऐप का नोटिफ़िकेशन फ़्लैश हुआ, वह उछल पड़ा।
“मैं इस वीकेंड एंकोरेज आ रही हूँ।”
नेहा का मैसेज था। वह आ रही है। उसे एंकोरेज में जॉब मिल गई है। भावुकता में स्थान का ध्यान नहीं रहा और वह ख़ुशी के मारे रो पड़ा। बैरा अकबकाया हुआ उसकी ओर देख-देखकर कॉफ़ी सर्व करने लगा। क़हक़हे लगाती मस्तियाँ पल भर को रुक गईं, फिर अचानक ज़ोर-ज़ोर से जैज़ बजने लगा। जोड़े उठ कर डांस फ़्लोर पर पहुँच गए। मस्ती भरा कोलाहल अपने चरम पर था। उसके क़दम भी उस ओर बढ़ गए। देर रात तक वह उनके साथ झूमता रहा। कब, कैसे अपने घर पहुँचा, इसका उसे इल्म नहीं था। सुबह सोकर उठा तो मोबाइल पर तारीख़ और समय दोनों को ध्यान से देखा। नेहा कल ही आ रही है। उसे तैयारी करनी थी। वह अस्त-व्यस्त कमरे को सँवारने में जुट गया। इस घर को फूलों से सजाएगा, उसके पसंद का डिनर ऑर्डर करेगा। इस पल को यादगार बनाने के लिए एक अच्छा-सा उपहार भी ख़रीदेगा। उसने खिड़कियों के परदे समेट दिए। काँच की खिड़की से बाहर झाँका। आज की सुबह ढेरों सपने लेकर आई थी।
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“क्या तुम सच में ज्वाइन कर रही हो?”
वीरेंद्र की आवाज़ सुन कर लैपटॉप पर झुकी नेहा ने बिना सिर उठाए धीरे से कहा, “हाँ, इंटरव्यू देने से पहले तुम्हें बताया था मैंने कि कम्पनी एंकोरेज में जॉइनिंग दे रही है।”
“क्या तुम सच में एंकोरेज जा रही हो?” वीरेंद्र की आवाज़ उम्मीद से अधिक गंभीर थी।
“हाँ, मैं सचमुच में जा रही हूँ।”
“वापस कब आओगी?”
“यह मेरे करियर का ही नहीं बल्कि जीवन का प्रश्न भी है, इसलिए अब लौटना नहीं हो पाएगा।”
सुनकर वीरेंद्र कुछ देर वहीं खड़ा रहा फिर चुपचाप स्टडी रूम से बाहर निकल आया। जेब से सिगरेट का पैकेट निकाल कर एक सिगरेट होंठों में दबा कर लाइटर से सुलगाया और हॉल में पहुँच कर सोफ़े पर बैठ गया।
नेहा दूर जाती आहट की मनोदशा को लेकर अनमनी-सी हो उठी। वह भी पीछे-पीछे हॉल में पहुँच गई। उसने एक नज़र हॉल के बायीं तरफ़ के दिवाल पर टँगी घड़ी पर डाली जिसके ऊपर डांसिंग डॉल जोड़े में नृत्य मुद्रा में हिल रहे थे। वक़्त के बीच प्रेम डोल रहा था। इस सुसज्जित कमरे से वह अब तक संगत नहीं बिठा पाई थी। इस अपार्टमेंट में वैभव और विलास की सभी चीज़ें हैं। फिर भी उसके लिए यह बेमानी है। वह सामने दूसरे सोफ़े पर इस तरह बैठी कि वीरेंद्र का चेहरा पढ़ सके। वीरेंद्र ने उसकी उपस्थिति का मान करते हुए सामने मेज़ पर क्रिस्टल की एशट्रे में बची हुई सिगरेट को रगड़ते हुए वहीं छोड़ दिया।
कल शाम 5 बजे की फ़्लाइट है। नेहा ने फिर से बात शुरू की।
वीरेंद्र ने उसके जाने की बात को अनसुना करते हुए रोष प्रकट करते हुए पूछा, “डैडी का फोन आएगा तो मैं क्या कहूँगा? उधर इंडिया में हमारे अलग रहने की ख़बर उड़ेगी तो मालूम है न कितना बवाल मचेगा? तुम्हारे घर में भी यह ख़बर पहुँचेगी।”
“हाँ, जानती हूँ। यह तो एक दिन होना ही था,” नेहा की आवाज़ स्थिर है।
उस पर किसी बात का असर होते न देख वह तैश में आ गया, “यह कैसी बातें करने लगी हो?”
नेहा अंदरूनी तौर पर हर प्रश्न के लिए तैयार थी।
“मैं ऐसे ही बातें करती हूँ। ओह! यह तुम्हें कैसे पता होगा, हमने आज तक आपस में कोई बातचीत कभी की ही नहीं!”
वीरेंद्र अकबका गया। इसके लिए वह बिलकुल तैयार नहीं था, “जाते वक़्त इल्ज़ाम लगा रही हो? तुम्हारे लिए मेरी तरफ़ से किसी बात की कमी नहीं हुई है। क्या मैंने तुम्हें पत्नी के सारे अधिकार नहीं दिए? यह घर तुम्हारे लिए ही ख़रीदा था। मैंने पहले भी कहा और अब भी कहता हूँ कि तुम इस घर में जैसे चाहे वैसे रह सकती हो।”
“वीरेंद्र, हमारी शादी को डेढ़ वर्ष बीत गए हैं। याद है कि तुम शादी के लिए सिर्फ़ दस दिनों की छुट्टी लेकर आए थे। सो लौट आए। मैं जब तक तुम्हारे यहाँ रही, बहू के सभी फ़र्ज़ मन प्राण से निभाए हैं। डैडी जी और मम्मी जी की ज़िद करने पर तुमने मेरे यहाँ आने का इंतज़ाम किया था। अगर वे ज़िद न करते तो शायद तुम . . .”
“शायद मैं . . . क्या?”
“ज़रा याद करो शादी के पहले दिन से आज तक की रात को। क्या किसी दिन बिना ड्रिंक किए मुझसे प्यार किया है? आख़िर ऐसा क्या है जिसके लिए पीना इतना ज़रूरी हो जाता है? मुझे मालूम है कि तुम आदतन पियक्कड़ नहीं हो। तुम्हें सिर्फ़ मेरे पास आने के लिए पीना पड़ता है।”
सुनते ही वीरेद्र की नज़र झुक गयी। उसे अंदाज़ा नहीं था कि नेहा उसकी मनःस्थिति को भाँप लेगी। उसने अपराधबोध महसूस किया।
“अब जब सब कुछ ख़त्म हो रहा है तो यह बताना ज़रूरी है कि मैं किसी और से प्यार करती हूँ और तुम भी।”
सुनते ही वीरेंद्र पसीने से नहा उठा। नेहा उसकी पत्नी है, किसी और से वह कैसे प्यार कर सकती है? अन्तरंगता के क्षण यकायक मानों जीवित हो गए। उन जीवित पलों की नर्म मुलायमियत से एहसासों का वैसे तो कोई औचित्य नहीं था! शादी के बाद परिवार में कहीं बखेड़ा खड़ा न हो जाए इस डर से यहाँ स्त्री-पुरुष ने एक दूसरे के साथ रिश्ता क़ायम कर लिया था। वह प्रेम नहीं बल्कि निर्वाह का रिश्ता था। वह देर तक पसोपेश में अटका रहा। चोर नज़रों से नेहा की ओर देखा। उसका पुरुष मन संदिग्ध अवस्था में देह के रिश्ते में अटका हुआ था। नेहा जो उसकी पत्नी है, किसी और से प्यार करती है! सुनकर जबड़े भींच लिए। रोज़ उसकी प्रेमिका है पत्नी नहीं। वह रोज़ और नेहा दोनों के साथ मेनेज तो कर ही रहा था। फिर एकदम से नेहा . . . यह रोहित कौन है, कहाँ से आया! इतना सब कैसे घट गया?
वीरेंद्र की उलझन को नेहा ने महसूस किया।
“तुम रोहित के बारे में नहीं जानते, लेकिन मैं तुम्हारी रोज़ के बारे में जानती हूँ। मैंने उसके और तुम्हारे अंतरंग वीडियो देखे हैं। मेरे यहाँ आने से पहले वह तुम्हारे साथ रहती थी। मैंने उसकी उपस्थिति को इस घर के प्रत्येक कोने में महसूस किया है।
“तुमने जो किया वह अपराध नहीं था, और मैं जो करने जा रही हूँ वह मेरे नज़रों में अपराध नहीं है। प्यार करना अच्छी बात है, और निभाना भी।
“माता-पिता को भाग्यविधाता कहा जाता है। संतान के जीवन में सुख और दुःख के संचरण में उनकी परवरिश का हाथ तो रहता ही है, बल्कि बच्चा माता-पिता की आँखों में जीवित स्वप्न का किरदार होता है। वास्तविकता तो यही है कि ममता और अनुराग भरी आँखों के रुपहले परदे पर संतान किरदार के अतिरिक्त कुछ भी तो नहीं! मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की, लेकिन नौकरी करने की इजाज़त नहीं पा सकी। रोहित के साथ अंतर्जातीय विवाह के लिए भी मैं उन्हें राज़ी न कर सकी।
“बचपन के मीत से विरह। हृदय में किसी अन्य के हिस्से का प्रेम अग्नि की गवाही में ब्याहे वर पर न्योछावर हो जाता है। लड़कियों के जीवन में अधिकतर ऐसा ही होता है, उगती कहीं, झरती कहीं। जहाँ झरती है, वहाँ की ज़मीन पर बिखरी पड़ी, बाग़बान द्वारा अपनाए जाने की आस लगाए रहती है; जहाँ अपना सर्वस्व लुटाकर भी उसका अपना कुछ भी नहीं पनप पाता है।
“मेरी इंजीनियर की डिग्री परिवार के स्टेटस तक सीमित रही। मैंने अपने पिता की मर्ज़ी के अनुसार शादी की और जैसे भारतीय स्त्रियाँ निभाती आई हैं, मैं भी इस रिश्ते को निभाने की कोशिश कर रही थी। लेकिन अब तो हालात अलग हो गए हैं, इस रिश्ते को निभाने का कोई औचित्य नहीं है। मैं रोहित से प्यार करती हूँ। वह मेरा इंतज़ार कर रहा है। उसी के लिए एंकोरेज जा रही हूँ।”
वीरेंद्र ने चौंक कर देखा, मुश्किल से ख़ुद को संयत किया। उसे डर था कहीं नेहा उसकी कमज़ोरी भाँप न जाए।
उसने अपनी बात रखी, “मैंने भी शादी मजबूरी में की थी। उन्हें विदेशी बहू नहीं चाहिए थी। परिवार के दबाव के कारण मुझे भी झुकना पड़ा। इस रूढ़िवादी सोच ने चार लोगों के जीवन को इस क़द्र प्रभावित किया है कि . . . लेकिन अब . . .”
“लेकिन क्या, रुक क्यों गए, जारी रखो?”
“मैं नहीं चाहता कि तुम यहाँ से जाओ।”
“एक बात कहूँ?”
“हूँ . . . कहो!”
“हक़ीक़त तो यही है कि हम दोनों पति-पत्नी हैं। लेकिन अब इस हक़ीक़त को बदलना होगा। इस केस में मेरी और तुम्हारी स्थिति में अधिक फ़र्क़ तो नहीं है, फिर भी बहुत फ़र्क़ है।”
“क्या?”
“तुम फ़ैसला नहीं ले पाते हो और मैंने अपने लिए फ़ैसला ले लिया है। मैंने रोज़ को बुलाया है। वह आती ही होगी। अब तुम दोनों साथ रहना। मैं पिछले कई दिनों से रोज़ के संपर्क में हूँ। उसने तुम्हें बताया नहीं होगा। रोज़ को मैंने ही मना किया था। वह वाक़ई में तुम्हें बहुत प्यार करती है। मैंने तुम दोनों के लिए रात का डिनर तैयार किया है। खा लेना।”
नेहा उठकर सामान पैक करने में जुट गई। वीरेंद्र जड़ हो चुका था। उसे सूझ ही नहीं रहा था कि कैसे नेहा को रोके। रोज़ के मामले में नेहा जितनी उदार हो सकती है, उतनी वह रोहित के लिए क्यों नहीं हो पा रही है?
जो स्त्री पिछले डेढ़ वर्ष से उसकी पत्नी के रूप में पहचानी जा रही थी, वह अब किसी रोहित के साथ . . . वह ऐसा कैसे होने दे सकता है? लेकिन वह रोक भी तो नहीं सकता है।
रोज़ के आने से पहले ही नेहा एयरपोर्ट के लिए निकल चुकी थी।
वीरेंद्र, जो अब तक इस रिश्ते को बोझ समझता आ रहा था, अचानक उसे इसकी इतनी अहमियत क्यों महसूस होने लगी? वह अपने आप से प्रश्न करता रहा। स्त्री के प्राप्य और अप्राप्य होने के सम्बन्ध उसे भोग्य वस्तु समझने से जुड़े हुए हैं।
नेहा रोहित से प्यार करती थी लेकिन माता-पिता के दबाव में उसे पारिवारिक परंपराओं को बाध्य होकर मानना पड़ा। उसने अग्नि को साक्षी मानकर तन-मन से वीरेंद्र को पति के रूप में स्वीकार कर लिया था।
लेकिन शादी के तुरंत बाद पति होने का फर्ज़ भूलकर वीरेंद्र का वापस अलास्का चले जाना और रोहित का बार-बार उसके घर चक्कर लगाना, उसे फिर से रोहित के क़रीब ले गया।
अलास्का आने के बाद जब उसे रोज़ के बारे में मालूम हुआ तो उसने इस रिश्ते से अलग होने को नियति का इशारा मान लिया था। अब अलग होने का फ़ैसला कर लिया है तो एक बार पुनः ज़मीन पर उतर कर लड़ना होगा।
वह अब स्वतंत्र है। जीवन ने उसे दूसरा मौक़ा दे दिया है। सिमट-सिकुड़ कर इस जीने से वह आज़ाद है।
एयरपोर्ट पहुँच कर औपचारिकताएँ पूरी करते हुए रोहित को अपनी रवानगी की सूचना दी।
तभी वीरेंद्र का मैसेज आया, देख चौंकी, “तुम इस तरह से मुझे छोड़ कर नहीं जा सकती। किसी दूसरे की तुम नहीं हो सकती। मैं तुम्हें किसी और का होने नहीं दूँगा! तलाक़ की कल्पना भी मत करना। वापस आ जाओ, इसी में सबकी भलाई है।”
उसने मोबाइल से नज़रें हटा ली।
आख़िर वीरेंद्र के अंदर छिपे मर्द ने अपना अंतिम शस्त्र चला ही दिया।
यह वीरेंद्र के अहम की लड़ाई है, तो यह नेहा की अस्मिता की लड़ाई भी है, जिसमें वह हार नहीं सकती।
अगर तलाक़ नहीं हुआ तो क्या करेगी!
बिना शादी के उम्र ऐसे ही बिता देगी, पर लौटना अब सम्भव नहीं हो पाएगा।
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उसकी फ़्लाइट एंकोरेज के लिए उड़ान भर चुकी थी।
एंकोरेज एयरपोर्ट के बाहर रोहित फूलों का गुलदस्ता लिए खड़ा था।
वह जानती थी कि रोहित हर हाल में उसके साथ है।
तभी रिंग टोन के साथ मोबाइल की स्क्रीन पर हरी पट्टी उभर आई। इंडिया से वॉट्सएप कॉल था।
“यह क्या सुन रही हूँ?” मम्मी की तल्ख़ आवाज़ सुनकर एकबारगी वह सहम गई।
हिम्मत जुटाकर प्रत्युत्तर में प्रश्न कर दिया, “क्या सुना है तुमने?”
“यही कि तुमने दूसरे शहर में नौकरी कर ली है और उस रोहित के लिए अपने पति को छोड़ रही हो?”
“आपने आधा सच सुना है।”
“पूरा सच बताओ।”
“पूरा सच यह है कि वीरेंद्र एक अंग्रेज़ लड़की रोज़ के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में हैं। वे शादी के पहले से उसके साथ रह रहे हैं।”
“क्या यह बात सच है?”
“तो मैं झूठ क्यों कहूँगी! वह तो अच्छा हुआ कि मुझे यहाँ नौकरी मिल गई, नहीं तो आपकी ब्याहता बेटी विदेश में दर-दर की ठोकरें खाती फिरती और किसी समंदर के किनारे रेत में लिपटी मुर्दा पाई जाती।”
“चुप! चुप!” सुनते ही आशंकाओं से घिरी मम्मी की तल्ख़ आवाज़ सहम-सी गई।
फिर धीरे से बोली, “रोहित के बारे में सुना है कि वह भी . . .!”
“रोहित अलास्का में नहीं है। वह दूसरे शहर में है। उसी शहर में मुझे यह नौकरी मिली है। मम्मी, इस परदेश में अकेला वही तो है जिसका मुझे सहारा है।”
“तुम्हारे सास-ससुर यहाँ बैठे हैं। तुमसे बात करना चाहते हैं।”
“अब मैं उनसे क्या कहूँ! शादी से पहले रोज़ के बारे में वीरेंद्र ने उन्हें बताया था।”
“क्या कह रही हो! ये लोग पहले से जानते थे? फिर भी . . . जान-बूझकर मेरी बेटी को फँसाया है! तुम अपना ख़्याल रखना, मैं अब फोन रखती हूँ।”
नेहा सजल नेत्रों से मोबाइल पर्स में रख, रोहित का हाथ पकड़ पार्किंग की तरफ़ बढ़ गई।
वह जानती थी कि दो व्यक्तियों के बीच परिवार के साथ पूरा समाज जुड़ा होता है।
एक ग़लत फ़ैसला झंझावातों से गुज़रते हुए कितनों को आहत कर जाता है।
परिणाम सामने था। उसके लिए परिवार महत्त्वपूर्ण है और समाज भी।
उसकी तंद्रा टूटी तो देखा, रोहित धीरे से उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कह रहा था, “जाने दो न यार, जो हो गया सो हो गया, अब हम साथ तो हैं।”
“हाँ, हम साथ तो हैं . . . लेकिन वीरेंद्र के तेवर को देखते हुए सबसे पहले मुझे एक अच्छा वकील चाहिए।”
कहते हुए नेहा ने अपना सिर रोहित के काँधे पर टिका दिया और कहीं दूर गहरी सोच में डूब गई।